Thursday, 3 September 2020
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परी कथाओं का कानन नहीं रहा-अरविंद जी
परी कथाओं का कानन नहीं रहा
नई पीढ़ी के निर्माण का मासिक से शुरु होकर बच्चों का हँसमुख साथी के पंचलाइन पर आकर स्वतंत्रता के पचहत्तरवें बर्ष में बच्चों की लोकप्रिय बाल पत्रिका नंदन का इसी अगस्त माह से अवसान हो गया।हर महीने के पहले सप्ताह से अब इसकी प्रतीक्षा समाप्त हो गई। लगभग सनतावन बर्षों से प्रकाशन का सफर रुक गया।
प्रारंभिक कक्षाओं के दौर में सुबह-सुबह बरामदे की चौकी पर पढ़ते हुए आँखें प्रायः उस साईकिल वाले के इंतजार में रहतीं थीं जो हैंडल पर अखबार के बंडल के साथ नंदन का नया अंक भी फँसाए रखता था और नज़र पड़ते ही बरामदे से उतर कर नहीं बल्कि कूदकर उस नंदन को माँगकर भी नहीं बल्कि खींच लेने की आपाधापी हम भाई-बहनों में मची रहती। इस आपाधापी में सेकंड स्थान पर रहने वाले को इतनी छूट रहती थी कि वह बगल में बैठकर उसमें झाँक सकता था। पन्ना पलटने का सर्वाधिकार सिर्फ़ उसको ही रहता था जिसके हाथ में 'नंदन' पहले पड़ता था। बाकियों के लिए नंदन तभी उपलब्ध था जब तक विजेता-उपविजेता को उसकी आवश्यकता नहीं पड़ती। कभी-कभी इर्ष्या इतनी परवान पर रहती की विजेता पूरा नहीं पढ़ लेने तक उसे छुपाकर रखता था और दूसरे तो नीम अँधेरे में भी पढ़ लेने की शर्त पर राजी रहते।
आज जब वानप्रस्थ की आयु सीमा में आकर यह खबर मिली कि 'नंदन' का छपना बंद तो बचपन में नंदन के संग और नंदन के लिए बिताए गए सारे क्षण रील के माफिक घूम गए और मन हाहाकार कर उठा जैसे किसी की अकाल मृत्यु की खबर सुन ली हो। तुम्हारे भैया जयप्रकाश भारती का वह हस्ताक्षर जो तीन दशकों तक नज़रों में आता रहा, एकबारगी कौंध उठा। सुशील कालरा का वह 'चीटू-नीटू' वाला चित्रकथा का परिशिष्ट जिसमें उनके बेतरतीब बाल हमें शैतानी करने को 'आथराईज्ड' करते थे अचानक हमें मंझधार में छोड़ गया सा लगा। 'तेनालीराम' के राजाकृष्णदेव राय के दरबार से एकबैग निकल जाने का फरमान कानों में गूँज गया और दोपहरी की फुर्सत में हम उम्रों के साथ "आप कितने बुद्धिमान हैं" वाला पेज में कलम से दाग लगाने वाला धारावाहिक बंद सा हो गया। 'पत्र-मित्र' का पन्ना तब महत्वपूर्ण हो उठा जब नवीं कक्षा के दौरान उसमें मेरा नाम छपा। उसके बाद तो अनुज और नन्हीं बिटिया का नाम भी उस कालम में छपवा कर ही दम लिया जिसमें लाल स्याही से अंडरलाइन किए वे नाम वाले अंक बरसों लकड़ी के बक्से में दीपावली की सफाई के बाबजूद सुरक्षित रहे। वर्ग-पहेली का स्थायी स्तंभ को हमेशा ओवरलुक करता रहा कि 'नंदन' तो मजा देती है और वर्ग-पहेली सजा। आठ-दस पेज के बाद एक ऐसी लंबी कहानी जिसमें अँग्रेजी नाम वाले किरदार होते हमेशा तब पढ़ी जाती जब उस अंक में पढ़ने को कुछ शेष न बचता। तब कहाँ पता था कि ये कहानियाँ किसी जार्ज बर्नार्ड शाॅ या अलेक्जेंडर सोलेत्सतीन की प्रसिद्ध और चर्चित कहानियों के अंश हैं। 'रंगभरो और चित्र बनाओ' वाले स्तंभ से दूरी तब से बन गई जब दो-तीन बार उस चुनौती को पूरा करके डाकखाने के हवाले करने के बाद भी न चित्र छपा न इनाम मिला। हाँ, गत अंक के विजेताओं के नाम पर हर अंक में नज़र दौड़ा लेने की आदत जरूर मुस्तकिल हो गई थी। चुटकुलों के उस पन्नों मे से हर शनिवार को होने वाले बाल-सभा में सुनाने के लिए चुटकुला पढ़ लेना साप्ताहिक कवायद थी। हरीश निगम की कविताएँ रट लेने की होड़ स्वयं से ही थी। पौराणिक कथाओं की उलझनें सुलझाने में दादा जी ही एकमात्र मददगार थे। जवान भाई तो 'मनोहर कहानियाँ ' में उलझा रहता। चिकने पन्नों पर छपाई किए गए श्वेत-श्याम चित्रों को निहारने में इतना समय जाता था जिसका क्षणांश आज सैलरी वाले पासबुक पर शायद ही जाता हो।
हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया प्रकाशन लिमिटेड की यह सौगात नवंबर 1964 में नेहरू जी को समर्पित करते हुए बच्चों के साहित्यिक और बौद्धिक रुझान के लिए शुरू की गई थी जिसके संपादन का दायित्व लगभग 31बर्षों तक जयप्रकाश भारती ने सँभाला। विदेश मंत्री रहते हुए अटल जी की कहानियाँ भी इसी 'नंदन' ने हम तक पहुँचाई थीं। राजेंद्र अवस्थी जैसे नामचीन साहित्यकार बरसों इसके मुदीर रहे। इन दिनों जयंती इनके संपादन का काम शशिशेखर के नेतृत्व में कर रहीं थीं।
परी-कथाओं के तिलस्म में डूबा देने वाला 'नंदन' कानन अब समाप्त हो गया। बच्चों की डिजिटल होती जा रही यह दुनियाँ बाल साहित्य के विरासत क्रमशः निगलती जा रही है उनमें से अपना 'नंदन' भी एक है ।बच्चों का यह हँसमुख साथी अब नहीं रहा न ही नई पीढ़ी के निर्माण के मासिक की चिंता रही।
अरविंद, गया जी
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नंदन बचपन की यादें समेटे इस तरह गुम हो गया की आहें भी अटकी रहगई।
ReplyDeleteवाह।अरविन्द सर,कुछ देर के लिए ही सही अपना बचपन याद आ गया। नंदन के साथ साथ एक और पत्रिका आती थी बालक।एक बार कलर करने पर नाम छपा था।आज पेपर में बराबर नाम छप जाता है,लेकिन वह बालक में छपने वाले नाम के बराबर की खुशी नहीं दे पाती।
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