आज के समय में जब तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है,जहाँ पर वर्षा की अनिश्चितता तथा लगातार वर्षा का कम होना उपजाऊ जमीन को मरुभूमि बनने को मजबूर कर रही है।आज ज्यादातर जगहों में खजूर और ताड़ के वृक्ष का उगना भूमि की उर्वरा शक्ति को कमकरते हुये अनावृष्टि को बढ़ावा देती है।ऐसी स्थिति में भूमि का मरूस्थल के रूप में परिणत होना स्वाभाविक है।इसके अलावे भी भूमि को निम्न कारणों से मरूस्थल का रूप धारण करना पड़ रहा है।
एक ओर विकास तो दूसरी ओर भूमि का लगातार पर्यावरण का होता विनाश अपने में एक विरोधाभास लेकिन वास्तविकता यही है,जिसेआज के समय में विकास के नाम पर संपूर्ण पर्यावरण विनाश की राह पर खड़ा है,जो कि आज "भूमि को पर्यावरण के दुश्मन तत्व कैंसर" की तरह निगलते जा रहे हैं,जैसे-
(1)पोलीथिन के प्रयोग का बंद न होना- लगातार केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों के द्वारा लगातार "बीट प्लास्टिक पोलयूशन"सरकारी विफलता की भेंट चढ़ गई और आज भी धड़ल्ले से बाजार में पोलीथिन का प्रयोग करते हुये देखा जा सकता है। जहाँ जाइयेगा हमें पायेगा,बस पोलीथिन ही पोलीथिन है एवं सरकार,पर्यावरण मंत्रालय, सलाहकार बेखबर है।एक पर्यावरणविद होने के नाते मुझे लगता है कहीं-न-कहीं सरकारी विफलता का परिचायक है।जमीन प्लास्टिक मय होती जा रही है, किसान बेखबर है।मुझे लगता है कि एक-न-एक दिन कृषि का खेल खत्म होने ही वाला है।
(2)नदियों से अवैध बालू का उठाव-मुझे लगता है कि बालू माफिया लगातार बिना मानक को माने ही धड़ल्ले से अवैध बालू का उठाव कर रहे हैं,जिसमें प्रशासन की सहभागिता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है।झारखण्ड में ऐसा देखा जा रहा है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के काल में प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के तहत डांड़ों(छोटी नहर) जो कि नदियों से निकलती है का जीर्णोद्धार कराया जाना ,उपहास मात्र बनती जा रही है क्योंकि लगातार अवैध बालू का उठाव किये जाने से नदियाँ गहरी होती चली गई है तथा डांड़ का मुहाना ऊपर होता चला गया है।साथ ही अवैध बालू के उठाव के कारण नदियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है जहाँ नदियों के बालू की अधिकाधिक खुदाई होने के कारण बालू समाप्त होकर मिट्टी निकल गई है जहाँ पानी का रूक पाना असंभव है।इस कारण से डांड़ में कहाँ से पानी आ पायेगी यह एक प्रश्न चिन्ह पैदा करता है।
(3)विकास बाबा को खुश करने के लिये वृक्षों को बलिवेदी पर चढ़ाया जाना-विकास लगातार और अनवरत चीज है,जिसके अवरूद्ध हो जाने पर किसी का भी विकास संभव नहीं है।जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ लोगों के आवागमन के लिये सड़कों का भी चौड़ीकरण आवश्यक है।लेकिन सड़कों के चौड़ीकरण करने के समय सड़क किनारे लगे वृक्षों का भी ख्याल रखा जाना जरूरी है ताकि सड़कों पर चलने वाले राहगीरों को छाया मिल सके तथा सड़कों पर अनवरत चलने वाली गाड़ियों से निकलने वाले पेट्रोकेमिकल्स युक्त धुआँ को अवशोषित करने के लिये वृक्ष भी लगया जाना चाहिये।
