प्रकृति और पुरुष के मेल से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है,इसलिये संसार को चलाने के लिए पुरुष और स्त्री दोनों की जरूरत पड़ती है।एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस संसार में नारी के तीन रूप हैं जिसमें-पहला माता ,दूसरा पत्नी और तीसरा बेटी के रूप में।मेरा यह आलेख पुरुष प्रधान समाज में नारी का तीसरा रूप बेटी पर आधारित है। पति-पत्नी के मेल से संतान की उत्पत्ति होती है तथा संतान की उत्पत्ति के बाद सबसे पहले बच्चे का लिंग निर्धारण किया जाता है- बेटा या बेटी के रूप में।जन्म के बाद जैसे ही पता चलता है कि घर में लड़की का जन्म हुआ है मानो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा हो।आखिर बेटी के जन्म लेने पर परिवार के लोगों की विचारधारा निराशाजनक क्यों महसूस होती है,इसके पीछे मेरी कुछ अपनी राय है जो निम्न प्रकार के हैं-
(1)हमारा भारतीय समाज जो कि पुरुष प्रधान समाज है,जहाँ विवाह के बाद लड़की शादी होने के बाद अपने ससुराल चली जाती है तथा पति एवं ससुराल वालों का ही मन उसके उपर हावी रहता है ,जिसके चलते लड़की के माता पिता उसे पराया धन मान लेते हैं।
(2) दूसरी बात है कि लड़की की शादी करते समय इस पुरुष प्रधान समाज में लड़की वाले को बेटी की शादी करने तथा अच्छा वर खोजने में लड़के वाले को बहुत खुशामद करना पड़ता है।साथ ही दहेज के रूप में मोटी रकम भी भेंट करनी पड़ती है,जिस कारण से लड़की वाले को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है।
(3) तीसरी बात है कि पुरुष प्रधान समाज में एक रूढ़िवादी परंपरागत विचारधारा चली आ रही है,माता-पिता की मृत्यु के बाद पुत्र के द्वारा मुखाग्नि के बिना उनकी आत्मा को शांति नहीं मिल पायेगी।
(4)पुत्री शादी के बाद जब अपने पति के घर चली जाती है तो पिता को देखभाल करने के लिये घर में बेटा-पतोहू की आवश्यकता है।साथ ही यह भी मान्यता है कि पुत्र नहीं हो तो परिवार में वंश वृद्धि नहीं होगी।
इन सभी समस्याओं के गलतफहमी का शिकार बना हुआ समाज आज तक भ्रूण हत्या, लैंगिक विषमता,नारियों के प्रति समाज का उपेक्षा पूर्ण व्यवहार से उबर नहीं पाया है।
इन सभी कारणों के चलते आज समाज में बालक की तुलना में बालिकाओं का औसत संतुलन बिगड़ता हुआ नजर आ रहा है। आज समाज में महिलाओं की औसत संख्या में अत्यधिक असमानता होने के कारण उत्तर प्रदेश तथा अन्य प्रांतों के लड़के झारखंड से बिना किसी जाति भेद के ही विवाह करके लड़कियों को अपने साथ ले जाते हैं। आज समाज में लड़कों की शादी के संबंध में भी दो तरह की बातें देखने को मिलती है,जैसे अगर कोई लड़का नौकरी करता है तो बहुत सारे कन्या पक्ष के लोग अपनी बेटी की शादी के लिये उनकी खुशामदी करते हैं।दूसरी ओर अगर लड़का बेरोजगार है तो लड़की वाले का रूझान उसकी ओर कम होता है।
इन सभी बातों के अलावे भी लड़की वाले को बेटी की शादी करने के लिये बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। आज के समय में बेटी की संख्या बेटा की तुलना में बहुत कम होने के कारण समाज में सामाजिक असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है जिसका बुरा प्रभाव नवरात्री के समय कुंवारी कन्या के पूजन के समय दिखाई दी जबकि लोग क्रम में लगे हुये दिखाई दिए अपने घरों में कुंवारी कन्या को भोजन कराने के लिए।
वर्तमान स्थिति-वर्तमान समय में कुछ पड़े लिखे समझदार परिवार बेटी के जन्म होने पर बेटी तथा बेटा में कोई फर्क महसूस नहीं करते हैं।साथ में उनमें यह चाहत भी दिखाई नहीं देती है कि उसे वंश चलाने के लिये बेटा ही चाहिये।साथ ही समाज की बेटियों ने अपने मेहनत के बल पर समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास किया है तथा सरकार के द्वारा भी नौकरी तथा अन्य कार्यों में उसे प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया है,जो कि एक सराहनीय कदम है।
अंत में हम कह सकते हैं कि समाज में बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ का जितना भी संदेश दिया जा रहा है,समाज में दहेज रूपी कुरूति के आज भी जिंदा रहने के कारण बेटी की स्थिति दयनीय बनी हुई नजर आ रही है।इस संबंध में मुझे लगता है कि समाज में जागरूकता लाने की जरूरत है तभी बेटी की संख्या को बढ़ाया जा सकता है। आने वाले समय में समाज के लोगों की सोच बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ के संबंध में निश्चित रूप से बदलेगी की आशा के साथ आपका ही।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"शिक्षाविद।

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