एक मनोविश्लेषणात्मक लेख।
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मर्यादा का अर्थ है कुशल नीति सदविचार,सदविवेक,अनुशासन, लोकाचार,ऊँच-नीच,बड़ा-छोटा सामाजिकता,कार्य के प्रति सोच, आदर्श इत्यादि से ओत-प्रोत व्यक्तित्व के धनी। मनुष्य जो कि एक विवेकशील प्राणी है,जो चिंतन करता है,किसी कार्य को करने के प्रति सोचता है।यदि हम अपने किसी भी कार्य को करने के पहले सोच विचार न करें तो मुझमें और पशु में क्या अंतर रह जाता है?आज के बदलते हुये परिवेश में जब लोग अपने स्वार्थ के लिये मान-मर्यादा ,इज्जत, प्रतिष्ठा सम्मान को ताक पर रख देते है तो उस समय लगता है कि गीता,रामायण,महाभारत,कुराण, बाइबिल इत्यादि धर्म ग्रंथों में दिये गये उपदेश बेकार सिद्ध हो रहे हैं।"मर्यादा" आलेख को मैं कई उदाहरण के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
(1)माता-पिता-विश्व की सबसे ज्यादा मूल्यवान संपत्ति और संबंध जो कि माता-पिता का है,जो कि अपने बच्चे को 09 महीना अर्थात 280 दिन अपने गर्भ में बड़ी अरमान के साथ रखकर जन्म देती है तथा प्रसव की असहनीय पीड़ा को सह कर भी बच्चे को जन्म देती है तथा पिता दुनियाँ का जितना भी संकट हो को झेलकर उसको हर प्रकार का सुख-सुविधा देने की कोशिश करता है।इसके बाद जैसे ही बेटे की शादी होती है धीरे-धीरेे माता-पिता से प्रेम कम होता जाता है तथा माता-पिता जो कि वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो रहे हैं,दो शाम भोजन के लिये मोहताज होना पड़ता है।हाय रे मर्यादा,जहाँ श्रवण कुमार जैसे पुत्र अपने माता-पिता को बहंगी में बैठाकर तीर्थ यात्रा को निकल पड़े,आज बेटा-पतोहू सामने खाना खाता है और माँ भूख से तड़प रही है।कहाँ गई मर्यादा, कहाँ गई पुत्र के प्रति माता-पिता का गर्व।
(2)गलत व्यसन का प्रयोग-आज के समय में समाज में ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा का सम्मान लोगों के बीच से उठता जा रहा है। बड़े- बुजुर्गों के साथ बैठकर नशीली चीजों का सेवन करना, बातचीत करते समय ऊँच-नीच का ख्याल न रखना। वाह रे जमाना तेरा क्या कहना?
(3)थोड़ी से स्वार्थ के लिये खून बहाना-जैसा कि कहा जाता है कि सभी मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी होते हैं,छोटी-छोटी सी बातों के लिये अपने से कमजोर पर जान लेवा हमला करना।किसी की संपत्ति को लूट कर ले लेना तथा पर्यावरण का अधिक-से अधिक दोहन करना ,आज लोगों की नियति सी हो गई है।
(4)काम के प्रति उदासीनता- आज के समय में लोगों की नियति हो गई है कि जितना कम-
से-कम काम में अधिक से अधिक
फायदा हो सके।आज के समय में लोगों की सोच होती है अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाना,ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सके।लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि वैसे व्यक्ति जो कि अपने बच्चों को निजी विद्यालय में पढ़ाना तो चाहते हैं,लेकिन स्वंय सरकरी विद्यालयों तथा सरकारी कार्यालयों में काम करना चाहते हैं। मुझे लगता है कि इसका एकमात्र कारण है काम के प्रति उदासीनता,लालफीताशाही, भ्रष्टाचार में लिप्त होना तथा अधिक-से-अधिक संपत्ति अर्जन करना।सबसे दुर्भाग्य की बात है कि सरकारी सेवा में लोग आकर अपने को जनता का सेवक नहीं बल्कि मालिक समझने लगते है।
दुर्भाग्य की बात है कि सुबह से शाम तक अपने बच्चों की पढ़ाई का ख्याल रखने वाले महाशय को देर से कार्यालय में आने तथा उपस्थिति बनाकर तेजी में घर वापस जाने की जल्दी रहती है।तो फिर आपकी मर्यादा का क्या होगा,प्रतिष्ठा का क्या होगा?हाय रे जमाना,आखिर घर का मालिक किसको खाये,किसको छोड़ दे।सरकार तो प्रयास करती है लेकिन फिर वही बात है कि"घोड़ा को पानी के पास ले जाया जा सकता है,पानी पिलाया नहीं जा सकता है"।लोगों को मर्यादा प्राप्त करने का रास्ता बताया जा सकता है,उसके गले में मर्यादा नाम की घंटी बाँधी नहीं जा सकती है।
अंत में,मैं भी आपके तरह ही सरकारी सेवक हूँ।जब चाँद में दाग है,तो मुझमें नहीं होगा ऐसा नहीं हो सकता है।इसलिये जिन्दगी में प्रतिष्ठा पूर्वक जीना है, मान- सम्मान, ईज्जत,प्रतिष्ठा बनाये रखना है तो अपने कर्म को कीजिये,वरना आगे की बात तो उपर वाला ही जाने।
आलेख साभार-विमल कुमार "विनोद"प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा,बांका(बिहार)।

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