Thursday 30 May 2019
New
सिखाने की प्रक्रिया में कला शिक्षा- रमेश कुमार मिश्र (शिक्षक)
मनुष्य में सीखने की प्रवृति तो जन्मकाल से ही होती है।बस! उम्र के साथ उसका पैमाना घटता-बढ़ता रहता है।और सीखने की यह प्रक्रिया तो आमरण चलते रहती है।
सच पूछिए तो मेरे विचार में सीखना और सिखाना दोनों कला है। सीखने वाला सहज भाव और अल्प समयावधि में कैसे सीखें इसपर चिंतन करना सिखाने वालों के लिए अत्यावश्यक है।सिखाने की बोझिल प्रक्रिया अध्येता के मन में नैराश्य भाव पैदा करती है।अतः यह परमावश्यक है कि सिखाने की प्रक्रिया सहज और हृदयग्राही हो।
तब हमारा ध्यान जाता है कला शिक्षा पर।क्या सिखाने की प्रक्रिया में कला शिक्षा की प्रभावी भूमिका हो सकती है? क्या कला शिक्षा शिक्षा के एक अभिन्न सहयोगिनी के रूप में प्रतिस्थापित हो सकती है? इन सब पर जब हम चर्चा करते हैं तब हमें यह जानना आवश्यक हो जाता है कि सीखना और कला शिक्षा है क्या?क्या दोनों अलग-अलग है या फिर सीखने-सीखने में दोनों की भूमिका एकीकृत रूप में सामने आती है।अगर शब्द निर्माण की बात करें तो शिक्षा या सीखना दोनों का निर्माण शिक्ष(क्ष हलंत)धातु से हुआ है।कहा गया है शासति इति शिक्षा यानि जो व्यवस्था दे वही शिक्षा।मूल भाव यह है कि व्यवस्था से ज्ञानार्जन शिक्षा है।व्यवस्था से मेरा तात्पर्य सिर्फ उस विषय विशेष को समझना या समाज की परिकल्पना,उद्देश्य,उसकी रीतियों और परंपराओं को समझना ही नहीं है वरन व्यवस्था से मेरा तात्पर्य क्रमशः समुचित और समेकित रूप से भी है।
कला शिक्षा हो या सामान्य शिक्षा। दोनों का मूल तो सीखना ही है।तब प्रश्न यह उठता है कि सामान्य शिक्षा के माध्यम से कला शिक्षा में प्रवेश किया जाए या फिर कला शिक्षा से सामान्य शिक्षा में।मेरा ऐसा मानना है कि सामान्य शिक्षा और कला शिक्षा को एक साथ चलना चाहिए।एक बात प्रमुखता से कहना चाहता हूँ कि जीवन को उबाऊ,निरर्थक आदि बनने से बचाने के लिए और जीवन की उड़ान को अनंदोत्कर्ष पर ले जाने के लिए कल्पना की जरूरत पड़ती है ।कल्पना अज्ञात लोक में प्रवेश का द्वार है और फिर उस अज्ञात लोक को भी ज्ञात लोक की तरह हमारे सामने प्रस्तुत करने की प्रक्रिया का आधार स्तम्भ।ऐसी बातें करते ही आप यह सोचने लगेंगे कि यह तो कविता,कहानी,नाटकों में ही हो सकता है जो कला शिक्षा है लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता।कल्पना सिर्फ कलाकारों से ही जुड़ी नहीं है वरन विज्ञान के मूल में भी कल्पना ही है।तभी तो हमने मोबाइल,हवाई जहाज,परमाणु बम आदि का आविष्कार किया।
हमारी शिक्षा में आनंद को स्थान नहीं होता और जिस शिक्षा में आनंद,उत्साह और नवीनता के पुट न मिलें तब वह शिक्षा जीवन की इमारत को कितनी संजीदगी देगी यह तो विचारणीय विषय होगा।शिक्षा का उद्देश्य तो आनंदोल्लास की प्राप्ति होनी चाहिए। तभी मन,बुद्धि और चेतना का परिष्कार संभव है।कला शिक्षा विद्यार्थियों को आनंद के साथ किसी विषय के तह में प्रवेश कराने का सशक्त माध्यम है क्योंकि कला के प्रति बच्चे आसानी से उन्मुख हो जाते हैं और उससे अपना समंजन कर लेते हैं।यह तो कला शिक्षा ही है कि दूर की घटनाओं को भी हमारे सम्मुख लाकर खड़ा कर देती है और हम उसका प्रत्यक्षतः दर्शन करने लग जाते हैं।एक लोक से दूसरे लोक में तुरंत प्रवेश करा देने की शक्ति तो कला में ही है।आनंद के साथ पढ़ने से सिर्फ हमारी पठन शक्ति का ही विकास नहीं होता वरन ग्रहण शक्ति,धरना शक्ति और चिंतन शक्ति का भी विकास होता है।समग्रतः कहा जाए तो कला रचनात्मकता एवं सृजनशीलता के द्वार खोलती है।
