गुरु बिन ज्ञान कहाँ-प्रमोद कुमार - Teachers of Bihar

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Saturday, 5 September 2020

गुरु बिन ज्ञान कहाँ-प्रमोद कुमार

गुरु बिन ज्ञान कहाँ 

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम:॥

          शिक्षक, गुरु, आचार्य और अध्यापक ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को व्याख्यातित करते हैं जो हमें सिखाता है व ज्ञान देता है। इसी भगवान रूपी मानव को धन्यवाद देने को, अपनी कृतज्ञता दर्शाने को एक दिन है जो शिक्षक दिवस के रूप में जाना जाता है। 
          भारत के द्वितीय राष्ट्रपति, शिक्षाविद, दार्शनिक डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिवस, 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रूप मे सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है। विश्व के विभिन्न देश अलग-अलग तारीखों में शिक्षक दिवस मानते हैं।
शिक्षक दिवस का महत्व:- शिक्षक दिवस कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है लेकिन क्या आप इसके महत्व को समझते हैं। शिक्षक दिवस का मतलब साल में एक दिन बच्चों के द्वारा अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल। इससे ही शिक्षक को अपार हर्ष होता है अपने शिष्य या छात्र पर। आप अगर शिक्षक दिवस का सही महत्व समझना चाहते हैं तो सर्वप्रथम आप हमेशा इस बात को ध्यान में रखें कि आप एक छात्र हैं और उम्र में अपने शिक्षक से काफी छोटे हैं और फिर हमारे संस्कार भी तो हमें यही सिखाते हैं कि हमें अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए। हमको अपने गुरु का आदर-सत्कार करना चाहिए। हमें अपने गुरु की बात को ध्यान से सुनना और समझना चाहिए। अगर आपने अपने क्रोध, ईष्या को त्याग कर अपने अंदर संयम के बीज बोएँ तो निश्चित ही आपका व्यवहार आपको बहुत ऊंँचाइयों तक ले जाएगा और हमारा शिक्षक दिवस मनाने का महत्व सार्थक होगा।
सभ्यता की नींव कमजोर:- शिक्षा-सभ्यता की नींव भी एक महत्वपूर्ण सभ्यता रही है। गुरुकुलों और आश्रमों की शिक्षा संस्था धीरे-धीरे विद्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों में बदल गई है। प्राचीन काल के गुरु से लेकर मास्टर साहब और टीचर का सफर कर्तव्यनिष्ठा के लिहाज से कम नहीं आंका जा सकता है। सभ्यता और कर्तव्यनिष्ठता के प्रमाण देने वाले गुरु शिष्य के उदाहरणों की कमी नहीं है। पर यह सवाल मायने रखता है कि क्या गुरु-शिष्य की भाँति ही आज टीचर-स्टूडेंट में अपने कर्तव्य पालन और अधिकार का दर्शन होता है? क्या आज भी स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षकों को देखकर शिष्य-शिष्या उनके सम्मान में नजरें झुका लेते हैं या उनकी बेशर्मी और असम्मानता को देखकर शिक्षकगण ही मस्तक को झुका कर चलते हैं?
शिष्य की बदलती विचारधाराएँ:-
समय के बदलाव के कारण शिक्षा का दायरा बदला है और शिक्षक-शिष्य की विचारधाराएँ भी। आज गुरु घंटाल बने और शिष्य चतुर हुए। स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षक दिवस यानि कि इसके उपलक्ष्य में कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। श्री राधकृष्णन की स्मृति में ही यह दिन मनाते हैं। शिक्षार्थी भी तोहफे देकर अपने टीचरों का सम्मान करते हैं। लेकिन क्या सचमुच आज शिक्षक दिवस का महत्व इतना ही रह गया है? करीब 15 वर्षों में शिक्षा क्षेत्र में बहुत बदलाव आया है लेकिन शिक्षा से जुड़ी दो महत्वपूर्ण कड़ियों में यह बदलाव जमीन-आसमान के बराबर हो गया है। 15 वर्ष पूर्व शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच एक सम्मान की नीति होती थी।
पैसा कमाना मकसद:-
आज शिक्षा देने का मूल मकसद पैसा कमाना हो गया है। वैसे जीवन यापन में धन की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता है पर शिक्षा जगत में पैसे की लालच शिक्षक की गरिमा को ठेस पहुँचा रही है और शिक्षा के दामन में भी दाग लगने से नहीं बच पाता है। इसलिए शिक्षार्थी के अभिभावक स्कूलों और कॉलेजों को व्यापार की दुकान और शिक्षकों को दुकानदार के नामों से व्याख्या करते हैं क्योंकि हाल ही में स्कूलों में हुई बेहिसाब वृद्धि ने अभिभावकों की मनोवृत्ति की चेतना को जड़ से उखाड़ने की कोशिश की है जिसमें वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए सपने देख तो रहे हैं लेकिन मंदी और महँगाई के दौर उनका भविष्य बनाना जी का जंजाल बनता नजर आ रहा है।
अभ्रदता का संकट:- 
पश्चिमी सभ्यता के अनुसार छोटे-छोटे कपड़े, असभ्य भाषा, गाली-गलौज, छोटी-बड़ी बात पर टीचरों का घेराव करना जो शिक्षार्थी के मैले, तुच्छ और असभ्य सोच के प्रमाण देते हैं तो कहीं शिक्षकों द्वारा ही खुद मर्यादा और संवेदनशीलता की सभी दीवारों को गिरा देते हैं जिसके कारण आज गुरु और शिष्य की छवि धूमिल होती जा रही है। बहरहाल, शिक्षा क्षेत्र के जुड़े हुए जो भी कारण हैं वह अपने आप में उनके लिए एक सवाल है जो दिन-प्रतिदिन शिक्षा जैसी पवित्र उपलब्धि को मैला करने में लगे हैं। आखिर शिक्षा के दायरे को स्कूलों और कॉलेजों तक ही क्यों सीमित कर दिया और क्यों इनकी गरिमा को ठेस लगाने के बाद भी उन दिनों को मनाने में उत्सकुता दिखाते है? आवश्यकता है साल में एक बार शिक्षक दिवस मनाने और मनवाने की परम्परा को थोड़ा सा बदल देना चाहिए और इसके दायरे को भी थोड़ा सा बदल देना चाहिए क्योंकि जीवन स्वयं एक पाठशाला है और हम उस पाठशाला में हमेशा पढ़ते ही रहते है। हमारी शिक्षा और आने वाली पीढ़ी अपना रास्ता न भूल जाएँ और हम इन दोनों के खो जाने के बाद भी शिक्षक दिवस के नाम पर केवल कार्यक्रम के रूप में मनाते न रह जाएँ।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन बायोग्राफी:- 
