संत कबीरदास उदात्त विचारों के अग्रदूत - देव कांत मिश्र 'दिव्य - Teachers of Bihar

Recent

Sunday 23 June 2024

संत कबीरदास उदात्त विचारों के अग्रदूत - देव कांत मिश्र 'दिव्य


आज संत कबीरदास की जयंती है। वे भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के महान कवि थे। हिंदी साहित्याकाश में कबीरदास ऐसे एकमात्र कवि थे जो समाज में व्याप्त आडंबरों व कुरीतियों का घोर विरोध करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के कुशल पैरोकार थे। इनका जन्म सन् १३९८ ईस्वी में लहरतारा ताल, वाराणसी में हुआ था।इनके पिता का नाम नीरू तथा माता का नाम नीमा था। इनके गुरु का नाम रामानंद था। इन्हें शांतिमय जीवन प्रिय था तथा वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। वे पढ़े- लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है:

'मसि कागद छूओं नहीं, कलम गहौं नहिं हाथ।' अर्थात्  मैंने न तो कभी कागज को छुआ है और न ही कभी कलम पकड़ी है। कहने का तात्पर्य है कि कबीर अपने मुख से निकली हुई अमृत वाणी को सर्वोपरि मानते थे।  वे उन गुणों को जीना चाहते थे जो सत्य गुण भाव से ओत-प्रोत हो।  तभी तो वे कहते हैं -

मैं कहता हूँ आखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।

       इनकी प्रमुख रचनाएँ  साखी, सबद, रमैनी हैं। इनके काव्य में आत्मा और परमात्मा के सम्बंधों की स्पष्ट झलक है। इन्होंने अपने काव्य में परमात्मा को प्रियतम और आत्मा को प्रेयसी के रूप में  चित्रित किया है। इनकी रचनाओं में अत्यंत ही गहरा भाव है। जीवन दर्शन की झलक है। इनके द्वारा रचित दोहे तो लाजबाव , हृदयस्पर्शी, मार्मिक व प्रेरक हैं। इनके कुछ दोहे जो मेरे जीवन पर गहरी छाप डाले हुए हैं, इस प्रकार हैं-

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

               कहने का भाव है कि  किसी सज्जन पुरुष की जाति की नहीं अपितु उनके ज्ञान व समझदारी की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उदाहरणस्वरूप महत्त्व तलवार का होता है, उसकी तीक्ष्णता का मूल्य होता है न कि म्यान का।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।

जो दिल खोजा आपनों, मुझ सा बुरा न कोय।।

           कहने का मतलब यह है कि अच्छे व्यक्ति किसी की बुराई की ओर ध्यान नहीं देते। उन्हें तो केवल किसी की अच्छाई ग्रहण करने में ही आनंद मिलता है। व्यक्ति जिस दृष्टि से देखता है, उसे लोगों में वैसे ही गुण-दोष परिलक्षित होते हैं। स्पष्ट है कि व्यक्ति जितनी अच्छी बातों के बारे में सोचता है, उसका हृदय उतना ही पावन होते जाता है। हमें अपने घर में बच्चों को अच्छी सोच व विचार अपनाने कहना चाहिए। विद्यालय में पढ़ने वालों छात्रों को भी एक दूसरे से प्रेम पूर्वक रहने, सहयोगात्मक भाव व नैतिक मूल्यों को अपनाने की शिक्षा देनी चाहिए क्योंकि वर्तमान में इसकी कमी झलक रही है। जब हम सम्यक् विचार व उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव अपना लेंगे तब हमारा समाज, हमारा विद्यालय व हमारा देश स्वस्थ व समृद्ध होकर आगे बढ़ेगा एवं संत कबीरदास की वाणी की सार्थकता सही सिद्ध होगी। 



देव कांत मिश्र 'दिव्य' मध्य विद्यालय धवलपुरा, सुलतानगंज, भागलपुर, बिहार

No comments:

Post a Comment