Saturday, 5 September 2020
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राष्ट्र निर्माता दिवस-मनु कुमारी
राष्ट्र निर्माता दिवस
स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं दूसरे राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को हम सभी हर वर्ष शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। उन्होंने अपने छात्रों से जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा जताई थी। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के संवाहक, महान वक्ता, प्राख्यात शिक्षाविद, समाजसेवी, आदर्श शिक्षक व महान दार्शनिक थे। इनका जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में 5 सितंबर 1888 को हुआ था। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन बेहद हीं मेधावी छात्र थे और उन्होंने अधिकतर पढाई छात्रवृति के हीं आधार पर पूरी की। उनका कार्यकाल 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक रहा। उनका नाम भारत के महान राष्ट्रपतियों की प्रथम पंक्ति में सम्मिलित है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए संपूर्ण भारत सदैव इनका ऋणी रहेगा। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को 27 बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। 1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। अपने जीवन के 40 वर्ष तक वह शिक्षक के पद पर रहे और एक आदर्श शिक्षक के दायित्वों एवं कर्तव्यों का बखूबी निर्वहन किया।
आज शिक्षक दिवस पर आईये जानते हैं शिक्षक को, शिक्षक के गुणों को, उनके कर्तव्यों को ताकि हम अपने जीवन में उतार कर स्वयं को बच्चों के सामने, समाज के सामने आदर्श शिक्षक की छवि प्रस्तुत कर सकें। बड़े भाग्य से हमें यह सम्मानित पद मिला है जिसकी तुलना किसी और पद से नहीं की जा सकती।
प्राचीन काल से हीं शिक्षक हमारे देश में पूजनीय रहे हैं। इन्हें प्राचीन काल में गुरू, आचार्य, मुर्शिद आदि नामों से जाना जाता था जिनकी प्रतिपुष्टि हमें धर्मग्रंथों के अवलोकन से होती है। शिक्षक शिक्षा की धूरी है। बिना शिक्षक के शिक्षा प्रक्रिया नहीं चल सकती। शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यन्त चलती है। इसे सही मार्गदर्शन देने वाला शिक्षक हीं होता है। इसलिए प्रथम शिक्षक ईश्वर को कहा गया है। बच्चा जब जन्म लेता है तो वह रोता है। माँ अपना स्तन बच्चे के मुँह में देती है। बच्चा दूध पीने लग जाता है। बच्चा को दूध पीना किसने सिखाया ? ईश्वर ने। वहाँ शिक्षक की भूमिका ईश्वर ने निभाई। शिक्षा से मनुष्य के अन्दर छिपी हुई शक्तियों का विकास होता है। यह विकास एक शिक्षक हीं कर सकता है। चाहे वह माता पिता, गुरु, ईश्वर, शिक्षक का कोई भी रुप क्यों न हो। प्रकृति रूपी शिक्षक के सानिध्य में जो हमें सीख मिलती है वह इस प्रकार है:-
फूलों से नित हंसना सीखो
भौरों से नित गाना
तरू की झुकी डालियों से
नित सीखो शीश झुकाना
सीख हवा के झोकों से लो
कोमल भाव बहाना
लता और पेड़ों से सीखो
सबको गले लगाना
दूध तथा पानी से सीखो
मिलना और मिलाना
मछली से सीखो स्वदेश
के लिए तडप कर मरना
दीपक से सीखो जितना
हो सके अंधेरा हरना
पतझड़ के पेड़ों से सीखो
दुख में धीरज धरना
जलधारा से सीखो हरदम
जीवन पथ में बढना
पृथ्वी से सीखो मानव की
सच्ची सेवा करना
और धुएं से सीखो हरदम
ऊँचे हीं पर चढना
शिक्षक की छवि छात्र में झलकती है। शिक्षक को राष्ट्र निर्माता, भविष्य निर्माता कहा गया है। जिस तरह के गुण शिक्षक में होंगे, वह उस अनुसार राष्ट्र का निर्माण कर पाएँगे। एक शिक्षक को सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, धार्मिक, समाजसेवी, शोधकर्ता, साथी, प्रेक्षक आदि होने चाहिए। इसके अतिरिक्त एक शिक्षक को समय का पाबंद, बच्चों के मन को समझने वाला सुगमकर्ता आदि होने चाहिए। प्राचीन काल के शिक्षक और आधुनिक काल के शिक्षक की अगर हम तुलना करें तो हम पाएँगे कि प्राचीन काल के शिक्षक का आचार, विचार, व्यवहार ऐसा था जिनके शिक्षा का उनके शिष्यों पर प्रभाव पड़ता था। वे सदाचारी होते थे अर्थात झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, और व्यभिचार से विरत
रहते थे। अत: उनके उपदेश से बच्चों पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। एक शिक्षक का चरित्र साफ़ सुथरा होना चाहिए। कितने भी हम पढ़ लिख लें, धनवान हो जाएँ, हममें कौशल भी हों, लेकिन अगर हमारा चरित्र गिर गया तो कुछ भी नहीं रहा। इसलिए कहा गया है:-
If wealth is lost
Nothing is lost
If health is lost
Something is lost
But if character is lost
Everything is lost.
