जरा सोचिए ! क्या आजादी के असली रंग में घुल पाए हैं -देव कांत मिश्र 'दिव्य' - Teachers of Bihar

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Tuesday 15 August 2023

जरा सोचिए ! क्या आजादी के असली रंग में घुल पाए हैं -देव कांत मिश्र 'दिव्य'


स्वतंत्रता व्यक्ति की स्वाभाविक वृत्ति है। इसमें अपार सुख, दिव्य अनुभूति व अतिशय आनंद है। दुनिया में सबसे अधिक सुख यदि है तो वह स्वतंत्रता में है तथा सर्वाधिक दु:ख यदि है तो वह परतंत्रता में है। स्वतंत्रता का ठीक विपरीत परतंत्रता है। एक में उल्लास और हर्ष है तो दूसरे में कष्ट, पीर और विषाद है। संत शिरोमणि तुलसीदास ने कहा था -' करि विचार देखहु मन माहीं, पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।' कहने का तात्पर्य है कि जब तक व्यक्ति पराधीन यानि पर के अधीन है तब तक वह किसी सुख की कल्पना नहीं कर सकता है। अतः सुख का अनुभव करने के लिए हमें सुख के मार्ग पर चलना चाहिए। सुख का असली मार्ग तो स्वाधीन है। इसमें 'ता' प्रत्यय जोड़ने पर स्वाधीनता शब्द बनता है जिसका अर्थ है -'स्व' के अधीन होना। स्वाधीनता को स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, बंधन-मुक्ति भी कहा जाता है। स्वतंत्रता के विषय में महान चिंतक व विचारक प्रो. लास्की का मत उल्लेखनीय है:" स्वतंत्रता से मेरा अभिप्राय है कि व्यक्ति समाज में उस वातावरण को स्थापित कर सके जिसके अन्तर्गत सारे समाज के मनुष्य अपनी पूर्णता का अनुभव कर सके।" वस्तुत: सुखानुभूति के लिए हमें संघर्ष करना ही पड़ता है। परतंत्रता के पाश से मुक्ति के लिए प्राणों की बलि वेदी पर चढ़ने पड़ते हैं। एकता के सूत्र में जुड़ने पड़ते हैं।

स्वतंत्रता संग्राम का श्रीगणेश: इस पुनीत संग्राम का आरंभ झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के कर-कमलों से सन् १८५७ में हुआ। तब से लेकर सन् १९४७ तक अनंत माताओं की गोद से लाल, अनंत पत्नियों के सौभाग्य सिंदूर तथा अनंत बहनों के भाई स्वतंत्रता के पवित्र अग्निकुंड में भस्मसात् हो गये। क्रांतिकारियों के घरों में दिन दहाड़े आग लगाई गई। उनके परिवार के व्यक्तियों को भूखा मारा गया, उनकी माँ बहनों की अस्मत लूटी गई। अंग्रेज अपनी प्रभुता की रक्षा के लिए जो कुछ कर सकते थे, उन्होंने सब कुछ किया। पर भारत के वीर सपूतों ने कभी अपने पैर पीछे नहीं हटाए, हँसते- हँसते फाँसी के तख्ते पर झूल गए। सत्य और अहिंसा के शस्त्र के सामने अंग्रेजों की कठोर यातना प्रकम्पित हो उठी। वर्षों की साधना फलवती हुईं और अंग्रेजों ने यहाँ से जाने का निश्चय कर लिया। १५ अगस्त,१९४७ को हमारा देश आजाद हुआ। सम्पूर्ण देश में खुशियों की लहर दौड़ गई। 

आजादी पर चिंतन और विश्लेषण: यों तो हमें कठोर साधना, तपस्या, लगन व ललक से आजादी तो मिल गई परन्तु आज हमें आजादी पर गहन विश्लेषण करने की जरूरत है। मेरे विचार से इन्हें निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है:

* क्या हम अपनी आजादी को समझ पाए हैं?

* क्या हम आजादी के गूढ़ एवं व्यापक भाव को अपने आचरण में ढाल पाए हैं?

* क्या हम गरीबों की सहायता के लिए कदम आगे बढ़ाते हैं?

* क्या हम भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर पाए हैं?

* क्या देश में समानता का सिद्धांत लागू है?

* क्या देश में समान काम के लिए समान वेतन दिया जाता है?

* क्या देश में वाक् स्वतंत्रता है?

* क्या देश का चतुर्थ स्तंभ पूर्णतया स्वतंत्र है?

* क्या देश में एक दूसरे के विचारों को महत्व देकर उस पर जामा का रंग पहनाया जाता है?

* क्या 'यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' कही जाने वाली नारियाँ ठीक से स्वतंत्र हैं?

* क्या हम देश को प्रगति पथ पर पहुँचाने के लिए समग्र व मानसिक रूप से तैयार हैं?

* क्या हमारे देश के रहनुमा संकल्प व ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं?

            उपर्युक्त तथ्यों के विश्लेषणोपरांत कहा जा सकता है कि हमें आजादी तो मिल गई है परन्तु आजादी के असली रंग में अभी तक नहीं ढल पाए हैं। हम केवल आजादी का लबादा ओढ़कर बैठे हैं। सही अर्थों में हम तभी असली आजादी के ढिंढोरे पीट पाएँगे जब हमारी बेटियाँ सुरक्षित रहेंगीं, समग्र प्रयास से हमारा देश मजबूत होगा, सरकार और जनता के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण कायम होगा, कूटनीति नहीं वरन् विकासनीति का पथ स्वच्छ और मजबूत रहेगा और त्वरित न्याय दिलाने की प्रक्रिया मजबूत होगी। साथ ही गरीबों के मन मुदित होकर खिलेंगे और हम स्वतंत्र वातावरण में चैन की साँस ले सकेंगे। तो आएँ! हमसब अंतर्मन से आजादी के असली रंग में घुल जाएँ और राष्ट्रध्वज को नीलगगन में फहराकर भारत माता से देश को स्वस्थ, समृद्ध और जीवंत बनाने की मंगलकामना करें।

आजादी के रंग में, हमसब घुलिए आज।

धैर्य एकता से सदा, देश बने सरताज।।



देव कांत मिश्र 'दिव्य' मध्य विद्यालय धवलपुरा,सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार

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