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इनका जन्म 05 सितम्बर 1888 को तिरूतनी तमिलनाडु में हुआ था। आपकी पत्नी का नाम शिवकामु था। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक प्रखर वक्ता तथा आदर्श शिक्षक थे। भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अंगीकार किए दार्शनिक स्वभाव के आस्थावान हिन्दू विचारक डॉ. राधाकृष्णन ने 40 वर्ष तक शिक्षण कार्य किया। उन्होंने ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिए गए अपने व्याख्यान में कहा था कि मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। अब देशों की नीतियों का आधार विश्व शांति की स्थापना का प्रयत्न करना हो। पूरे विश्व को एक इकाई के रूप में रखकर शैक्षिक प्रबंधन के पक्षधर डॉ. राधाकृष्णन अपने ओजस्वी एवं बुद्धिमता पूर्ण व्याख्यानों से छात्रों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय थे। शिक्षण कार्य में अपनी जबरदस्त पकड़ रखने के कारण दर्शन शास्त्र जैसे गंभीर विषय को भी अपनी शिक्षण शैली से रोचकता पैदा करके सरलतम रूप में वो छात्रों को समझाते-पढ़ाते थे।
कुशल प्रशासक:- 
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन बहुमुखी प्रतिभा व व्यक्तित्व के धनी एक प्रसिद्ध विद्वान, शिक्षक, प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक, राजनयिक, देश-भक्त, दार्शनिक तथा शिक्षा-शास्त्री थे। शिक्षा को मानव व समाज का सबसे बड़ा आधार मानने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का शैक्षिक जगत में अविस्मरणीय व अतुलनीय योगदान रहा है। उन्होंने कहा था- शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते रहने की प्रवृत्ति। वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान व कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है।
जीवन दर्शन:-  
डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे।
कैसा होना चाहिए शिक्षक:- 
डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कहा था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना चाहिए जो सर्वाधिक योग्य व बुद्धिमान हों। जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता है और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता है तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती है। सिर्फ शिक्षक बन जाने से सम्मान नहीं होता, सम्मान अर्जित करना महत्वपूर्ण है। शिक्षक को छात्रों को सिर्फ पढ़ाकर संतुष्ट नहीं होना चाहिए, शिक्षकों को अपने छात्रों का आदर व स्नेह भी अर्जित करना चाहिए।
सम्मान:- 
डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशन द्वारा पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इन्हें 1922 में 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सटियों के सम्मेलन में कलकत्ता यूनिवर्सटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएँ भी की। इन्हें आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों के द्वारा सम्मानित भी किया गया। एक शिक्षाविद के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया।
मानद उपाधियाँ:- 
डॉक्टर राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुन: भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया गया। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियाँ निम्नलिखित है-
1. डॉक्टर राधाकृष्णन वाल्टेयर विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के 1931 से 1936 तक वायस चांसलर रहे।
2. आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 1936 से 1952 तक प्रोफेसर रहे।
3. कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
4. 1939 से 1948 तक बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
5. 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
6. 1940 में प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए।
7. 1948 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
निधन:- 
डॉ. राधाकृष्णन ने लम्बी बीमारी के बाद 17 अप्रैल, 1975 को प्रात:काल अन्तिम साँस ली। वह अपने समय के एक महान दार्शनिक थे। देश के लिए यह अपूर्णीय क्षति थी।

प्रमोद कुमार
प्रखण्ड शिक्षक
उत्क्रमित मध्य विद्यालय लोहरपुरा
प्रखण्ड- नवादा, जिला- नवादा (बिहार)

1 comment:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति श्रीमान

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