सोहराय जो कि संताल जनजाति का एक प्रमुख"भाई-बहन"का त्योहार है ,जिसके ऐतिहासिक, धार्मिक,परंपरागत महत्व को श्री विमल कुमार'विनोद' ने अपनी लेखनी से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
पौराणिक मान्यता-सोहराय जो कि संताल जनजाति का एक प्रमुख त्योहार है,जिसे आदिवासी समुदाय में मरांग दोय(बड़ी बहन) के नाम से भी जाना जाता है। सृष्टि के समय के धर्मगुरू के कथानुसार-(पिलचु हड़ाम-पिलचू बुड़ी)आदिमानव के आठ पुत्री एवं सात पुत्र हुये,जिनमें से सात पुत्र एवं सात पुत्री ने सृष्टि कर्ता के अनुसार पति-पत्नी के रूप में वैवाहिक संबंध में बंध गये।उसमें से जो बड़ी लड़की थी जिसकी शादी नहीं हुई और सबों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि इनको वर्ष में एक बार हमलोग सभी मिलकर आमंत्रित करेंगे और इसी जगह से सोहराय का शुरुआत हो गया। "प्रेम परिणय में बंध जाने के बाद सभी अलग-अलग गोत्र के हो गये।सोहराय पर्व मनाने का तरीका- यह पाँच दिनों तक चलने वाला पर्व है।पाँच दिनों तक अलग-अलग रस्म निभाने का नियम है।
(1)उम महा-इस दिन पूरे गाँव के लोग स्नान कर नये वस्त्र पहन कर नाइकी(पूजा-पाठ)करने वाले के नेतृत्व में पूरे गाँव के लोग सामूहिक पूजा करके खिचड़ी का प्रसाद खाते हैं इसे'गोड पूजा' के नाम से भी जाना जाता है।
(2)बोंगामांहा या दाका मांहा-प्रत्येक घर में लोग अपने -अपने घर के देवता को पूजते हैं और सुअरनी,मुर्गी और भेड़ा की बलि देते हैं। उस दिन'जिल दाका','चावली-उतू' करते हैं।इसका अर्थ हुआ कि खाने के समय दाका(भात)मांगने पर उतू यानि सब्जी के जगह पर माँस तथा उतू मांगने पर दाका यानि चावल दिया जाता है।
(3)खुंनटोव महा-इस दिन लोग अपने-अपने बरद(बैल) को खुंटा में बीच गली में बांधकर पूजा करते हैं और नवयुवक के टोलियों के द्वारा बैल के गले में पूआ-पकवान या फूलमाला आदि को छीनने का रस्म निभाया जाता है।
(4)जालेमाहा-सोहराय के चौथा दिन यानि जालेमाहा के दिन संताल समुदाय की पुरुष-महिला, नवयुवक,वृद्ध अपनी-अपनी टोली में एक दूसरे के घर जाकर वर्ष भर के गिले शिकवे को भूल कर चूड़ा-मूड़ी तथा पोचोय(चावल से तैयार किया गया नशीला पदार्थ) को खाते हैं तथा जीवन को आनंद के साथ बिताने का संकल्प लेते हैं।
(5)हाकू काटकम-सोहराय के अंतिम दिन जो कि हाकू काटकम के नाम से जाना जाता है,आपस में मिलकर मछली या केंकड़ा का शिकार करते हैं तथा सभी मिलजुल खाते हैं। वर्तमान समय में संताल धर्म को ईसाई संस्कृति के प्रभाव के कारण भीतरघात का सामना करना पड़ रहा है तथा संताल जनजाति के पूजा-पाठ ,देव स्थान तथा संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्ति करण का शिकार हो रही है। अपने आलेख को लिखने के दरम्यान मेरी मुलाकात जीशो राम हेमब्रम खैरबनी गोड्डा,झारखंड से हुई जिनका मानना था कि ईसाई मिशनरियों ने भले ही संताल लोगों को आंशिक शिक्षित करने का प्रयास किया है,लेकिन इन लोगों ने संताल जनजाति के परंपरागत धरोहर जिसमें पंची।नामक लिबास जो कि इनका।परंपरागत पोशाक है को समाप्त करने का प्रयास किया है।साथ ही ईसाई मिशनरी ने रूपये का प्रलोभन देकर संताल जनजाति के पूजा स्थलों को भी समाप्त करने का प्रयास किया है।
सोहराय पर्व दरम्यान मैंने देखा कि महिलायें पंची नहीं बल्कि साड़ी पहनकर परंपरागत नृत्य कर रही थी। चूँकि प्रत्येक संस्कृति,सभ्यता,वेष-भूषा का अपना एक अलग महत्व है ,इसलिए सरकार तथा समाज का यह दायित्व बनता है कि इन सभ्यता तथा संस्कृति को बनाये रखने का प्रयास किया जाना चाहिये।
अंत में मुझे आशा के साथ पूर्ण विश्वास है कि संताल संस्कृति तथा रहन सहन अपने अस्तिव को बचाये रखेगी इसकी ढेर सारी शुभकामनायें तथा सोहराय की बधाई।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"
प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा
बांका(बिहार)।

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