राम कथा के अनन्य शोधकर्ता: कामिल बुल्के - Teachers of Bihar

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Sunday 1 September 2024

राम कथा के अनन्य शोधकर्ता: कामिल बुल्के


कामिल बुल्के का जन्म 1सितम्बर 1909 को बेल्जियम देश के वेस्ट फ्लैडर्स प्रांत के एक छोटे से गाँव रेमस्केपल में हुआ था। पिता अल्दोफ बुल्के अपने पुत्र को व्यापार में लगाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके उनका पुत्र कारोबार से जुड़े। परन्तु माता मारिया बुल्के उन्हें धर्म प्रचारक के रूप में देखना चाहती थीं। कामिल बुल्के में बचपन से ही आध्यात्मिक रुचि उत्पन्न हो गई थी और वे इंजीनियर बनकर भी चर्च से  गए और मिशनरी का मार्ग अपना लिया।उन्होंने सन1932 में दर्शनशास्त्र में एम०ए० किया। मिशनरी बनकर 1935 में भारत आ गए। दार्जिलिंग के सेंट जोसेफ कॉलेज में विज्ञान के शिक्षक के रूप में उन्होंने कार्य आरम्भ किया। यहाँ रहकर उन्होंने अनुभव किया कि उन्हें हिन्दी और संस्कृत सीखनी चाहिये। इलाहाबाद में रहकर उन्होंने हिन्दी साहित्य में एम०ए० किया। तुलसी और रामकथा के प्रति उनके मन में जिज्ञासा और श्रद्धा पल्लवित हो गई और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध 

 छात्र बनकर सन् 1950 में उन्होंनें "रामकथा-उत्पत्ति और विकास' विषय पर अपना शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किया, जिस पर उन्हें डी० फिल० की उपाधि प्राप्त हुई। रामकथा के आद्य रचनाकार वाल्मीकि हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा से रामकथा के रूप में एक दिग्विजयिनी गाथा संसार को दी है,जो भारतीय संस्कृति की उज्ज्वलतम छटा बनकर विद्यमान है। लेखक ने तो मात्र उसकी व्यापकता को प्रस्तुत करने की चेष्टा भर की है। अपने शोध कार्य को "रामकथा की दिग्विजय का विवरण'' कहकर प्रस्तुत करना लेखक की विद्वत शालीनता को दर्शाता है।

कामिल बुल्के भारतीय संस्कृति, राम के जीवन चरित और हिन्दी भाषा की त्रिधारा में जीवन-पर्यन्त अवगाहन करते रहे और रामकथा की अमूल्य कृतिमणि विश्व को प्रदान करके कृतार्थ हो गए। जिस प्रकार रामायण की रचना कर के आदिकवि वाल्मीकि और रामचरितमानस लिखकर तुलसी अमर हो गये हैं, उसी प्रकार विश्वव्यापिणी रामकथा के विभिन्न स्रोतों का संकलन करके और उस पर तुलनात्मक रूप से प्रकाश डालकर कामिल बुल्के भी हिन्दी साहित्य जगत में अमरत्व को प्राप्त हो गए हैं।

वास्तव में सद्धर्म और मानवता के मार्ग पर चलने वाले भाषाराधक और साहित्य साधक फादर बुल्के की श्रद्धा के आलंबन बन गये थे। वाल्मीकि और तुलसी, जिन्होंने पुरुषोत्तम राम की चरित गाथा का अलौकिक प्रवर्तन और अद्भुत प्रस्तुतिकरण करके केवल भारत की ही नहीं, विश्व की मनीषा को भी विस्मय से अभिभूत कर दिया था।

भारत आकर कामिल बुल्के ने भारतीय नागरिकता अंगीकार कर ली थी। वे रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिन्दी संस्कृत विभाग के अध्यक्ष बने।उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- रामकथा-उत्पत्ति और विकास(1950) ए टेक्निकल इंग्लिश-हिन्दी ग्लोसरी (1956) नीलपंछी (1958) अंग्रेजी-हिन्दी कोष(1968) रामकथा और तुलसीदास-व्याख्यान संग्रह (1978) और मानस-कौमुदी सूक्ति चयन(1978)।

फादर बुल्के की मातृभाषा फ्लेमिश थी पर अंग्रेजी, फ्रेंच, आइरिश जर्मन आदि भाषाओं का भी उन्हें ज्ञान था। हिन्दी के तो वे पंडित ही बन गए। भारतीय नागरिकता स्वीकार करने के बाद वे स्वयं को बिहारी कहा करते थे। अपने आपको हिन्द का और हिन्दी का कहलाने में वे गर्व का अनुभव करते थे। वे संस्कृत को माँ, हिन्दी को गृहिणी और अंग्रेजी को अनुचरी के रूप में देखते थे। एक बार उन्होंने कहा भी था- अंग्रेजी यहाँ दासी या अतिथि के रूप में ही रह सकती है, बहुरानी के रूप में नहीं। 1974 ई० में उन्हें पद्मभूषण प्रदान कर सम्मानित किया गया। सन् 1984 में लम्बी बीमारी के बाद उनका स्वर्गवास हो गया। ऐसे महान सन्त को उनकी जयन्ती पर कोटिशः नमन!




प्रेषक-हर्ष नारायण दास

प्रधानाध्यापक

मध्य विद्यालय घीवहा

फारबिसगंज (अररिया)

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