Sunday, 5 September 2021
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प्रणाम मैडम-डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या "
प्रणाम मैडम
विद्यार्थी जीवन अद्भुत होता है। समस्त संभावनाओं को समाये आशा के सरोवर में खिलते असंख्य जलज और निर्बाध उड़ान को व्याकुल आसमान की अनंत ऊंचाइयों को नापने के हौशले के मध्य अनेकानेक भावनाओं वाला कोमल मन! किताबें, दोस्त, शिक्षक, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय किताबों के साथ माथापच्ची, खेल-खिलौने, दोस्तों-सहेलियों के साथ ढेरों मस्तियाँ, सहज उपजता राग-विराग, क्षणिक गुस्सा और फिर अद्भुत निर्मल मन। विविध प्रकार के मनोरंजन के साधन, चित्रपट का खुमार, चित्रहार, दूरदर्शन पर रामायण फिल्मी संगीत, राजेश खन्ना, मुमताज़, डिम्पल, अमिताभ बच्चन, रेखा, हेमामालिनी, धर्मेंद्र जैसे काल्पनिक दुनिया का बेशुमार गॉसिप और दिल्लगी का आनंद! कुल मिलाकर आनंद की अद्भुत अकल्पनीय जीवनलीला। यह शैशवकाल से अग्रसर होती वह जीवनलीला थी जो शनैः-शनैः यथार्थबोध को गढ़ती मस्तिष्क को परिमार्जित करती एक सुंदर सम्यक, सारस्वत कार्यशाला के रूप में कार्य करते हुए वयस्क संतुलित व्यक्तित्व का विकास करती है जिसके कर्मठ कर्मयोगी शिल्पी थे हमारे शिक्षक!
बात उन दिनों की है जब मै स्नातक प्रतिष्ठा की छात्रा थी। मेरा विषय दर्शनशास्त्र था। मैं बोकारो स्टील सिटी के सेक्टर 3 में स्थित स्थानीय महिला महाविद्यालय में पढ़ती थी। सामान्य विद्यार्थी की तरह मैं महाविद्यालय जाती थी। वैसे मेरे पिता सिटी महाविद्यालय, बोकारो के ख्यातिलब्ध प्रोफेसर और उस महाविद्यालय के संस्थापक प्रधानाचार्य थे। सामाजिक राजनैतिक और शिक्षा जगत में उनकी अच्छी पकड़ और पहुँच थी। अतः बोकारो के शिक्षा जगत में शायद ही कोई हो जो उन्हें नहीं जानता था। महिला महाविद्यालय की स्थापना से लेकर उसके विकास में भी मेरे पिताजी का विशेष योगदान था लेकिन वो आदर्श की प्रतिमूर्ति थे और उन्होनें अपने महाविद्यालय में अपने किसी बच्चे का नामांकन नहीं कराया और उन्होंने हमें अपना विशेष परिचय देने से मना किया हुआ था। मैं भी उनके आदेशों और निर्देशों का पालन करती हुई अपने नामांकन से लेकर परीक्षा तक का सारा कार्य स्वयं सामान्य छात्रा की तरह लाइन में लग कर करती रही। ईमानदार बात तो यह है कि उन दिनों मुझे भी यह बहुत अच्छा नहीं लगता था क्योंकि मुझे पता था कि महिला महाविद्यालय के अधिकांश लोगों की नियुक्ति इत्यादि में मेरे पूज्य पिताजी का अहम योगदान था तो मेरे किसी भी काम के लिए उनका नाम ही काफी था, सम्भवतः इस भाव का अहंकार भी मेरे मन में बैठा हुआ था। अतः मैं मन ही मन कभी-कभी उखड़ी-उखड़ी तो कभी गौरवान्वित महसूस करती थी। मेरी सहेलियाँ मेरे इन दोनों मनःस्थिति को हवा दे देतीं थीं। मेरा अपरिपक्व मन कभी-कभी उद्वेलित हो जाता, विशेषकर तब जब लंबी लाइन के बाद भी मेरे परीक्षा फॉर्म नहीं भरा गया और मुझे लगातार दो दिनों तक लौटना पड़ा। उस दिन तो गुस्सा बहुत आया और मुझे रोने का मन किया।
मैं कॉलेज से हताश होकर गेट की ओर से बाहर निकल रही थी। मेरी नजर मेरी प्राध्यापिका सुनीता मैडम से मिली। मैनें उन्हें प्रणाम किया- 'प्रणाम मैडम"! उन्होंने तुरंत सिर हिलाकर प्रतिउतर दिया लेकिन चलते-चलते रुक गईं। शायद उन्होनें मेरा मन पढ़ लिया था। आँखों में तनिक आँसू! "अरे लता सुनो तो" उन्होंने आवाज दिया। मैं ठिठक गई और संभालती हुई बोली "जी मैंडम"। "घर जा रही हो क्या? वैसे क्या बात है? तुम तो ऐसी कभी नहीं लगती थी? कोई परेशानी है तो बताओ"। उन्होंने बिना रुके एक साँस में ही पूछ लिया। "जी नहीं मैडम, वैसे ही थोड़ी थकान लग रही है..