संस्कृति से दूर होता शिक्षा विभाग - अरविंद, गया जी - Teachers of Bihar

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Friday 22 March 2024

संस्कृति से दूर होता शिक्षा विभाग - अरविंद, गया जी


शिक्षा और संस्कृति ये दोंनो शब्द जब एक साथ सुनाई देते हैं तो कानों को बड़े सात्विक प्रतीत होते हैं और संदर्भ साहित्यिक और सारस्वत जान पड़ता है।दरअसल ये दोंनो शब्द जब अलग-अलग भी सुने जाते हैं तो संदर्भ सकारात्मक ही अनुभव होता है।इन दोंनो शब्दों में अन्तर्निहित भाव ही कुछ ऐसा है कि श्रोता को अपने आसपास शुद्धता-सुचिता जैसा माहौल जान पड़ता है।संस्कृति के साथ अक्सर सभ्यता जुड़ी रहती है यहाँ मस्तिष्क को ऐतिहासिकता का बोध होता है।


शिक्षा और संस्कृति का अन्योन्याश्रय संबंध ऐसे देखा जाना चाहिए कि शिक्षा से संस्कृति का संवर्धन होता है और संस्कृति से शिक्षा को संरक्षण मिलता है।शिक्षा के अभाव में संस्कृति प्रदूषित होगी और संस्कृति के प्रदूषित होने से शिक्षा विकृत होगी।सो ये दोंनो सही अर्थों में तभी पल्लवित पुष्पित हों सकते जब सकारात्मकता के साथ जनमानस इसे आत्मसात करे।

पिछले कुछ महीनों से बिहार राज्य अपनी शिक्षायी व्यवस्था को लेकर काफी चर्चा में रहा है।महीने दो महीने के भीतर लाखों शिक्षकों की भर्ती विधिवत लोक सेवा आयोग के माध्यम से करके नवनियुक्त शिक्षकों के वेतन भुगतान करा देना सचमुच ऐतिहासिक ही कहा जाएगा।दनादन बहाली,ताबडतोड प्रशिक्षण अनवरत अनुश्रवण ने बिहार की स्कूली शिक्षा को एक ऐसे मुकाम में ला खड़ा किया कि सरकार अपनी उपलब्धियों पर पीठ ठोक रही है वहीं दूसरी ओर शिक्षायी समझ रखने वाले लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि शिक्षा को ऐसे हाँकी कैसे सकती है?


सच पूछिए तो बिहार में इन दिनों शिक्षा की रेल बेतहाशा दौड़ाई जा रही है यह भूलकर कि घोड़े को पानी दिखाया जा सकता है परंतु पानी पिलाया नहीं जा सकता।इसे भी नजरअंदाज करके कि शिक्षा संस्कृति को संवर्धित करने के लिए है न कि संस्कृति को भूल जाने को।

इन दिनों जब से नये सचिव ने कार्य भार संभाला है तब से अंधाधुंध काम करने की संस्कृति पैदा की जा रही है बिना यह जाने कि स्कूल का जुड़ाव एक बड़ी आबादी से होता है जिनमें बच्चे शामिल होते हैं।बच्चों के स्वभाव,मनोविज्ञान ,आदतों से अपरिचित रहकर उन्हें लंबे समय तक स्कूल में रोके रखने से क्या हासिल हो पाएगा?कल्पना कीजिए स्कूल के अंतिम पीरियड में उसी कक्षा के सारे बच्चे खेल रहे हों और पाँच बच्चे कक्षा में पढ़ने को विवश हों तब उस बालमन में हीन भावना,आक्रोश, क्षुब्धता पैदा होना सामान्य बात होगी।उन्हें कक्षा के अन्य बच्चों द्वारा ' भोंदू ' कहकर चिढ़ाए जाने से कौन रोक सकता है?ऐसे में क्या गुजरेगी उस बालमन पर ! इस दृष्टिकोण से सोचा गया है?

