शिक्षक दिवस : एक दृष्टि-देव कांत मिश्र - Teachers of Bihar

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Saturday, 5 September 2020

शिक्षक दिवस : एक दृष्टि-देव कांत मिश्र

शिक्षक दिवस : एक दृष्टि

आएँ मिल-जुल शिक्षक दिवस मनाएँ
शिक्षकों के प्रति सम्यक प्यार बढाएँ।।
स्वयं जलकर जो औरों को प्रकाश देते 
उनके पावन चरणों में सदा शीश झुकाएँ।।
  
          5 सितम्बर की याद आते ही हमारे मानस पटल पर एक ऐसे महान शिक्षक, दार्शनिक, विचारक, शिल्पकार, ओजस्वी वक्ता तथा बुद्धिजीवी की छवि परिलक्षित होती है जिन्होंने अपनी अलौकिक प्रतिभा से देश में एक नई पहचान बनाई और संसार को अपने दिव्य ज्ञान की रोशनी से दैदीप्यमान किया। वह कोई और नहीं, साधारण से परिधान में लिपटा रहने वाला एक महान व्यक्तित्व! एक शिक्षक होने के बाद भी सारी दुनियाँ पर प्रभुत्व! सारी दुनियाँ पर प्रभुत्व होने के बाद भी एक शिक्षक! नाम जिनका डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन है। अधिकांश विद्वतजनों, विश्लेषकों की राय में यही तो उनकी पहचान थी।
          यूँ तो सदियों से हमारे देश की पावन भूमि पर महापुरुष, युगपुरुष के जन्म लेने की परम्परा चली आ रही है। इसी परम्परा की महत्त्वपूर्ण कड़ी में डॉक्टर राधाकृष्णन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन एक शिक्षक के रूप में ही बिताया। कभी छात्रों को शिक्षित किया तो कभी विचारक बनकर जनमानस को उद्वेलित किया तो कभी दार्शनिकता  के रंगमंच पर यथार्थ के दर्शन कराए तो कभी बौद्धिकता के स्तर पर पूरी दुनियाँ को नतमस्तक किया तो कभी कलमकार बनकर अपनी लेखनी से समाज का मार्गदर्शन किया। ऐसे लोकप्रिय व देश के प्रति समर्पित प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी महापुरुष विरले ही मिलते हैं। आइए हम इस महामानव के जन्म दिवस के बारे में जानने का प्रयास करते हैं।
शिक्षक दिवस मनाने का कारण:
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 ई. को तमिलनाडु में चित्तूर के तिरूतनी नामक स्थान में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पूरे भारतवर्ष में यह दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1962 ई. में देश के प्रथम नागरिक अर्थात राष्ट्रपति बनने के पश्चात डॉ. राधाकृष्णन का प्रथम जन्मदिन था। पंडित नेहरू जी इस दिन को यादगार बनाना चाहते थे। उनकी दिली इच्छा थी कि इसे धूमधाम से मनाया जाए। इस अवसर पर देश विदेश के अनेक विद्वानों को आमंत्रित करने का निश्चय किया गया था। सभी तरह की तैयारियांँ जोर शोर से चल रही थीं। उन्होंने नेहरू जी को बुलाया और आयोजन के स्थान पर अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। चूँकि वे जीवन भर एक शिक्षक के रूप में रहे तथा उनके हृदय में शिक्षकों हेतु अगाध प्रेम व सम्मान कूट-कूटकर भरा हुआ था अतः इस अवसर पर शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले शिक्षकों को सम्मानित करने की इच्छा भी जताई। नेहरू जी को उनका प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा। सर्वसम्मति से इसे पारित कर दिया गया। उसी वर्ष से  राधाकृष्णन का जन्म प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाने लगा। साथ ही साथ श्रेष्ठ शिक्षकों को उनके कार्यों के लिए सम्मानित किया जाने लगा। इससे न सिर्फ शिक्षकों का मान-सम्मान बढ़ा, अपितु शिक्षा के प्रति सम्मान व अच्छी सोच की भावना भी जागृत हुई तथा शिक्षा का स्तर भी ऊँचा हुआ। इनके 79 वें जन्मदिन पर राष्ट्रपति भवन में पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने प्रथम बार शिक्षक दिवस मनाया। उसी दिन से हमारे देश में प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस (Teacher's day) मनाया जाता है।
जीवन परिचय व उपलब्धियाँ
डॉ. राधाकृष्णन की माता का नाम सीताम्मा तथा पिता का नाम सर्वपल्ली वीरास्वामी था। इनकी माँ की आस्था राधा और भगवान श्रीकृष्ण में थी, इसलिए इनका नाम बचपन में राधाकृष्णन रखा गया था। इनका पुश्तैनी गाँव सर्वपल्ली था। इसलिए उनके परिवार के सदस्य अपने नाम से पूर्व  'सर्वपल्ली' जोड़ते थे। ऐसी जनश्रुति है कि बालक जब किलकारी लेते थे तो मंदिर में घंटे और घड़ियाल बजने लगते थे। खैर जो भी हो, उनके परिवार की गहरी भक्ति व विश्वास भगवान के प्रति थी। शनै: शनै: गरीबी को झेलते हुए लेकिन अच्छी पढ़ाई करने के उपरांत आगे चलकर उन्होंने प्राध्यापक, सभापति,  यूनेस्को (UNESCO) के अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष, उपकुलपति, राजदूत, उपराष्ट्रपति तथा राष्ट्रपति के पद को सुशोभित किया। 