मैं ठीक हूँ" मैनें झेंपते हुए कहा। "कोई बात नहीं लो जरा पानी पी लो..आओ कुछ बातें करते हैं। "कहते हुए उन्हीने मुझे स्नेह से बुलाया और मैं कुछ समझ पाती इसके पहले उन्होंने बड़े स्नेह से पकड़कर मुझे अपनी ओर खींच लिया। मैं इनकार नही कर पाई। "हाँ तो कहो फॉर्म तो भरने चली आई कुछ पढ़ती हो या.."? "मैडम कोशिश तो करती हूँ और आगे फार्म भरने के बाद .. "मैनें कहा। "अच्छा! तुम्हें फिलोसोफी कैसा लगता है?" " जी अच्छा .." "फॉर्म जमा कर दिया"? "जी नहीं हो पाया मैडम आज दूसरा दिन था"। "कोई बात नहीं कल कर देना। यह तो सामान्य संघर्ष है। मानब जीवन तो संघर्षों से भरा पड़ा है। विजयी वो होते हैं जो संघर्षों से हार नहीं मानते। "कहाँ रहती हो"? धीरे धीरे उहोनें मुझसे सब-कुछ पूछ लिया। जैसे मैनें अपने पिताजी का नाम और उनकी हिदायतें बताईं मेरे आँख डबडबा गईं और सुनीता मैडम ने कहा "अच्छा तो तुम उनकी बेटी हो। सर ने तो तुम्हें जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा दी है। वह शिक्षा है स्वावलंबन की। तुम तो जानती ही होगी कि छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए लोग दूर-दूर से संबंध जोड़कर अपना काम निकलवा लेते हैं। वास्तव में मानव मूल्यों के पतन की इस स्थिति में तुमने अपने पिताजी के आदर्शों का जो मान रखा है, यह तारीफ के काबिल है। सर को तो मैं जानती ही हूँ लेकिन तुम्हरा यह संयम देखकर सर की दी हुई शिक्षा और संस्कार को मैं नमन करती हूँ। तुम चाहती तो यहाँ का कोई स्टाफ तुम्हारे घर से फार्म लाकर जमा करवाकर रसीद तुम्हारे घर पहुँचा देता। मैं आश्चर्य से मैडम को निहार रही थी। उन्होंने उस दिन मेरे पिताजी का मुझसे वैसा परिचय कराया जिसके बीज भले ही मुझमें हों लेकिन उस आदर्श पथ के संघर्ष की टीस जो मेरे मन में हमेशा रहती थी, मैडम ने अपने भावनात्मक उद्गार की गंगोत्री से उसे धो दिया और मेरे मन को आह्लादित एवं निर्मल कर दिया। मेरे इस निर्मल मन में उस दिन से अपने पिताजी के प्रति श्रद्धा कई गुना बढ़ गई।
घर जाते हुए मैं सोचती रही, मैंडम ने मेरे मन को जितना ज्योतिर्मय किया और मेरे मन में जीवन के जिस संघर्ष, चेतना, संस्कार और आदर्श का दीप जलाया वह निश्चित रूप से कोई शिक्षक ही कर सकता है। शिक्षक का साथ, सानिध्य मेहदी जैसा ही मन की हथेली पर रंगोलियों की बारात को हमेशा के लिए उकेरता है जिससे साधना में निरत छात्र आजीवन प्रकाशित और सुवासित हो प्रफुल्लित रहता है। मैं आज भी जब अपने पिता को याद करती हूँ तो सुनीता मैडम भी सहज ही दिल में विराजमान रहती हैं और आदर से उनको मैं नमन करती हूँ। सुनीता मैडम ने उस दिन एक बेटी से उसके पूज्य पिताजी का वह अद्भुत मिलन करवाया जिसकी कल्पना उस बेटी ने कभी नहीं कि थी। उस क्षण के बाद मेरी नजरों में मेरे पिता विश्व के सर्वश्रेष्ठ नायक हो गए और मेरे अद्वितीय आदर्श के साथ-साथ उनकी कृति और उनके द्वारा स्वयं पर लागू किये जानेवाले अनुशासन के अहसास नें मेरे जीवन को स्वर्णिम दिशा दी। इस घटना ने शिक्षक के प्रति मेरी आस्था को इतना बलिष्ट किया कि मैनें स्वयं को भी एक शिक्षक के रूप में तैयार करने का संकल्प लिया। मुझे लगता है कि शिक्षक का जीवन ही समाज में फैले अंधकार को सूर्य, चंद्र, दीप की भाँति रौशनी फैलाकर दूर करने हेतु समर्पित रहता है।
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी "आर्या "
मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार
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