Sunday, 5 September 2021
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शिक्षक दिवस नव ऊर्जा व प्रेरणा का वाहक-देव कांत मिश्र 'दिव्य'
शिक्षक दिवस नव ऊर्जा व प्रेरणा का वाहक
दीप जलाते ज्ञान का, करते नित उपकार।
शिक्षक हैं इस देश के, सत्य पंथ आधार।।
सचमुच में, शिक्षक ज्ञान की ज्योति को अनवरत जलाए रखते हैं। अपने शिष्यों में ज्ञान का प्रकाश प्रदान करते रहते हैं। आज हमारे देश के महान शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस है। इनके जन्म दिवस को प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस के रूप में सहर्ष, सम्मान व सोल्लास से मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन का नाम आते हीं हृदय पटल पर एक महान दार्शनिक, शिक्षक, विचारक तथा बुद्धिजीवी की छवि उभरकर सामने आती है। सदैव साधारण से परिधान में लिपटा रहने वाला एक महान व्यक्तित्व! यों तो इस संसार में सभी लोग जन्म लेते हैं और अपनी बुद्धि, विवेक और कौशल से रंगमंच की शोभा बढ़ाकर संसार से विदा हो जाते हैं परन्तु जन्म लेना उन्हीं का सार्थक होता है जो अपने पीछे कीर्तित्व और व्यक्तित्व का समृद्ध अवदान छोड़ जाते हैं। सदियों से भारत की पावन वसुंधरा पर किसी न किसी महापुरुष के जन्म लेने की परम्परा चली आ रही है। इसी श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। एक शिक्षक होने के बाद भी पूरी दुनियाँ पर प्रभुत्त्व! उसके बाद भी एक शिक्षक! यही तो उनकी विशिष्टता थी। उनका जन्म ५ सितंबर १८८८ तमिलनाडु के चित्तूर स्थित तिरुतनी नामक गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। चूँकि परिवार की भगवान श्रीकृष्ण और राधा में गहरी आस्था थी इसलिए उसका नाम 'राधाकृष्णन' रखा गया।
उनके जन्मदिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने का कारण: देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने के बाद उनका प्रथम जन्मदिन था। पंडित नेहरू जी इस दिन को यादगार बनाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि इसे धूमधाम से मनाया जाए। इसके लिए उन्होंने तैयारियाँ भी आरंभ कर दी थी। उनका कहना था कि व्यक्ति को कभी भी अपने संस्कारों और संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए। वे हमेशा खुलकर अपनी राय रखते थे और कहते थे कि देश का जो धन व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो जाता है उस धन को समाज के कल्याण और विकास में लगाया जाए। कहने का तात्पर्य है कि उनकी दृष्टि में स्वार्थवश सरकारी अथवा किसी दूसरे का धन प्रयोग में लाना अत्यंत ही घृणित कर्म था। उन्होंने नेहरू जी को आयोजन की जगह अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा तथा इस अवसर पर शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले शिक्षकों को सम्मानित करने की इच्छा भी जताई। नेहरू जी को उनका प्रस्ताव अच्छा लगा और सर्वानुमति से सदन में इसे पारित कर दिया गया। उसी वर्ष से उनका जन्मदिन प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाने लगा। उनके ७९ वें जन्मदिन पर राष्ट्रपति भवन में प्रथम बार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 'शिक्षक दिवस' मनाकर शिक्षकों के गौरव को बढ़ा दिया। अपने जीवन में वे अनेक पद जैसे प्राध्यापक, उपकुलपति, कुलपति, उपराष्ट्रपति से लेकर राष्ट्रपति तक प्रतिष्ठित हुए लेकिन आजीवन स्वयं को सामान्य शिक्षक ही मानते रहे। एक बात महत्वपूर्ण है कि जब वे राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए थे तो उन्हें दस हजार रुपए मासिक वेतन मिलता था। लेकिन वे मात्र ढाई हजार रुपए मासिक वेतन लेते थे। शेष राशि देश की उन्नति और विकास कार्यों में खर्च होती थी। उन्होंने मनुष्य की ओर संकेत करते हुए कहा था कि मनुष्य को मनुष्य बनना चाहिए क्योंकि यदि मनुष्य, मानव से दानव बन जाता है तो उसकी हार निश्चित है। यदि वह मानव से महामानव की श्रेणी में आता है तो यह उसकी श्रेष्ठता होती है लेकिन यदि वह मानव से मानव बनता है तो यह उसकी स्वयं पर जीत होती है। शिक्षा के संबंध में भी उनकी गहरी सोच थी। शिक्षक के संबंध में उनका कहना था कि '"शिक्षक वह नहीं जो विद्यार्थी के मस्तिष्क में तथ्यों को जबरन ठूँसे अपितु वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करें।" वाकई शिक्षकों के प्रति उनका दृष्टिकोण उदार व सकारात्मक था। वे यह संदेश देना चाहते थे कि यदि कोई छात्र भविष्य की परिस्थितियों का सामना करने हेतु तैयार नहीं है तो उनकी शिक्षा सार्थक नहीं है साथ ही शिक्षकों के द्वारा दी गई शिक्षा भी कारगर सिद्ध नहीं है। सच में, हर छात्र की सफलता में एक अच्छे शिक्षक की अहम भूमिका होती है। शिक्षक को भी अच्छी शिक्षा प्रदान करने हेतु अपने अध्ययन के प्रति सतत क्रियाशील रहना चाहिए। तभी तो कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ठीक कहा है- "एक शिक्षक सही मायने में तब तक ही पढ़ा सकता है, जब तक कि वह स्वयं भी सीख रहा हो।" बिल्कुल ही सार्थक व सटीक कथन है। डॉ. कृष्णन ने अपने अनुभव और विद्वत्ता को शब्दों में पिरोकर पुस्तकों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया। इंडियन फिलासफी, हिंदू व्यू ऑफ़ लाइफ, दी ऐथिक्स ऑफ वेदांत एंड इट्स मेटाफिजिकल प्रोसपोजिंस उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। इनकी पुस्तक को आज गहराई से पढ़ने की आवश्यकता है। इस प्रकार एक निर्धन परिवार में जन्मे डॉ. राधाकृष्णन ने जीवन की कठिन पगडंडियों से चलते हुए स्वयं को प्रसिद्धी की ऊँचाईयों पर स्थापित किया। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलने की जरूरत है। वे अन्य लोगों के लिए मात्र प्रेरणास्रोत नहीं हैं अपितु उनके आदर्श जीवन में उतारने योग्य हैं। उनकी जीवनगाथा से हमें सदा सीख लेने की जरूरत है। छात्रों को अपने जीवन में विनीत भाव से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। शिक्षक दिवस सभी छात्रों के लिए शिक्षकों की कड़ी मेहनत और प्रयासों की सराहना करने तथा उनकी सेवाओं को स्वीकार करने का एक सुनहरा अवसर है। इस अवसर को सहृदय अपनाएँ।
देव कांत मिश्र 'दिव्य'
भागलपुर, बिहार
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