1952 में वे भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति चुने गए। शिक्षा के स्तर में सुधार लाने हेतु उन्होंने अनेक महाविद्यालयों की स्थापना की। वर्ष 1954  में इन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान "भारत रत्न" से सम्मानित किया गया। वे कभी भी प्रतिष्ठा या सम्मान से बँधकर नहीं रहे; न ही कभी किसी पड़ाव को अंतिम समझकर अपने कार्य की इतिश्री समझी। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था- " It was not only to gain fame but to bring the immense ocean of knowledge to the people."  वस्तुत: वे रूकना नहीं चाहते थे बल्कि अपने ज्ञान को सदा फैलाना चाहते थे। उनका कहना था कि ज्ञान के माध्यम से हमें शक्ति मिलती है तथा प्रेम के जरिए हमें परिपूर्णता मिलती है। शिक्षक के बारे में उनका विचार अत्यंत ही उल्लेखनीय है। "शिक्षक वह नहीं जो छात्रों के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूसें बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे।" वाकई शिक्षा संबंधित उनका यह विचार बहुत ही अच्छा व प्रेरक है। सादा जीवन उच्च विचार उनका मूल मंत्र था तथा अपने देश की परम्परा पर चलना, उसे कायम रखना उनका ध्येय था। इसके साथ ही देश की उन्नति के सम्बंध में उनके विचार बड़े ही रोचक व प्रेरणादायक  हैं। जब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उपकुलपति के पद पर कार्यरत थे तो विश्वविद्यालय की आर्थिक स्थिति शोचनीय थी, चरमरा गई थी। इसे देखते हुए वे बगैर वेतन लिए ही कार्य करते रहे। यानि वे आर्थिक मजबूती के पक्षधर थे। इसी प्रकार जब वे राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए तो उन्हें दस हजार रुपए मासिक वेतन मिलता था। लेकिन वे मात्र ढाई हजार रुपए ही वेतन लेते थे और शेष राशि देश की उन्नति और विकास कार्यों में लगाते थे। वे देश को सदा प्रगति पथ पर देखना चाहते थे। सच में, वे देश की प्रगति के सच्चे हिमायती थे। जरा यथार्थ चिंतन कीजिए कि क्या ऐसे महान व्यक्ति आज की तिथि में मिल सकते हैं ? विरले ही मिलते हैं। वे उच्च कोटि के रचनाकार भी थे। 'हिंदू व्यू ऑफ लाइफ' 'इंडियन फिलॉसफी', द ऐथिक्स ऑफ वेदांत एंड इट्स मेटाफिजिकल प्रोसपोजिंस' उत्कृष्ट पुस्तक है। इसमें हिंदुओं की जीवन पद्धति, भारतीय सभ्यता के मुख्य पक्ष तथा भारतीय दर्शन की सुन्दर व्याख्या की गई है। वे शिक्षाविद् के साथ साथ एक प्रसिद्ध साहित्यकार भी थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह डॉ. राधाकृष्णन ने अपने जीवन को कठिन तपस्या के रूप में लिया और स्वयं को अग्नि में तपाकर कुंदन बना लिया तथा जीवन की कठिन पगडंडियों से चलते हुए स्वयं को प्रसिद्धि के ऊँचे मुकाम पर स्थापित किया ठीक उसी तरह हम शिक्षकों को भी अपने छात्रों के प्रति गहरा चिंतन करते हुए, ज्ञान की सम्यक दृष्टि डालते हुए परस्पर प्यार भाव से विद्या प्रदान करनी चाहिए। हमें अपने जीवन में त्याग तथा समर्पण की भावना को रखते हुए पढ़ाई में पिछड़ रहे कमजोर तथा गरीब छात्रों पर विशेष ध्यान रखनी चाहिए। उन्हें अनुशासन व नैतिकता का पाठ पढ़ाना चाहिए। छात्रों के माता-पिता एवं अभिभावक को भी शिक्षकों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखना चाहिए। दोनों के परस्पर तालमेल व सामंजस्य से ही शिक्षा की मजबूत ईमारत खड़ी की जा सकती है। हमारी सरकार को भी शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों से दूर रखकर उन्हें सिर्फ अध्यापन की खुली छूट देनी चाहिए। किसी भी तरह का अनावश्यक भार नहीं देकर उन्हें मानसिक रूप से मजबूत करनी चाहिए। इस संसार में विद्या धन सबसे महत्वपूर्ण व पवित्र चीज है। विद्या एक ऐसी चीज़ है जिसे यदि सच्चे मन से प्रदान की जाय तो दीर्घकालीन लाभ प्रदान करती है। कहा गया है- 'विद्याधनं सर्वधन प्रधानं अस्ति।' अतः हमें अपने शिक्षकों से निर्मल व विनम्र भाव से विद्या प्राप्त करनी चाहिए। हमें देश के महान ख्यातिलब्ध शिक्षक डॉ. राधाकृष्णन के द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलना चाहिए। अगर हम अंशमात्र भी उनकी राह पर चलने हेतु अपना कदम बढ़ा दिए तो समझिए कि हमारा जीवन सफल हो गया। तो आएँ हम उनके पदचिह्नों पर चलने का प्रयास करें और शिक्षक पद की गरिमा में चार चाँद लगाएँ।

देव कांत मिश्र 'शिक्षक' 
मध्य विद्यालय धवलपुरा सुलतानगंज
भागलपुर, बिहार

1 comment:

  1. अत्यन्त सुंदर और ज्ञानवर्द्धक आलेख।👌👌💐💐💐

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