सबसे ऊँची प्रेम सगाई - - Teachers of Bihar

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Saturday 31 August 2024

सबसे ऊँची प्रेम सगाई -


आत्मा को यह शरीर बन्धन में रखता है। शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है। किन्तु जड़-चेतन की यह ग्रन्थि असत्य है, गलत है। क्योंकि चेतन को जड़ वस्तु किस प्रकार बाँध सकती है। यह ग्रन्थि असत्य होने पर भी,जैसे स्वप्न हमें रुलाते हैं, वैसे ही यह भी हमें रुलाती है।

श्री कृष्ण बिना आमन्त्रण पाये ही विदुरजी के घर गये थे। कौरवों ने पाण्डवों को लाक्षागृह में जला देने का प्रयत्न किया था। विदुर जी ने कौरवों को उपदेश दिया, किन्तु उनपर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। विदुरजी ने सोचा कि धृतराष्ट्र दुष्ट है। उसके कुसंग में मेरी भी बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी। फिर भी उन्होंने उसे कई बार उपदेश दिया, किन्तु धृतराष्ट्र ने एक भी न सुनी, तो विदुरजी उसके घर को ही त्याग दिया।विदुरजी अपनी पत्नी सुलभा के साथ समृद्ध घर का त्याग करके वन में चले गये। वनवास के बिना जीवन में सुवास नहीं आ सकता। इसलिये तो पाण्डवों ने और भगवान श्रीराम चन्द्र जी ने भी वनवास किया था। विदुर और सुलभा वन में नदी के किनारे कुटिया बना कर रहने लगे और तपश्चर्या करने लगे। वे प्रति दिन तीन घन्टे कृष्ण-कथा, तीन घण्टे प्रभु का ध्यान, तीन घण्टे प्रभु का कीर्तन और तीन घण्टे प्रभु की सेवा करने लगे। बारह वर्ष तक वे इस प्रकार भगवान की आराधना करते रहे।

विदुरजी ने सुना कि द्वारकानाथ सन्धि कराने के लिए हस्तिनापुर आ रहे हैं।धृतराष्ट्र ने सेवकों को आज्ञा दी कि कृष्ण के स्वागत की तैयारी करो।छप्पन भोग लगाओ। धृतराष्ट्र यह सेवा कुभाव से करते हैं। सेवा सदा सद्भाव से करनी चाहिये। कुभाव से सेवा करनेवाले पर भगवान प्रसन्न नहीं होते।जो सद्भाव से सेवा करते हैं, उसकी सेवा से वे प्रसन्न होते हैं। विदुरजी गंगा स्नान करने गये तो उन्हें पता चला कि कल द्वारका से भगवान श्रीकृष्ण आ रहे हैं। विदुरजी को घर लौटने पर उनकी पत्नी ने कहा कि आज आप बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं। विदुरजी ने कहा कि मैंने कथा में सुना था कि जो बारह वर्षों तक सतत सत्कर्म करे, उस पर भगवान कृपा करते हैं। बारह वर्ष एक ही स्थान में रहकर ध्यान करनेवाले को प्रभु दर्शन देते हैं। मुझे लगता है कि द्वारकानाथ दुर्योधन के लिए नही, किन्तु मेरे ही लिए आ रहे हैं। विदुरजी कहते हैं कि देवी! तुम्हारी तपश्चर्या का फल कल मिलेगा। कल परमात्मा के दर्शन होंगे। सुलभा देवी ने विदुरजी से पूछा कि"आपका प्रभु के साथ कोई परिचय भी है?