सरकार को चाहिये कि सड़क निर्माण करने हेतु सड़कों के किनारे के वृक्षों को काटने हेतु अनापत्ति प्रमाण देने के पहले सड़कों के दोनों ओर वृक्ष लगाने का करार किया जाना जरूरी है।इसका जीता जागता उदाहरण"पंजवारा-सनहौला" सड़क है। साथ ही केदारनाथ में सड़क निर्माण हेतु लाखों लाख वृक्षों को काट दिया गया,जो कि पर्यावरण तथा तेजी से जलवायु परिवर्तन का एक कारण बनता जा रहा है। चूँकि "वृक्ष बादल को भी आकर्षित करते हैं,इसलिये वृक्षों के काटे जाने का भी भूमि के बंजर होने पर भी प्रभाव पड़ता है।" साथ ही लोगों ने अपने हित के लिये वृक्षों को काट दिया एवं महाजनों के द्वारा जंगलों से अवैध लकड़ी का धंधा करने के कारण निरवनीकरण की क्रिया भी तेज होती चली जा रही है,जिसका भूमि के बंजर होने पर बुरा प्रभाव पड़ा है।
(4)रासायनिक कीट नाशक तथा रासायनिक खाद का प्रयोग- किसानों के द्वारा लगातार घातक रासायनिक खाद तथा कीटनाशक का बिना मापदंड के प्रयोग किये जाने के कारण जैव-विविधता का विलुप्तिकरण भी तेजी से हो रहा है।किसानों के द्वारा थाइमाइट, फोलीडोल तथा अन्य खतरनाक कीटनाशक दिये जाने के कारण केचुआ जैसे जैविक खाद निकालने वाले जीव नष्ट होते जा रहे हैं तथा घोंघा,मांगुर तथा अन्य छोटे-छोटे जीव भी नष्ट होने लगे जो कि भूमि के मित्र हैं क्योंकि एक केचुआ एक वर्ष में 02 से 80 टन मिट्टी निकालने की शक्ति रखता है।साथ ही बिना किसी मानक के रासायनिक खादों के प्रयोग किये जाने से जमीन की उर्वरा शक्ति विनष्ट होते जा रही है।इसके अलावे खजूर तथा ताड़ के वृक्षों का अधिकाधिक संख्या में उगना भी मरुभूमि होने का संकेत है।इसलिये लोगों को कीटनाशक के रूप में नीमयुक्त कीट नाशक तथा कम्पोस्ट एवं जैविक खाद का प्रयोग करना चाहिये जिससे जमीन बंजर होने से बच सके।
(5)तालाबों का जीर्णोद्धार- तालाब जो कि वर्षा के जल संग्रहण का एक प्रमुख साधन है,जो कि सरकारी उपेक्षा तथा भू-माफिया का शिकार बनता जा रहा है।आज के समय में लोगों के पास अनेकों ऐसे तालाब हैं,जो कि जीर्णोद्धार के आस लगाये हुये हैं तथा जीर्णोद्धार के उपेक्षा के कारण तालाब खेल का मैदान बनते जा रहे हैं।चूँकि तालाब में वर्षा के जल संग्रहण से सिंचाई का काम होता था ,लेकिन जीर्णोद्धार नहीं होने के कारण फसल की सिंचाई नहीं हो पाती है।इसके अलावे डीप बोरिंग होने के कारण भी भू-जल का स्तर नीचे चला जा रहा है जिससे भी भूमि के बंजर होने की संभावना बढ़ती जा रही है।
(6)कंक्रीट के जंगल बनने से भी भूमि के अंदर वर्षा का जल नहीं जा पाता है जिसके कारण भी भू-जल का स्तर नीचे चला जा रहा है।साथ ही अधिकांश जगहों में पक्की करण हो जाने के कारण वर्षा का जल संग्रहित नहीं हो पा रहा है।
अंत में,हम कह सकते हैं कि अगर सृष्टि को नष्ट होने से बचाना है तो भूमि को बंजर बनने से बचाना होगा,क्योंकि सभी जीवों को जिंदा रहने के लिये भोजन की जरूरत है।साथ ही भोजन की प्राप्ति भूमि से हो सकती है ।इसलिये यदि भूमि को बंजर होने से न बचाया जाय तो जीव-जंतुओं का विनाश अवश्यमभावी है।इसलिये हमें संकल्प लेना चाहिये कि"धरती मेरी माता है, जिसे प्रदूषण मुक्त बनाये रखने का हर संभव प्रयास करेंगे ताकि जल,जंगल,जमीन,नदी,नाले, जलाशय,तालाब,जैव-विविधता बरकरार पूर्ववत बनी रहे,जिससे भूमि बंजर होने से बच सके की बहुत सारी शुभकामनायें।
आलेख साभार- श्री विमल कुमार "विनोद" शिक्षाविद,भलसुंधिया,गोड्डा
(झारखंड)।

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