एक मनोविश्लेषणात्मक लेख।
समाज में प्रारंभ से ही,"शोषक और शोषित" दो वर्ग पाये जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति पूँजीपति वर्ग का श्रमिक वर्ग के साथ टकराहट के परिणाम स्वरूप होता है। श्रमिक वर्ग भी सरकार के अंतर्गत काम करता है,जिसे कर्मी कहते हैं।श्रमिक वर्ग भी दो प्रकार के होते हैं,जिसमें-शारीरिक तथा मानसिक रूप से कार्य करने वाले होते हैं। शारीरिक रूप से कार्य करने वाले मजदूरों को काम में बल (शक्ति) का प्रयोग अधिक करना पड़ता है,जबकि मानसिक रूप से कार्य करने वालों को सूक्ष्म तथा ज्ञान युक्त बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है।
चूँकि कार्मिक को नियुक्त करने वाले नियोक्ता कामगार मजदूरों को कम-से-कम मजदूरी पर अधिक-से-अधिक काम लेना चाहते हैं।क्योंकि बेरोजगारी की समस्या के कारण मजदूर भी चाहते हैं कि कम मजदूरी में भी काम मिल जाती।
वास्तविकता की दुनियां में देखा जाय तो ऐसा लगेगा कि"मजदूर आज भी मजबूर है"क्योंकि आज हमारे यहाँ मजदूरों की माँग कम होती जा रही है।इस कारण से इनको कम मजदूरी पर भी कार्य करना पड़ता है।साथ ही मजदूरों को प्रतिदिन काम भी नहीं मिल पाती हैऔर जिस दिन मजदूरी मिलती है,उस दिन उसको भोजन मिल पाता है,और जब भोजन मिलती है तब परिवार के साथ आनंद उठाने का मौका मिलता है।
ये कर्मी तो मजबूरी का शिकार होकर अपनी नौकरी करने को बाध्य हैं। मुझे लगता है कि अधिकतर मजदूर अपनी जिंदगी में बहुत तरक्की करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि दिन भर काम करने के बाद शाम को जो पगार मिलती है, उसे लोग ऐस-मौज मस्ती करके खत्म कर बिंदास जीवन जीना पसंद करते हैं।साथ ही ऐसा देखा जाता है कि बहुत सारे मजदूर को काम करने कहने के बाबजूद भी काम करना नहीं चाहते हैं।साथ ही ऐसा भी देखा जाता है कि विशेषकर मजदूर काम करने के बाद शाम में स्थानीय हाट जाते हैं तथा वहाँ पर घरेलू समान की खरीद -बिक्री करके,मस्ती करके पैसों को खर्च करने से बाज नहीं आते हैं। मजदूरों की जिंदगी में होली,दुर्गा- पूजा ,दशहरा इत्यादि कोई त्योहार नहीं होता है,बल्कि उसको जब काम मिला ,तभी रूपये की प्राप्ति हुई और जब रूपये की प्राप्ति हुई तो उसको भरपेट भोजन मिला।एक मजदूर कहता है कि"हमसे मत पूछो कि हम कैसे जीते हैं,गरीबी के दर्द को हम किश्तों में पीते हैं"।
आप दुर्गापूजा में जब परिवार के साथ मेला घूमने जाते हैं,तो आपको लगता है कि रिक्सा चलाने वाले को भी लगता है कि, "मैं भी अपने परिवार के साथ घूमने जाता,लेकिन हाय रे मेरी किस्मत जागने से पहले सो जाती है"।यानि वह रिक्सा चलाने वाले को अपने परिवार के साथ मेला घूमने की इच्छा तो होती है लेकिन फिर लगता है कि"यदि रिक्सा चलाऊंगा तो रूपये होंगे तथा रूपये नहीं होंगे तो फिर अपने बाल-बच्चों को खिलाऊंगा क्या?" मजदूरों की जिंदगी वैसे नदी की तरह होती है,जिसमें केवल बरसात के दिनों में ही पानी आता है,बाद बाकी दिन सूखा ही रहता है।
इन सबके बावजूद भी आज के समय में ऐसा देखा जाता है कि कुछ मजदूरों में अपने भविष्य में गरीबी की जिंदगी से बेहतर जीने की ललक जागृत हुई है तथा ,वह विकास के पथ पर अग्रसर है। आज के कोरोना वायरस के संक्रमण के काल में देखा गया है कि गरीब मजदूर आज भी बेबसी भरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं,क्योंकि परदेश में रहकर मजदूरी करने वाले लोगों को कोरोना वायरस के संक्रमण के काल में अपने घर आने के लिये हजारों-हजार मील पैदल,साइकिल के सहारे चल कर आना पड़ा।ऐसी स्थिति में देखी गई कि,"तबाही-तबाही,जिन्दगी में सिर्फ तबाही ही है"।
इन्हीं मजदूरों के मजबूरी पर कहा है ऐश-मौज,मस्ती करने की सबों को इच्छा होती है,लेकिन होके अपनी जिंदगी से मजबूर, मजदूरी किया होगा" अंत में,हम कह सकते हैं कि वैसे मजदूर जो कि सड़कों पर ठेला रिक्सा धकेल कर ले जाते हैं, तपती हुई धूप में भी खेतों पर मिट्टी काटते रहते हैं,पर्व त्योहार के दिन भी अपनी इच्छा की कुर्बानी देकर आपको सुख प्रदान करने की कोशिश करते हैं।फिर बड़े-बड़े पैसे वाले साहबजादे बात-बात पर रिक्सा-ठेला वालों पर रोब जमाते हैं,मानो उन मजदूरों का कोई एहसान कर रहा हो।आपको वैसे मेहनतकश मजदूरों के कठिन परिश्रम पर तरस आनी चाहिये,श्रीमान जरा सा प्रेम से उनसे बात तो कीजिये,आखिर वह भी तो इंसान है,जिन्दा है।आपके सेवा करने वाले मजदूरों पर भी यदि रोबदार तथा बदतमीजी के साथ पेश आयेंगे तो निश्चित रूप से इंसानियत शर्मा जायेगी। इन सारी बातों के बाबजूद भी आज "मजदूर मजबूर है"क्योंकि बहुत कठिन मेहनत के बावजूद भी दो जून का भोजन नसीब नहीं हो पाता है।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"
प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा बांका।

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