एक मनोविश्लेषणात्मक लेख।
बच्चों का विकास माता-पिता, परिवार,समाज,विद्यालय तथा शिक्षक के अथक प्रयास से होता है। माता-पिता,परिवार,समाज के बाद जहाँ बच्चा विद्यालय में सीखने आता है तो वहां उसकी भेंट उसे शिक्षा देने वाले मार्ग दर्शक के रूप में शिक्षक यानि अपने गुरुदेव से होती है। गुरू जो कि दो शब्दों "गु और रू" के मिलने से बना है जिसका साधारण रूप में अर्थ होता है"अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला"।
विश्व के विकास की सारी चीजें शिक्षा से ही जुड़ी हुई है तथा इस शिक्षा को प्रदान करने वाला यदि कोई है तो वह"शिक्षक" है।इसी संदर्भ में कहा गया है कि"गुरू-गोविन्द दोउ खड़े,काके लागूं पाय।बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय"।यानि विश्व का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानदाता अगर कोई है तो वह शिक्षक है।
शिक्षक जो कि शिक्षा देने वाला विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोग होते हैं,जो कि अपने शिष्य को विद्यालय के वर्गकक्ष में घंटों खड़े रहकर बिना किसी भी स्वार्थ के अपने बच्चे की तरह प्यार के साथ समझाते हुये शिक्षा प्रदान करते हैं,तथा उसे विश्व का एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में देखना चाहते हैं।
किसी से ज्ञान प्राप्त करने के लिये शिष्य में गुरू के प्रति भक्ति भावना का होना जरूरी है,क्योंकि गुरू से ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिष्य को गुरु के प्रति समर्पित होना चाहिये।गुरु के प्रति समर्पण के बिना ज्ञान की प्राप्ति असंभव है।गुरू जिसको आज के समय में शिक्षक के नाम से जाना जाता है अपने शिष्य को सप्रेम शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करते हैं तथा किसी भी व्यक्ति के नजर में गुरू से ज्यादा सम्मान किसी अन्य का नहीं होता है और जब एक शिष्य अपने गुरू का दर्शन करता है तो उसके खुशी का ठिकाना नहीं रह पाता है।जब किसी शिक्षक का शिष्य विश्व के किसी भी सर्वोच्च पद को सुशोभित करता है,तो उसके गौरव का ठिकाना नहीं रहता है।
जहाँ तक मेरी राय है कि जब तक गुरू को सम्मान न दिया जाय तब तक गुरू से ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।हम शिक्षक भी अपना परम कर्तव्य समझते हैं कि "बच्चों को नैतिकता, मानवता, सामाजिकता, सद्व्यवहार, परोपकार,भाईचारा तथा रोजगार से युक्त शिक्षा देने का प्रयास करें ताकि विद्यार्थियों का भविष्य उज्ज्वल हो एवं उनका जीवन मंगलमय हो कि बहुत सारी शुभकामनायें।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार"विनोद"
प्रभारी प्रधानाध्यापक
राज्यसंपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा,बांका (बिहार)।

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