विदुरजी ने कहा कि"जब मैं कृष्ण को वन्दन करता हूँ तो वे मुझे "चाचा' कहकर पुकारते हैं। मैं तो उनसे कहता हूँ कि मैं अधम हूँ, आपका दासानुदास हूँ। मुझे चाचा मत कहिये।

जीव जब नम्र होकर प्रभु की शरण में जाता है तो ईश्वर उसका सम्मान करते हैं। सुलभा के मन में एक ही भावना है कि ठाकुर जी मेरे घर पर भोजन करें और मैं उन्हें प्रत्यक्ष निहारूँ। सुलभा कहती है कि वे आपके परिचित हैं, तो उन्हें हमारे घर पधारने का निमन्त्रण दीजिये। मैं भावना से तो प्रतिदिन भगवान को भोग लगाती हूँ। अब मेरी इच्छा यही है कि मेरी दृष्टि के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से भोजन करें। विदुरजी कहते हैं कि मेरे आमन्त्रण को अस्वीकार तो वे नहीं करेंगे, किन्तु इस छोटी सी झोपड़ी में हम उनका आदर-सत्कार कैसे करेंगे। उनके आगमन से हमें तो आनन्द होगा, किन्तु उन्हें तो कष्ट ही होगा।

सुलभा ने कहा कि मैं दीन हूँ तो क्या हुआ! दीन होना अपराध है क्या!आपने कथा में कई बार कहा है कि"प्रभु प्यार के भूखे हैं। भगवान दीनों से अधिक प्यार रखते हैं।

जब तक जीव शुद्ध नहीं होता, तब तक परमात्मा उससे आँख नहीं मिलाते और जब तक चार आँखें एक न हो, तब तक दर्शन में आनन्द नहीं मिलता।रथयात्रा के समय प्रभु ने दृष्टि से ही विदुरजी को कहा कि 'मैं आपके घर आऊँगा। परन्तु अति आनन्द में डूबे हुए सुलभा -विदुरजी भगवान का संकेत समझ न पाये। भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये। वहाँ धृतराष्ट्र और दुर्योधन प्रभु के स्वागत के लिये एक महीने से तैयारी कर रहे थे। प्रभु का आगमन हुआ।

प्रभु ने धृतराष्ट्र-दुर्योधन को बताया कि मैं द्वारका के राजा की हैसियत से नहीं, अपितु पांडवों का दूत बनकर आया हूँ।पांडवों का नाम सुनते ही दुर्योधन ने भगवान का अपमान कर दिया। दुष्ट दुर्योधन ने भगवान का अपमान करते हुए कहा कि"भीख माँगने से राज्य नहीं मिलता। सूई की नोंक पर रखी जा सके, उतनी भूमि भी मैं पाण्डवों को नहीं दूँगा। मैं युद्ध के लिये तैयार हूँ।''उसने श्री कृष्ण की एक भी न मानी। सन्धि कराने के प्रयत्न में श्रीकृष्ण सफल न हो सके। धृतराष्ट्र ने भगवान से कहा कि"आप इन भाइयों के झगड़े से दूर ही रहें। आपके लिये छप्पन भोग प्रस्तुत है, आराम से भोजन कीजिये। श्रीकृष्ण ने कहा कि"तुम्हारे घर का अन्न खाने से तो मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी। पापी के घर का अन्न खाने से किसी भी व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है। छप्पन प्रकार की खाद्य वस्तुएँ भगवान के लिए प्रस्तुत की गयी थीं, फिर भी उन्होंने खाने से अस्वीकार कर दिया अन्य राजाओं ने आशा की कि कृष्ण उनके घर भोजन करेंगे। परन्तु कृष्ण ने तो उन्हें और सभी ब्राह्मणों को भी निराश कर दिया।द्रोणाचार्य ने तब पूछा कि"आप सभी के आमन्त्रण को अस्वीकार कर रहे हैं तो फिर कहाँ जाएँगे? भोजन का समय हो गया है। कहीं न कहीं भोजन करना ही पड़ेगा। यदि दुर्योधन के यहाँ भोजन करने में आपको कोई आपत्ति है तो आप मेरे घर चलिए। भगवान ने उनसे भी न कर दिया और कहा कि"मैं तो, उस भक्त के घर जाऊँगा जो गंगा किनारे पर रहता है, उसी के घर जाऊँगा। आज सुलभा का हृदय भी बड़ी कातरता और आद्रता से सेवा कर रहा है वह भगवान से प्रार्थना कर रही है कि मैंने आपके लिये सर्वस्व का त्याग कर दिया है, फिर भी आप नहीं आ रहे हैं। गोपियाँ सच कहती है कि "कन्हैया के पीछे जो लग जाता है, उसी को वह रुलाता है। आपके लिए मैंने संसार सुख को त्याग दिया, सर्वस्व आपके चरणों में रख दिया, फिर भी आपका आगमन मेरे घर क्यों नहीं हो रहा है? कीर्तनभक्ति श्रीकृष्ण को अति प्रिय है। जब सूरदास जी भजन करते है, तब श्रीकृष्ण आकर उनके हाथ में तंबूरा दे देते हैं। सूरदास कीर्तन करते हैं औऱ कन्हैया सुनता है।