इन दिनों लगातार रविवार और पर्व-त्योहार के अवसरों पर स्कूलों और विभाग के कार्यालय खुले रह रहे हैं।रात ग्यारह बजे तक कार्यालयों में शिक्षकों- अभ्यर्थियों की भीड भूख,नींद और सुरक्षा की बलि चढ़ाकर अपनी बारी का इंतजार करते दिखते हैं।ताज्जुब होता है कि बिहार में दीवाली, छठ जैसे पर्व पर स्कूल खुले रखे गए।यहाँ प्रायः घरों में छठ किए जाते हैं।कल्पना कीजिए कि आपके यहाँ छठ का उत्सव हो और बच्चे स्कूल जाने को विवश हैं।यह कितनी क्रूरता है बच्चों के साथ।ये ऐसे त्योहार हैं जो बिना किताब के स्वच्छता,सहयोग,सम्मान,और क्रियाशीलता सीखाती है।लड़कियों को खासकर घरेलू कार्यों में दक्ष बनाती हैं।ऐसे संस्कृतिजन्य पर्व के दिन स्कूल आने से वे कौन सा तीर मार लेंगे ?उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक- शिक्षिकाएँ भी उस मनोदशा में नहीं होते।नगण्य बच्चों के साथ कौन क्या पढाए?यह समय और संसाधन दोंनो की बरबादी ही है।

इधर होली के दिन भी स्कूल खुले हैं और प्रशिक्षण भी होंगे।लगभग बीस हजार शिक्षकों को होली की पूर्व संध्या पर अपने पदस्थापना से इतर दूरदराज के जिलों में भेजा गया है।जहाँ यातायात और भोजन की समस्या होनी ही है।होली के उमंग में कौन रोजमर्रा का काम करता दिखता है?सडकों पर धमाल,बंद यातायात जैसे माहौल में प्रशिक्षण लेना-देना कितना प्रभावशाली होगा यह विचारणीय है।

क्या स्कूल-शिक्षक-बच्चे ये सब सेना ,अस्पताल, अग्निशमन,पुलिस जैसे विभाग हैं?क्या आपदा आई है या फिर संकटकाल जैसे हालत है? 

मनुष्य को मशीन समझने वाले अधिकारियों को कैसे पता होगा कि जबरदस्ती प्रशिक्षण लेना-देना सिवाए कोरम पूरा करना ही है।हाँ,इस बीच होली के सन्नाटे में कुछेक की जेबें जरूर भर जाएँगी।बजट खर्च करके ये किसको लाभ पहुँचाएँगें,नामालूम।होली में घर आने के बजाय होली में घर से बाहर जाने की संस्कृति का विकास हो रहा है।

आज लगभग आधे से अधिक संख्या में महिला शिक्षिकाएँ हैं।वे घर-बार छोड़कर प्रशिक्षण के लिए दूसरी जगह जाएँगी।उनके बच्चे-पति घर में रहेंगे,होली जैसे दिनों में।ऐसे में किसकी होली ?कैसी होली? ये त्योहार साल में एक बार आते हैं ।त्योहार उमंग-उल्लास,उर्जा लाते हैं फिर आदमी मनोयोग से काम में लगता है।कुढते हुए काम करने से न ट्रेनर कुछ दे सकते न प्रशिक्षु कुछ ले सकते।दूरदराज के लाखो शिक्षक नौकरी करते हुए माँ बाप ,घर-परिवार,दोस्तों से दूर रहकर मानसिक अवसाद के ही शिकार होंगे और परिजन उनकी राह देखते नौकरी को कोसेंगे।

जो नौकरी संस्कृति,धर्म,परंपरा,मानवीय मूल्यों समाज से विरक्त कर दे उसमें तो फिर जीना मुश्किल होगा।समाज का चरित्र बदल जाएगा।यह शिक्षा संस्कृति की हत्यारिन कही जाएगी।लार्ड मैकाले ने तो यही किया था हमारी शिक्षा के साथ।आज अधिकारियों की हनक कुछ ऐसा ही कर रही है। इनकी समझ समाज के ताने-बाने छिन्न न कर दें इससे पहले उनपर मुख्य मंत्री को नकेल कसनी चाहिए।

 ओह! भूल गया कि मुख्य मंत्री की अब कोई नहीं सुनता।लाचार मंत्री और विपक्ष दोंनो बिहार की बड़ी आबादी को शिक्षा के माध्यम से जोड़ने के बजाय संस्कृति से विलग करने के वायस बन रहे हैं।पैसा जो ना कराए! 


अरविंद, गया जी। 

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