अत: शिक्षक को अपने उत्तम चरित्र का निर्माण करना चाहिए जिससे कि वह अपने बच्चों के बीच में आदर्श स्थापित कर सकें।
संसार में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। जितने भी पदोन्नति, सनद, टाइटिल, पदवी आदि हैं सभी गुरु के मोहताज हैं। शिष्य के मन में सीखने की इच्छा को जो जागृत कर दे वही गुरु है। अंधकार को हटाकर जो प्रकाश में प्रवेश कराए वह गुरु है। संत कबीर साहेब ने गुरु के विषय में कहा है :-
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाँव
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय।
गुरु को ईश्वर से बढ़कर शास्त्रों में माना गया है। शिक्षक आमतौर से समाज को बुराई से बचाता है और लोगों को एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति बनाने का प्रयास करता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि शिक्षक अपने शिष्य का सच्चा पथ प्रदर्शक होता है। शिक्षक समाज को एक नई दिशा देता है वह चाहे तो समाज में फैली कई प्रकार की कुरीतियों, बुराईयों को मिटा सकता है। गुरु को विश्वामित्र, वशिष्ठ, संदीपन, गर्ग मुनी के जैसे होने चाहिए जो आज भी पूजनीय हैं किन्तु एक गुरु को द्रोणाचार्य के तरह छात्रों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए खैर इसके लिए उस समय की शिक्षा व्यवस्था को भी दोषी ठहराया जा सकता है। विविधता देश की खूबसूरती है। विद्यालय में अलग-अलग जाति, धर्म, मजहब, संप्रदाय, भिन्न-भिन्न आर्थिक, समाजिक पृष्ठभूमि के बच्चे आते हैं। कुछ बच्चे दिव्यांग भी होते हैं। एक लोकतांत्रिक शिक्षक का कर्तव्य है कि वे उन बच्चों के साथ भेदभाव नहीं करे जो वंचना के शिकार हैं बल्कि उन बच्चों के प्रति समतामूलक भाव रखते हुए सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए तभी हम समावेशीकरण की ओर अग्रसर हो पाएँगे। एक शिक्षक का यह भी कर्तव्य है कि वो बच्चों के मौलिक अधिकार ( Right to education) के तहत जो कुछ भी है उसे प्राप्त करवाएँ। बच्चे सबकुछ करना चाहते हैं मगर पढना नहीं चाहते। अत: बच्चों की रूचियों को ध्यान में रखकर उसके बालमन में उपजे बातों को समझकर, शिक्षा के आनंददायी माहौल का निर्माण कर शिक्षा देना एक लोकतांत्रिक शिक्षक का गुण है। सिर्फ पुस्तकीय विद्याओं को पढाना शिक्षा नहीं बल्कि ज्ञान को स्कूल के बाहरी वातावरण से जोडना एक शिक्षक का कर्तव्य है। नैतिक विकास के संबंध में बीसवीं सदी के महान संत महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने कहा :-
सबसे ऊपर लिखो आध्यात्मिकता
उसके नीचे लिखो
सदाचारिता
उसके नीचे लिखो
समाजिक नीति
उसके नीचे लिखो राजनीति
अर्थात जहाँ पर आध्यात्मिकता होगी वहाँ के लोग सदाचारी होंगे, जहाँ के लोग सदाचारी होंगे वहाँ की समाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की समाजिक नीति अच्छी होगी वहाँ की राजनीति बुरी हो हीं नहीं सकती। अत: शिक्षकों को आध्यात्मिक भी होना चाहिए जिससे उन्हें ज्ञान प्राप्ति का मार्ग मिल सके। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन में एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण समाहित थे। वह एक साधारण शिक्षक से राष्ट्रपति बने इसलिए हम सभी उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं।
जय शिक्षक, जय गुरु
मनु कुमारी
प्रखण्ड शिक्षिका
मध्य विद्यालय सुरीगांव
बायसी पूर्णियाँ
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