मेरी संस्कृति मेरी पहचान- श्री विमल कुमार"विनोद" - Teachers of Bihar

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Wednesday, 1 March 2023

मेरी संस्कृति मेरी पहचान- श्री विमल कुमार"विनोद"

व्यक्ति को अपना सुन्दर,सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिये कुछ नियम,विधान,जो कि व्यक्ति के पारस्परिक संबंधों,व्यवहारों व क्रियाओं को निर्देशित व नियमित कर सकें को अपनानाआवश्यक होता है।समाज में सामूहिक जीवन के ये नियम विधान व्यवहार प्रणालियाँ,मूल्य मानक एवं आचार-विचार व्यक्ति की सांस्कृतिक विरासत के अंग माने जाते हैं।
मनुष्य के जीवन में गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार होते हैं ,जो कि आपके जीवन की पहचान है ,जिससे समाज में आपकी पहचान बनती है।


संस्कृति लोगों के जीवन जीने की एक पहचान होती है,जो कि अलग-अलग संप्रदाय की अलग -अलग तरीके की होती है।लोग अपने-अपने जीवन में अपने समाज तथा परंपरा के अनुसार
अपने जीवन के कार्यक्रम को करते हैं।जीवन के अंतिम संस्कार
मृत्यु के बाद लोग अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार मृत आत्मा की शांति के लिये अंतिम क्रिया कर्म करते हैं ताकि मृत आत्मा को शान्ति मिल सके।इसी दरम्यान मुझे एक कार्यक्रम में"होड़ संप्रदाय"के बीच आने का मौका मिला जहाँ मैंने देखा कि अंतिम श्राद्ध के दिन संथाल परिवार की महिलायें मृत आत्मा की शांति के लिये"डलिया"में घर से सौगात लेकर मृतक के घर यथा शक्ति तथा भक्ति के साथ निमंत्रण पूरा करने के लिये आमंत्रित घर में पहुँच रहे थे,जहाँ पर एक लोटा जल लेकर उनका स्वागत किया जा रहा था।उसके बाद उनका हाल चाल पूछा जाता था।उसके बाद उनको श्रद्धा भक्ति के साथ भोज खिलाया जा रहा था।उसके दूसरे दिन"मोरा काराम" का आयोजन जो कि मृतआत्मा की शांति के लिये,अपने प्रियतम 
मित्र की"मृत आत्मा"की शांति के लिये किया जा रहा था,जो कि अपनी संथाल संस्कृति बेमिसाल प्रस्तुति को देखकर जब लोगों की अंतरात्मा खुश हो रही थी,तो हमलोग भी यह सोंच कर स्तब्ध हो रहे थे वह महा मानव कितने ख़ुश नसीब थे जिनकी अंतरात्मा की शांति के लिये उनके समाज के लोग कह रहे थे कि"हे महा मानव आप मृत्यु के बाद भी हमलोगों पर कृपा करते रहियेगा ताकि हमारे समाज का विकास होता रहे।इसी दरम्यान मैंने देखा कि संथाली परंपरा में उस मृत आत्मा की शांति के लिये अपने ईष्ट को रिझाने का प्रयास कर रहे थे कि"हे प्रभु जी आप मेरे प्रियतम पारिवारिक सदस्य की मृत आत्मा को शांति प्रदान करने की कृपा करें"।
इस"मोरा काराम"कार्यक्रम में संथाल पुरुष लोग अपने सुन्दर वेशभूषा"पैंची"पहनकर,घुंघरू लगाकर अपनी भाव-भंगिमा में अपनी अपने को न्योछावर करके बेसुध होकर नृत्य करने में व्यस्त लग रहे थे।
मैंने इस दरम्यान जब इनसे बातचीत की तो उनका कहना था कि जिस प्रकार आपकी"दिकू" संप्रदाय में झाल,करताल,डोल के ताल पर भजन गाया जाता है, वैसा ही हमारे संथाली परंपरा में "मोरा काराम"का भी महत्व है।


इस कार्यक्रम के लिये लोग अपने घर में,"हंड़िया पोचोय"जो कि जिसको"मृतक के तस्वीर"के नीचे रखकर कभी मृतक के तस्वीर को प्रणाम करते हैं कभी उनके तस्वीर के पास अगरबत्ती जलाते हैं,तो कभी उनके कृति को याद करके भाव विभोर होकर चिंतित सा हो जाते हैं।
अंत में मुझे लगा कि मेरी संस्कृति ही मेरी पहचान है,जैसे हम"दिकू" लोग पैर के अंगूठे को छूकर प्रणाम करते है,संथाल लोग "डोबो जोहार"कर अपना स्नेह व्यक्त करते हैं जिन्दगी एक अनमोल चीज है,जिन्दगी का पूरी मस्ती के साथ आनंद उठाना चाहिये,लेकिन यह तभी संभव हो सकता है,जबकि हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को बरकरार बनाये रखेंगे जो कि जीवन में हमारी पहचान है।
हमारे जीवन का महत्व तब और बड़ जाता है,जब हमलोग अपनी सभ्यताऔर संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखते हुये आधुनिकता की ओर अग्रसर होने की कोशिश करेंगे।

     

   श्री विमल कुमार"विनोद"

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