गीता महात्मा पार्थ के निःस्वार्थी सारथी की छड़ी है, जो मोह निद्रा में पड़े जीवों को जगा रही है।गीता जनार्दन भगवान के पांचजन्य शंख की शोकनाशिनी पवित्र ध्वनि है, जो सतत शोकातुरों का शोक निवारण कर रही है।गीता मधुसूदन भगवान के सुदर्शन चक्र की बनेठी है, जी दैत्यों को मारकर देवताओं को अभय कर रही है।गीता भक्तवत्सल भगवान की गदा है जो भक्तों को विजय प्राप्त कराकर उन्हें स्वतन्त्र बना रही है।
महात्मा अर्जुन धीर ,वीर, पराक्रमी और भगवान के परम भक्त थे।उनकी धीरता, वीरताऔर पराक्रम छिपे नहीं हैं।महाभारत सुनने-पढ़ने वाले सभी जानते हैं।अर्जुन के परम भक्त होने में स्व यं--- भगवान ही साक्षी हैं, जो चौदह भुवन के अधिपति होकर भी अपने भक्त के लिये हाथ में कोड़ा लेकर सारथी बने।ऐसे महानुभाव अर्जुन, जब युद्ध की घोषणा करने वाले दोनों सेनाओं के शंख बज चुके हैं, युद्ध आरम्भ होने को है,ऐसे समय में लोकों के हितार्थ मोह धारण कर के साधारण मनुष्य के समान कायरता और करुणा से युक्त होकर युद्ध से उपराम हो जाते हैं और अनेक युक्तियों से अपने मत को सिद्ध करते हैं ।अर्जुन के ऐसे चरित्र को भगवान के भक्त ही समझ सकते हैं,दुष्ट प्रकृति के पुरुष तो उनके चरित्र को देख-सुनकर मोह को ही प्राप्त होते हैं अर्जुन को मोहादि कुछ नहीं था,वे जानते थे कि आगे कलियुग में जड़ बुद्धि वाली प्रजा उत्पन्न होगी, उसके लिये वेद-वेदाङ्ग समझना कठिन होगा,ऐसों के लिये भक्ति, ज्ञान, वैराग्य का सुलभ मार्ग दिखाना चाहिये,और वह मार्ग भगवान के शिवा और कौन दिखा सकता है?यों विचारकर वे-- अपने कर्तव्य से हटने लगे।यह देखकर दयामय भगवान शुरू में ही उनकी पीठ पर बड़े जोर से वाक्यरूपी छड़ी फटकारने लगे--
कुतस्तवा कश्मल मिदं विषमे समुपस्थितम।
अनारयजुष्टमस्वर्गयमकीर्तिकरमर्जुन।।
क्लैब्यम् मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यम त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।।
अर्थात हे अर्जुन! तुझमें, देवांश महाशूरवीर में मेरे भक्त में ऐसी कायरता कहाँ से आ गयी?युद्ध का समय है,ऐसे अवसर पर साधारण मनुष्य भी मोह नहीं करेगा। महान शूर होकर तू अपने क्षात्र-धर्म पर क्यों कलंक लगाता है?तुझे ऐसा करना योग्य नहीं है!यह तो अनार्यों का काम है।तेरा जन्म तो उत्तम भरतवंश में हुआ है,ऐसे उत्तम वंश वाले तुझको यह निन्दित कर्म शोभा नहीं देता।तू स्वर्ग के राजा इन्द्र का अंशावतार है,यह कर्म देवताओं का नहीं है,असुरों का है।ऐसा करने से तो तू स्वर्ग से भी भ्रष्ट हो जाएगा।केवल स्वर्ग से ही नहीं भ्रष्ट होगा बल्कि तेरी विमल कीर्ति नष्ट हो जायेगी, तू अपकीर्ति को प्राप्त होगा।शिष्ट पुरुषों का कीर्ति ही तो भूषण है,अपकीर्ति तो उनका मरण है।मरने के बाद शिष्ट पुरुषों की कीर्ति ही जगत में रह जाती है,जिसकी एक बार अपकीर्ति हो जाती है,वह जबतक संसार है,तब तक चली ही जाती है, मिटती नहीं है।चन्द्रमा को जो एक बार कलंक लगा सो अबतक नहीं छूटा और जब तक सृष्टि है,छूटने वाला भी नहीं है।ऐसा समझकर तू अपनी अपकीर्ति का कारण न बन।इतना सुनकर भी जब अर्जुन नहीं चेते तब तो भगवान उन्हें एक ऐसा कठोर शब्द कहकर चेताते हैं ,जिसको सुनकर कायर सेकायर को भी जोश आ जाये।फिरभी अर्जुन पर उसका कुछ असर नहीं होता।तब भगवान उन्हें प्यार से समझाते हैं-हे भाई!तू तो शत्रुओं को सन्ताप देने वाला है,कायर तो है नहीं।बड़े बड़े शूरवीर महारथियों और देवताओं को जीत चुका है,इस बात को स्मरण कर!हृदय की दुर्बलता त्याग दे।यह दुर्बलता क्षुद्र है और मनुष्य को क्षुद्र बनाने वाली है,महा अनर्थ का कारण है।लौकिक, पारलौकिक सर्व प्रकार की सिद्धि में यही प्रतिबंधक है।हृदय की दुर्बलता का न तो राज कार्य आदि ही कर सकता हैऔर न ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि का ही अधिकारी हो सकता है।इसलिये महा अनर्थ करने वाली इस हृदय की दुर्बलता को छोड़ और हिम्मत बाँधकर खड़ा हो जा।यही भगवान की साक्षात छड़ी अथवा कोड़ा है,जो अर्जुन के निमित्त से हम सबको मोह निद्रा से जगा रहा है।अन्त में भगवान ने कहा कि"न सुनेगा तो तेरा नाश हो जाएगा।