नीरस एवं बोझिल शिक्षा से बच्चे जल्दी ही थक जाते हैं और यही शिक्षा उन्हें अगर कला के माध्यम से मिले तो उनकी उत्कंठा भी बनी रहेगी और वे उस विषय को न सिर्फ समझेंगे वरन उससे प्राप्त ज्ञान को आत्मसात भी करेंगे।संगीत या अन्य कलाएँ थकावट को दूर करती हैं, ऐसा विज्ञान ने भी मन है।सुर,तय और ताल का हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है।इसलिए जब हम कविता,दोहा आदि पढ़ते हैं या इस रूप में किसी विषय को प्रस्तुत करते हैं।तब वह जल्दी ही कंठस्थ हो जाता है।शिक्षकों के शारीरिक हाव-भाव भी विद्यार्थियों को बहुत से ज्ञान देने में स्वतः सक्षम होते हैं।शब्दोच्चारण के साथ भाव प्रकट कर अर्थ को और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।और जहां तक उच्चारण का सवाल है,दुःख, सुख आदि शब्दों को बोलने का तरीका जिससे शब्दों के भाव स्पष्ट हो सकें,कला ही है।भाषा शिक्षा के साथ भाव शिक्षा(कला शिक्षा)को जोड़कर ही किसी विषय का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।मेरे विचार में बच्चों के ज्ञान की दुनियाँ को शब्दों के मायाजाल में उलझाना ठीक नहीं है क्योंकि इससे सीखने-सिखाने की प्रक्रिया न सिर्फ कठिन हो जाती है बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि बच्चा शब्दों के जाल में उलझकर धीरे-धीरे सिर्फ विषय से ही नहीं ,आनंद से भी दूर हो जाये।कम शब्दों में अधिकाधिक भावाभिव्यक्ति एवं चित्र,कथपुतलु आदि के माध्यम से सिखाया जा या उस स्थल,विषय-वस्तु का प्रत्यक्ष दर्शन करना ज्यादा उपयोगी हो सकता है।चित्र,कठपुतली आदि का निर्माण कला है और यह भी प्रामाणिक है कि एक चित्र तो एक हज़ार से भी ज्यादा शब्दों से निकले भावों को बताने में समर्थ होते हैं।
पुरानी परम्पराओं,रीतियों की जानकारी भी कल के माध्यम से आसानी से हो सकती है क्योंकि मानव समाज बदलता है फिर भी अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है और कलात्मक तथा साहित्यिक मूल्य,राजनैतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी होते हैं।शिक्षा सिर्फ गणित,विज्ञान,हिंदी आदि की ही जरूरी नहीं है बल्कि व्यवहार और समाज की भी जरूरी है।कला में(गीत,नाटक आदि)सामाजिकता के विविध रूप मिलते हैं।इनमें रिश्तों का स्नेह और प्रेम भी परिलक्षित होता है।
रमेश कुमार मिश्र
(शिक्षक)
भारती मध्य विद्यालय,लोहियानगर, कंकड़बाग,पटना,बिहार
About Teachers of Bihar
Teachers of Bihar is a vibrant platform for all who has real concern for quality education. It intends to provide ample scope and opportunity to each and every concern, not only to explore the educational initiative, interventions and innovations but also to contribute with confidence and compliment. It is an initiative to bring together the students, teachers, teacher educators, educational administrators and planners, educationist under one domain for wide range of interactive discourse, discussion, idea generation, easy sharing and effective implementation of good practices and policies with smooth access.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment