सन्त शिरोमणि कवि रविदास जी - हर्ष नारायण दास - Teachers of Bihar

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Monday 26 February 2024

सन्त शिरोमणि कवि रविदास जी - हर्ष नारायण दास


सन्त रविदासजी का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर के गोवर्धनपुर गॉव में हुआ था।उनके माता का नाम कर्मा देवी तथा पिता का नाम संतोख दास दादा का नाम कालूराम दादी का नाम लखपती देवी था।पत्नी का नाम लोना जी तथा पुत्र का नाम विजय दास जी था।

 मध्यकालीन भक्ति -साहित्य में सन्त रैदासजी का नाम विशेष महत्व का है।बचपन से ही रैदासजी साधुसेवी थे।स्वभाव से अलमस्त फक्कड़ थे।लोक -परलोक, निन्दा -स्तुति की ओर उनकी दृष्टि गयी ही नहीं।रैदास एक मामूली झोपड़ी में रहते थे और जूते बनाकर अपनी जीविका चलाते थे।पास में ही श्री ठाकुरजी की चतुर्भुजी मूर्ति थी।जूते टांकते जाते और प्रेम-विह्वल वाणी में अपने हरि की ओर निहार-निहार कर गाते रहते------

प्रभुजी! तुम चंदन ,हम पानी।

जाकी अँग अँग बास समानी।।

प्रभुजी!तुम घन, बन हम मोरा।

जैसे चितवन चंद चकोरा।।

प्रभुजी!तुम दीपक, हम बाती।

जाकी जोति बरै दिन राती।।

प्रभुजी!तुम मोती, हम धागा।

जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।।

प्रभुजी!तुम स्वामी, हम दासा।ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

ऐसा कहा जाता है कि इनकी आर्थिक दुरवस्था को देखकर प्रभु को दया आयी और उन्होंने साधु रूप में रैदासजी के पास आकर उनको पारस पत्थर दिया और उनसे जूता सीने के एक लोहे के औजार को सोना बनाकर दिखा भी दिया।रैदासजी ने उस पत्थर को लेने से इनकार कर दिया।परन्तु साधु भी एम हठी था।लाचार होकर रैदास ने कहा-"नहीं मानते हो तो छप्पर में खोंस दो।तेरह महीने के बाद जब वही साधु भर आये और पत्थर का हाल पूछा, तब रैदास ने कहा कि"जहाँ खोंस गए थे,वहीं देख लो, मैंने उसे छुआ भी नहीं है।

महान त्यागी भक्त रैदासजी के संबंध में अनेक चमत्कार की बातें प्रख्यात है,जिनसे यही स्पष्ट प्रमाणित होता है कि भगवान के दरबार में छोटे-बड़े का उतना महत्व नहीं है, जितना भक्ति, प्रेम,श्रद्धा, विश्वास और लगन का है।

 रैदासजी प्रेम और वैराग्य की तो मूर्ति ही थे।श्रीराम के चरणों का अनन्य आश्रय ही उनकी साधना का प्राण था-

जो तुम तोरौ राम, मैं नहीं तोरौं।

तुम सौं तोरि कवन सौं जोरौं।।

तीरथ बरत न करौं अंदेसा।

तुम्हरे चरन कमल क भरोसा।।

जहँ जहँ जाओं तुम्हरी पूजा।

तुम सा देव और नहिं दूजा।।

सन्त रैदासजी ने परम्परा, वातावरण अथवा परिस्थितियों के कारण जिन नामों से परमात्मा का स्मरण किया, उनमें से "राम'के नाम को अधिक महत्व दिया।इनका कहना है कि जो "राम' नाम का स्मरण करता है,वह रामनाम रूपी पारस के स्पर्श से सारी दुविधा खो देता है-

परचै राम रमै जे कोई,

पारस परसै दुविध न होई।संत रैदासजी कहते हैं कि हे रामजी!

आपकी जय हो।मुझे तो आपकी ही आशा और आपका ही भरोसा है।

आस मोहि भरोस तोर, 

रैदास जै-जै राम। 

रविदासजी पश्चाताप करते हुए कहते हैं कि काम-क्रोध में अपने जन्म को तो मैंने गवां दिया।साधुओं का साथ भी मिला,फिर भी रामनाम का स्मरण नहीं किया-

काम क्रोध में जनम गवायो,

साध संगति मिलि राम न गायो।


राम ही रैदास के जीवन हैं और रैदास जी राम के दास हैं, इसलिए वे रामजी से कहते हैं कि हे प्रभो!आप हमें न भूलें-

राम गुसाइयाँ जीअ के जीवना,

मोहि न बिसारहु मैं जनु तेरा।

रैदासजी कहते हैं-हे मनुष्य!राम नाम का स्मरण कर।माया के भ्रम में क्यों भूल रहा है। अन्त समय में हाथ झाड़कर जाना पड़ेगा-

हे मन राम नाम सँभारि।

माया के भ्रम कहाँ भूल्यो। जाहुगे कर झारि।।

सन्त रैदासजी नित्य श्रीराम जी के चिन्तन में लगे रहते थे।

दरसन दीजै राम!दरसन दीजै।

दरसन दीजै, बिलंब न कीजै।।

दरसन तोरा,जीवन मोरा। बिन दरसन क्यूँ जिवै चकोरा।।

साधो सत गुरु,सब जग चेला।अबके बिछुरे मिलन दुहेला।।

धन-जोबन की फूलै आसा।

सत-सत भाषे जन रैदासा।

रैदास रात न सोइये, दिवस न करिये स्वाद।

अहनिसि हरिजी सुमिरिये, छाड़ि सकल प्रतिवाद।।


ऐसे परम सुजान कवि जो मीरा बाई जी के गुरु थे,को उनकी जयन्ती पर कोटिशः नमन।


प्रेषक--हर्ष नारायण दास

प्रधानाध्यापक

मध्य विद्यालय घीवहा

फारबिसगंज

अररिया।

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