आज सन्त कबीरदास जी की जयंती है। समय बदलता है, किन्तु कुछ सदुपदेश ऐसे होते हैं, जो सभी देश-काल अर्थात् सभी स्थान और सभी समय के लिए सत्य और प्रासंगिक होते हैं । सन्त कबीरदास जी ने भी दोहों के माध्यम से मानव जाति का श्रेष्ठ उपदेशों द्वारा पथ-प्रदर्शन किया है । इन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण को माना है । गुरु रामानंद के मुख से निकले गये 'राम-राम' शब्द को इन्होंने अपना इष्ट मंत्र मान लिया ।
'मोको कहाँ ढूढे बन्दे मैं तो तेरे पास में'...इन सरीखे भजनों के द्वारा उन्होंने बताया कि ईश्वर का वास आपके भीतर ही है ।
'पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोय । ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय ।।' दोहा के द्वारा उन्होंने प्रेम और समग्र मानवता की सेवा को श्रेष्ठ बताया है ।
'बुरा जो देखन मैं चला' के द्वारा बताया कि किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए । वे ईश्वर, मानवता की सेवा और अपने कर्म में विश्वास रखते थे, किन्तु आडम्बर और अंधविश्वासों से नफरत करते थे । यथार्थ में उनका विश्वास था ।
एक सज्जन(मेरे बहनोई के पिताजी स्व0 रवीन्द्र खाँ, पड़री) ने मुझसे पूछा, बताइए कि कबीरदास के उल्टे वाणी, पहले खानी, तब स्नानी का क्या अर्थ है?' मैंने उत्तर दिया, 'पहले खा लीजिए, फिर नहा लीजिए।' उन्होंने कहा, 'नहीं, इसका अर्थ यह है, काम(lust), क्रोध, मद(नशा) और लोभ आदि विकारों को खाकर मन को पवित्र कर लीजिए ।'
कबीरदास जी ने बाह्याडम्बरों, अंधविश्वासों, सभी तरह की संकीर्णताओं छुआ-छूत, निंदा-स्तुति आदि से दूर रहकर अपने जीवन में श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर करने की प्रेरणा दी है । उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति की असली पहचान उनके विचारों और कर्मों से होती है ।
प्राय: व्यक्ति का अन्त देखकर उनके जीवन का पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति कैसा था और उन्होंने जीवन कैसा जीया । कहा जाता है, 'कबीरदास का शव पुष्प का रूप ले लिया था ।'
कबीरदास जी की जयंती पर नमन !!
गिरीन्द्र मोहन झा, +2 शिक्षक, +2 भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा
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