गिजुभाई बधेका का जन्म १५ नवम्बर, १८८५ को पश्चिम भारत के सौराष्ट्र स्थित चित्तल में हुआ था।उनका पालन-पोषण गुजरात के भावनगर में हुआ। १९०७ में वे पूर्वी अफ्रीका चले गये। पूर्वी अफ्रीका से लौटने के बाद उन्होंने वे मुम्बई चले आये। देश में मोंटेसरी शिक्षा पद्धति शुरू करने में गिजुभाई की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। हालांकि शुरू से वे एक शिक्षाविद नहीं थे,उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत वकालत सेकी थी। वे हाई कोर्ट में एक वकील थे।१९१३ में बेटे के जन्म के साथ ही उनमें बच्चों के विकास एवं शिक्षा के प्रति दिलचस्पी बढ़ने लगी इसी का परिणाम था कि १९२० में उन्होंने बाल मन्दिर प्री-प्राइमरी स्कूल की स्थापना की। इसके अलावे उन्होंने बच्चों के लिये लगभग २०० कहानियों की किताबें लिखी है। बाल कहानियों को वे बच्चों से प्यार का रिश्ता जोड़ने का एक माध्यम मानते थे, वे कहते थे कि पहले आप कहानी में खुद डुबकी लगाएँ फिर इसमें बच्चों को नहलाएँ।बच्चों को कहानी पंडित की तरह न सुनाएँ, न ही कहानी को उनपर कील की तरह ठोंके या थोपें। गिजुभाई की बाल कथाओं में अधिकांशतः बच्चों की शिक्षा, यात्रा और हास्य से संबंधित विषय हैं। उनकी किताबों में गिजुभाई कहानी कहे भैया, सात पूँछों वाला चूहा,चन्दा भाई की चाँदनी, मेढक और गिलहरी माँ जाया भाई, अमवा भैया, निमवा भैया, आँखों देखी, कानी गौरेया, चबर चबर, चोर मचाये शोर,नकल बिन अकल, बर्फीली बूँद, मुनिया रानी, रंग-बिरंगी मुर्गी, सौ के साठे, एक एक कदम आगे, द टेंपल ऑन द हिल इत्यादि।
दिवा-स्वप्न उनकी सबसे बेहतर रचना मानी जाती है, जिसमें उन्होंने शिक्षण से संबंधित बारीकियों और उससे संबंधित विचारों को प्रस्तुत किया है।उन्हें मुचछाली माँ यानी मूँछों वाली माँ के नाम से भी जाना जाता है। इनकी मृत्यु गुजरात के भावनगर में २३ जून १९३९ को हुई थी।
शिक्षा परिवर्तन की सबसे प्रभावशाली प्रक्रिया है और इसकी शुरुआत प्राथमिक स्तर से हो जाती है, यह शुरुआत कैसे प्रभावी बने इसकी मिसाल थे, गिजुभाई बधेका। करीब सौ साल पहले गिजुभाई ने भारतीय शिक्षण पद्धति और शिक्षक दोनों को एक नई परिभाषा देने की कोशिश की।
गिजुभाई आरम्भ से ही समझकर पढ़ना सिखाने और लेखन की अप्रत्यक्ष तैयारी कराने के लिये चल मूलाक्षरों का साधन व्यवहार में लाने यानी कार्ड बोर्ड पर मूलाक्षर काट कर रखने रेजमाल या रेती के कागज पर काले अक्षर जिनका आकार दो -दो इंच का हो, बनाकर दो समूहों में रखने की बात करते थे।
रेखा चित्रण से लेखन शिक्षा प्रारम्भ करने को गिजुभाई ने सबसे उपयुक्त माना।उनके अनुसार उँगलियों को कलम पकड़ने का तरीका, पेंसिल पर काबू, उसे इच्छानुसार मोड़ने और आकृतियों से अक्षर आकृति तक जाने के खेल बच्चों को खेलाना, लेखन की पहली जरूरत है।
वाचन को गिजुभाई ने भाषा सीखने का सबसे अच्छा पहलू माना है। वे वाचन का सीधा रिश्ता जीवन संदर्भ से ढूँढ़ते हैं और चिट्ठी वाचन को एक महत्वपूर्ण क्रिया मानते थे। उनका मानना था कि वर्णमाला सीखने के बाद वाचन को उस मुकाम से प्रारम्भ करना चाहिये जो जीवन के सबसे निकट हो, जिसमें जिज्ञासा और उत्कंठा हो जिसके संदेश को पढ़कर बच्चा समझने के लिये लालायित हो।
सुनकर सही लिखने की आदत लेखन अभ्यास से हिज्जों या वर्तनी का सही लेखन, शुद्ध-अशुद्ध की पहचान, शब्दों का पृथक्करण, अर्थात शब्दों को अर्थ और संदर्भ के अनुसार इस तरह अलग अलग करना कि वे बोले जाने पर मधुर, कोमल, लययुक्त लगे, लय सुन्दर-लेखन जैसी क्रियाओं को गिजुभाई यांत्रिक खेलकर्म की तरह मानते थे।
गिजुभाई कविता को भाषा का सर्वाधिक आनन्दमय पक्ष मानते थे।उनका मानना था कि कविता बालक की कल्पना, लय और आनन्द का विस्तार है। स्कूलों में प्रचलित प्रार्थनाएँ और शिक्षाप्रद कविताएँ बच्चों के लिए ऊब भरी सजा है। बालोचित कविताएँ जिनसे बच्चे अपने आप खेल सके, जिन्हें अपने आप बोल सके, गा सके, उसके अन्दर का संगीत पहचानकर उसके स्वर छेड़ सकें, बालक की पहली जरूरत है।
स्कूलों और बच्चों के बारे में गिजुभाई के विचार-
हमारे स्कूलों में यदि शिक्षा से संबंधित किताबों वाली विशालकाय लाइब्रेरी न हो तो चलेगा, लेकिन अगर कोई शिक्षा से संबंधित एक भी किताब नहीं पढता है, तो यह नहीं चलेगा। यदि हमारे स्कूल आकर्षक पत्थरों या टाइल्स से न भी बने हो तो चल सकता है, लेकिन स्कूलों के प्रांगण में कोई गड्ढा हो ऐसा नहीं होना चाहिये।स्कूलों की इमारतों की दीवारें रंगी हुई न हो तो चल सकता है, लेकिन दीवारों पर धूल और कोने में मकड़ी का जाल नहीं होना चाहिये। यदि स्कूलों का फर्श कार्पेट से ढका नहीं हो तो कोई बात नहीं, लेकिन वहाँ कूड़ा-कचरा भी नहीं होना चाहिये। अगर प्रयोगशालाएँ सभी फैंसी उपकरणों से लैस न हो तो चल सकता है, लेकिन बहुत कम उपकरण हों और वे भी इस्तेमाल के लायक न हो ऐसा नहीं होना चाहिये। अगर स्कूलों में बड़े पुस्तकालय नहीं हो तो चल सकता है, लेकिन बच्चों की रुचि वाली एक भी किताबें नहीं हो, ऐसा नहीं होना चाहिये।
अगर हम महान विद्वान नहीं है तो चल सकता है, लेकिन हम अपने बच्चों को सही माहौल, सम्मान और उनके विकास को बढ़ावा देने वाला वातावरण मुहैया नहीं कराते हैं, तो ऐसा नहीं होना चाहिये अगर हम बच्चों को शिक्षा में लगातार व्यस्त नहीं रखते तो चल सकता है, लेकिन यदि हम उनकी गतिविधियों में हस्तक्षेप करते हैं या उन्हें पढ़ने के लिये जबरदस्ती करते हैं तो ऐसा नहीं होना चाहिए।
अगर हमारे बच्चे स्कूलों में थोड़ी पढ़ाई करते हैं और थोड़ा खेलते हैं तो चल सकता है, लेकिन वो हमारी निगरानी में एक मजदूर की तरह परिश्रम करते रहे ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर हमारे बच्चे देर से सीखते हैं, तो चल सकता है, लेकिन पढ़ाई के नाम से उन्हें डराना नहीं चाहिए।
अगर बच्चे हमें बताते हैं कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आया तो ठीक है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि शिक्षकों या दण्ड के डर से वे सारी बातों में हाँ कहते रहें।
ऐसी सोच वाले महान शिक्षा शास्त्री कोटिशः नमन।
हम शिक्षकों एवं अभिभावकों को उनके विचारों पर ध्यान देना चाहिये।
हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय घीवहा
फारबिसगंज(अररिया)
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