स्थूल दृष्टिकोण से पृथ्वी के प्राकृतिक तथा भौतिक घटकों जैसे हवा,जल ,मृदा,वनस्पति को पर्यावरण का प्रतिनिधि माना गया है।ये घटकें मनुष्य को चारों ओर से घेरे हुए हैं।प्रकृति और मानव आपस में दोस्ती पूर्ण व्यवहार करें तभी दोनों में से किसी का कल्याण हो सकता है। वैदिक ॠचाओं में पृथ्वी,जल ,आकाश,अग्नि तथा वायु को परम पूज्यनीय माना गया है,जिसमें नदी का अपने आप में सर्वश्रेष्ठ स्थान है।नदी प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनमोल चीज है जो लोगों के लिए जीवनदायिनी है।
इस संबंध में ऋग्वेद के सूक्त नौ में ऋषि प्रार्थना करता है-"हे जल, तुम सुखों के भंडार हो,तुम समस्त जीवन के संवाहक हो प्रणाम।"जल रूप,रंग,रस,गंध का वाहक है तथा स्वंय रक्षण का प्रतीक है,इसलिए हमारे वैदिक साहित्य में जल को प्रदूषित करने वाले को 'पापी' कहा गया है। सभी धर्मिक ग्रंथों में जल -प्रदूषण करने वालों को कठोर दंड का भागी बनाया गया है। नदियों के बारे में मान्यता है कि अधिकतर नदियाँ पूर्वज ॠषियों की तपस्या से पृथ्वी पर प्रवाहित हुई है।शंकर,भागीरथी,जहनवी और अगस्त ॠषियों की तपस्या से क्रमशः कृष्णा,गंगा,कावेरी, सरयू,गोमती तथा पंच नदी सिन्धु, व्यास,झेलम,रावी और चिनाव का उदगम हुआ। जीवन जल का भंडार नदियाँ हैं जो गति का सूचक भी है।भारतीय अवधारणा में नदियाँ केवल जड़ पर्वत से निकलकर जड़ जलधारा ही नहीं है वह चेतना पहाड़ से निकलकर चेतन-शक्ति के रूप में प्रवाहित होती हैं। इसलिए जितनी भी नदियाँ हैं,सारी शक्ति रूपी जननी का प्रतीक नारी के नामधारी है।उनकी प्रकृति नारी की तरह जीवन का संरक्षण करने की है।इसी कारण से सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ है।
नदी प्रदूषण के संदर्भ में विष्णु पुराण में उल्लेख आया है कि वर्षा ॠतु में नदियाँ ॠतुमति हो जाती है इसलिए उस अवधि में नदी स्नान वर्जित रहता है।वैज्ञानिक तथा पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी यह बात देखने को मिलती हैं कि वर्षा के समय नदियों में चारों ओर से गदला तथा गंदा जल मिल जाया करता है।इस अवधि में नदी का जल पीने के लिये वर्जित है।
इन सभी बातों के अलावे आज नदी लोगों की जीवनदायिनी बनी हुई है।यह जीवन जीने का एक प्रमुख संसाधन है जिसके बिना लोगों का जीवन तथा सभ्यता का विकास होना असंभव है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि लोगों को किसी भी पर्व त्योहार का आयोजन करने के पहले अपने तन-मन को स्वच्छ करना जरूरी है ,जिसके लिये नहाय-खाय की प्रक्रिया पर्व करने वालों के लिये प्रचलित है क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि स्वच्छ तन में ही स्वच्छ मन बसता है और स्वच्छ मन के लिये स्नान-ध्यान जरूरी है।इसके लिये पर्व करने वाली मातायें गंगा,यमुना,सरस्वती तथा झारखंड के गोड्डा जिला के"सुन्दर नदी"जिसे पौराणिक धार्मिक आस्था के अनुसार गंगा से जुड़ी हुई नदी मानती है ,में आस्था के साथ नहा धोकर पूजा पाठ करके मानसिक तथा धार्मिक रूप से आत्मसंतुष्टि महसूस करती है।
आज जब मैंने सुन्दरनदी में असंख्य महिला-पुरुष को माघी पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर स्नान-ध्यान करते हुये देखा, उनसे बातचीत किया तो पता चला कि धार्मिक श्रद्धालू लोग इसे गंगा नदी से जोड़कर मानते है। इसी दरम्यान जब मैंने वहाँ पर सनातन धर्म को मानने वाले आदिवासी संप्रदाय के लोगों को सुन्दर नदी में नहा धोकर पूजा पाठ करने वाले एक भक्त से बातचीत की तो उनका कहना था हमलोग शैव मत को मानने वाले हैं तथा हमलोग मांस-मदिरा, शराब इत्यादि का सेवन नहीं करते हैं।साथ ही नदी के तट पर पूजा पाठ करने के बाद जल को ले जाकर अपने-अपने घरों में छिड़क देते है ताकि गृह शांति हो सके।
"कहलगांव के पास त्रिमुहान" नामक जगह में गंगा में जाकर मिलती है। नदियों के प्रति धीरे-धीरे लोगों की
मानसिकता बदलती चली गई और लोगों नदी को भी अपने रूपया कमाने का धंधा बना कर इसके अस्तित्व को मिटाना प्रारंभ कर दिया। नदियों से लगा तार बिना किसी मापदंड के अवैध बालू का उठाव करके नदियों के अस्तित्व को मिटाता गया।आज के समय में नदी तो पूरी तरह से बालू चोरों तथा प्रशासन के विफलता के चंगुल में फंस गया है,जहाँ पर पुलिस प्रशासन तथा जिला प्रशासन की मिलीभगत से लगातार अवैध बालू की ढुलाई का काम होते-होते नदियाँ खेल के मैदान का रूप धारण करती गई।
ईंट का अवैध धंधा करने वालों ने नदी तट को कमाने का आशियाना बना लिया है तथा नदियों का लगातार दोहन करता ही जा रहा है चूँकि नदियों का अपना प्राकृतिक,धार्मिक,आर्थिक,कृषि इत्यादि के क्षेत्र में महत्व रहा है,इसलिये गंदी पानी रहने के बाबजूद भी जब लोग उसमें स्नान कर लेते हैं तो वह अपने को प्रसन्नचित्त महसूस करते हैं।इसलिए लोगों को नदियों के अस्तित्व को बचाकर रखना चाहिए,जिससे लोगों का अपना तथा आनेवाली पीढ़ी का कल्याण हो सके।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद "
प्रभारी प्रधानाध्यापक, राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा बांका(बिहार)।

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