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।

मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।

भगवान नारद से कहते हैं कि मेरा वास न तो वैकुण्ठ में है और न तो योगियों के हृदय में। मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ मेरा भक्त प्रेम से आद्र होकर मेरा कीर्तन करता है। कुटिया में विदुर-सुलभा भगवान के नाम का कीर्तन कर रहे हैं। परन्तु वे नहीं जानते कि जिसका वे कीर्तन कर रहे हैं, वह आज साक्षात उनके द्वार पर खड़ा है।मनुष्य का जीवन पवित्र होगा तो भगवान बिना आमन्त्रण पाये भी उनके घर आयेंगे। जो परमात्मा के लिए जीता है, उसके घर स्वयं परमात्मा आते हैं।बिना बुलाये ही आज भगवान विदुरजी के कुटिया पर पधारे है, वे दोनों तो अपने कीर्तन में मस्त थे। अन्त में व्याकुल होकर श्रीकृष्ण ने कुटिया का द्वार खटखटाया और कहा-चाचाजी! मैं आ गया हूँ। कीर्तन ऐसी की जाए कि भगवान स्वयं आपके घर पधारे।

भगवान ने कहा कि मैं भूखा हूँ। मुझे कुछ भोजन करने के लिये दीजिए।विदुरजी ने पूछा कि "आपने दुर्योधन के घर भोजन नहीं किया?

श्रीकृष्ण ने कहा- चाचाजी! आप जिसके घर नहीं खाते वहाँ मैं भी नहीं खा सकता। सगुण और निर्गुण एक है।निराकार साकार बनता है। ईश्वर प्रेम के भूखे हैं, अतः ज्ञान से प्रेम श्रेष्ठ है।प्रेम में ऐसी शक्ति है कि वह जड़ को भी चेतन बना देता है, निष्काम को सकाम बना देता है। पति -पत्नी सोचने लगे कि भगवान का स्वागत कैसे करें?वे दोनों तो तपस्वी थे,और केवल भाजी ही खाते थे उन्हें संकोच हो रहा था कि कृष्ण को भी कैसे खिलायें। दोनों को कुछ सूझ नही रहा था। इतने में ही द्वारकानाथ चूल्हे से भाजी का बर्तन उतार लिया और उसे खाने भी लगे।

स्वाद और माधुर्य वस्तु में नहीं प्रेम में है। शत्रु का मधुर व्यंजन भी विष जैसा ही लगता है। भगवान को दुर्योधन के घर के मिष्टान्न अच्छे नहीं लगे, किन्तु विदुरजी के भाजी खायी इसलिये तो गाया जाता है-

सबसे ऊँची प्रेमसगाई।

दुर्योधन को मेवा त्यागो साग विदुर घर पाई ।।

जूठे फल शबरी के खाये बहु बिधि प्रेम लगाई।

प्रेम के बस नृप-सेवा किन्ही आप बने हरि नाई।।

राज सुयज्ञ युधिष्ठिर कीन्हों तामें जूठ उठाई।

प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाँकयो भूल गये ठकुराई।।

ऐसी प्रीति बढ़ी वृन्दावन गोपिन नाच नचाई।

सूर क्रूर इस लायक नाहीं कहँ लगि करौं बड़ाई।।



प्रेषक-हर्ष नारायण दास


प्रधानाध्यापक


मध्य विद्यालय घीवहा,

 फारबिसगंज

जिला- अररिया

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