जन्म के बाद से ही माता-पिता,परिवार,समाज,विद्यालय,शिक्षक के द्वारा बच्चों को शिक्षा देने का प्रयास किया जाता है।विश्व का सभी व्यक्ति अपने आने वाली पीढ़ी को एक अच्छी शिक्षा देकर उसे तालिम करना चाहते हैं, सभी लोगों के द्वारा अपने बच्चे को एक सुन्दर व्यक्तित्व प्रदान करना चाहते हैं,क्योंकि शिक्षा के बिना जीवन अधूरी की अधूरी ही रह जायेगी।शिक्षा जीवन का एक अनमोल रत्न है,जो कि विश्व की सारी समस्याओं को दूर करने में सफल हो सकती है।जीवन में सुन्दर-सुन्दर विचारों को लोग कहते हैं,"सोशल मीडिया" में प्रतिदिन हजारों-हजार उत्कृष्ट विचार पढ़ने को मिलते हैं,इसके बाबजूद भी हम समाज के लोगों के विचार में परिवर्तन लाने में असफल हो जाते है-इसके पीछे मुझे लगता है कि"माँ का अंधा प्यार तथा पिता की अनदेखी के साथ-साथ समाज के लोगों की शिथिलता" बहुत मायने रखती है।
मुझे ऐसा महसूस होता है कि आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व हमलोग सुबह उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर कुछ नाश्ता करके किताब-काॅपी लेकर पढ़ने बैठ जाते थे,पुनः समय से विद्यालय जाना,शाम में विद्यालय से घर आकर पुनः खेलकूद करने के बाद पुनः शाम को पढ़ने बैठ जाते थे,लेकिन आज का समय पूरी तरह से बदली हुई नजर आती है।
आज के समय में बच्चे सुबह से ही रात तक मोबाइल से चिपके हुये रहना पसंद करते हैं।मैं बच्चों को मोबाइल के प्रयोग पर रोक लगाने की बात नहीं करता हूँ बल्कि मुझे लगता है कि बदलते हुये दौर में आज बच्चों का मोबाइल के प्रति लगाव बढ़ता जा रहा है तथा शिक्षा के प्रति रूचि घटती जा रही है।
हम लोगों को अपने घर-परिवार के साथ-साथ विद्यालय में भी बच्चे-बच्चियों को शिक्षा,संस्कार,समर्पण तथा नैतिकता का पाठ पढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। मुझे ऐसा महसूस होता है कि बच्चों को सुन्दर शिक्षा देने का प्रयास करना चाहिये इसके लिये मुझे लगा कि हम शिक्षाविदों को अपनी कर्मभूमि में अपने द्वारा उत्कृष्ट कर्म को करना चाहिये जो कि हम शिक्षकों के जीवन का प्रमुख कार्य है।अपने जीवन में मुझे ऐसा महसूस होता है कि यदि हम शिक्षक तथा विद्यालय प्रधान ठान लें कि हमारी नियुक्ति जिस कार्य के लिये हुई है उसको पूरी तन्मयता के साथ करने का प्रयास किया जाय तो शिक्षा का निश्चित रूप से विकास भी होगा और जब शिक्षा का विकास होगा तो लोगों के जीवन की समस्यायें भी कम होगी तथा बच्चा,समाज,देश का भी उत्तरोतर विकास होगा।
मुझे ऐसा लगता है कि माता-पिता बचपन से ही बच्चों को नैतिकता तथा संस्कार देने का प्रयास तो करते हैं,लेकिन थोड़ी सी अनदेखी करने पर तथा समाज में कुछ असामाजिक तत्वों के झांसे में आकर कुछ बच्चे अपने जीवन की मुख्य धारा से भटकने लगते हैं, इसका मुझे बहुत अफसोस भी होता है,ठीक वैसे ही जैसे कि "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान,कितना बदल गया इंसान"मैं अपनी जिन्दगी में एक ऐसा समस्या बालक को देख रहा हूँ जहाँ एक बालक ऐसा भी है कि वह जबमेरे पास आता है तो चरणस्पर्श करके प्रणाम तो करता है,उसके बाद वह अभद्र व्यवहार करते हुये चला जाता है।इस समस्या के बारे में मुझे लगता है कि परिवार, समाज के द्वारा प्रारंभ के दिनों से ही उस बच्चे को सही तरीके से नैतिकता,संस्कार देने में अनदेखी देखने को मिलती है।इसलिये बच्चों को सही तरीके की शिक्षा, संस्कार तथा नैतिकता का ज्ञान देने का प्रयास करना चाहिये।
इन सभी बातों के अलावे मुझे लगता है कि कोई भी काम के पीछे समर्पण की भावना का होना आवश्यक है।विद्यालय में समर्पण की भावना का होना आवश्यक है।साथ ही मुझे लगता है कि परिवार,समाज,विद्यालय परिसर तथा हमारे जैसे शिक्षाविदों के अंदर भी विद्यालय तथा बच्चों के प्रति समर्पण की भावना का होना आवश्यक है।मैं भी एक शिक्षक के साथ-साथ विद्यालय प्रधान भी हूँ,इसलिये बच्चों के प्रति हमारी सोच भी वही है जो मैं अपने बच्चों के प्रति सोचता हूँ,क्योंकि हमलोगों को विद्यालय परिसर में बच्चों के
प्रति समर्पण की भावना की बात सोचने की आवश्यकता है।इस प्रकार हम सबों को अपने कर्मभूमि में आकर अपने कर्म के प्रति समर्पित होना चाहिये नहीं तो हमलोगों की जिंदगी तथा सोच यों ही व्यर्थ ही धरी की धरी रह जायेगी।
अंत में मुझे लगता है कि हम सब मिलकर यदि अपने कर्म के प्रति न्योछावर और समर्पित नहीं होगें तो फिर आने वाली पीढ़ी से बहुत अधिक उम्मीद नहीं कर सकते हैं,
क्योंकि शिक्षा के अंतर्गत जीवन मूल का अर्थ है,"भूत की बातों को याद करना,भविष्य का निर्माण करना तथा वर्तमान में जीवन जीना।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार
"विनोद"भलसुंधिया,गोड्डा (झारखंड)

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