----- हृदय पर चोट देने वाले और वीर रस उत्पन्न करने वाले भगवान के मार्मिक शब्द सुनकर भी अर्जुन अभी तक करुणा रस में डूबे हुए हैं!क्यों न डूबें?डूबना ही चाहिये!अभी उनका गूढ़ अभिप्राय तो सिद्ध हुआ ही नहीं है!इसलिये महा अज्ञानी अथवा पूर्ण ज्ञानी के समान वह चिकने घड़े बन गये हैं!जब तक भगवान के मुख से सम्पूर्ण गीता शास्त्र सुन न लेंगे और मूढ़ विषयासक्त, देहासक्त, वितासक्त हम सरीखों के लिये कल्याण का मार्ग खोल न देंगे तब तक मोह त्यागने वाले नहीं हैं।महात्मा लोग धुन के पक्के होते हैं, कार्य सिद्ध करके ही छोड़ते हैं।
फिर भीअर्जुन अपना ही आल्हा गाते हैं-कथं भीष्ममह्म संख्ये द्रोणम च मधुसूदन।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पुजाहावरिसूदन।।
अर्जुन के ऐसे करूणा युक्त वचन सुनकर भगवान हँसते हुए से कहने लगे-भाई अर्जुन!समय का कार्य समय पर ही शोभा देता है,रोना अथवा हँसना समय समय का अच्छा होता है।खीर में नमक और साग में हल्दी डालना ठीक नहीं होता।ऐसा करने से तो दोनों ही बिगड़ जाते हैं।क्या यहाँ राज्याभिषेक का उत्सव है,जो भीष्मादि को भोजन कराता हुआ तू पुष्पों से उनका पूजन करना चाहता है?यह तो युद्ध का अवसर है,भीष्म द्रोणादि धनुर्विद्या के आचार्य हैं, इस समय तो वे बाणों से ही पूजने योग्य है, इसी से वे प्रसन्न होंगे।इन्द्र ने बाणों से प्रसन्न होकर प्रतर्दन को ब्रह्मविद्या का उपदेश किया था।परशुराम ने बाणों से ही प्रसन्न होकर भीष्म को वरदान दिया था।महादेव तुझपर बाणों से ही प्रसन्न हुए थे,राजनीति जानकर भी तू करुणावश अपने धर्म को क्यों भूल गया है?अर्जुन को मोहवश तथा शोकातुर हुआ देखकर भगवान हँसते हुए उसका शोक निवारण करने के लिये तत्वज्ञान का उपदेश करने लगे।
गीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान ने विराट स्वरूप दिखलाया हैऔर उसमें दैत्यों का नाश दिखलाया है।वही भगवान का सुदर्शन चक्र भक्तों को अभय देनेवाला है।
बारहवें अध्याय में भक्ति का स्वरूप बतलाया है,भक्ति ही भगवान की गदा है, उसी के बल से भक्त स्वतन्त्र और निर्भय हो जाता है। गीता बड़ा गहन ग्रंथ है,साथ ही वह बहुत सरल भी है।सरल वस्तु ही यथार्थ में महान होती हैऔर सभी महान वस्तुएँ अत्यन्त सरल होती है।गीता सरल होते हुए भी महान है और महान होकर भी सरल है।
अमेरिकन ऋषि एमर्सन ने गीता के सम्बंध में कहा है कि वह ज्ञान का भण्डार है,ज्ञान का साम्राज्य है-Gita is an empire of thought.
फ्राँस के यशस्वी लेखक मैटरलिक ने गीता को"मनुष्य मात्र की बाईबल कहकर पुकारा है।
सचमुच गीता किसी
एक जाति की सम्पत्ति या जागीर नहीं है,वह मनुष्य मात्र का धन है।
लगभग250 वर्ष पूर्व विल्किन्स महोदय ने सर्वप्रथम गीता का अँग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कराया।उसके बाद सन1829 में जर्मन में गीता का अनुवाद हुआ।तत्पश्चात लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में गीता का रूपांतर किया गया।
गीता का सबसे पहला तत्व आत्मबोध है।गीता का मंत्र है "आत्मानन् विद्धि''अपने आपको जानो।आत्मा मन बुद्धि आदि के परे है।अपने अन्दर आत्मशक्ति को जागृत कर उसे पहचानो-यह गीता का प्रथम संदेश है।समन्वय गीता का दूसरा सबसे बड़ा तत्व है।जब मैं हिन्दू-मुसलमानों को मजहब समझी जाने वाली जरा जरा भी बातों के लिये लड़ते सुनता हूँ, तब मुझे गीता का संदेश याद आता है
"मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।''अर्थात सभी मार्गों से लोग मेरा ही अनुसरण करते हैं।
गीता का तीसरा महान संदेश-शक्ति का संदेश है।अतएव युवकों के लिये गीता का महत्व है।ज्ञान और कर्म का विचार और क्रिया का जब योग होगा तभी भारत का उद्धार होगा।हृदय की दुर्बलता छोड़कर उठ खड़े हो।आध्यात्मिकता ही जीवन की विजय है।यही शक्तिशालिनी उद्बोधक है।
अन्त में गीता जयन्ती के शुभ अवसर पर गीता के उपदेश देने वाले ,उनके लेखक को कोटिशः नमन करता हूँ।
प्रेषक-हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय घीवहा(फारबिसगंज)
अररिया।
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