दुनिया की कोई भी माँ अपने बच्चों की न केवल जन्म दात्री होती है, बल्कि उनके लिये उसका प्रेम अलौकिक एवं ईश्वरीय होता है। इसलिये माँ को ईश्वर का सच्चा रूप कहा जाता है। दुनिया में बहुत कम ऐसी माँ हुई है जिन्होंने अपने बच्चों के अलावे भी दूसरे को अपनी ममतामयी छाँव प्रदान की। किसी से इस पूरे जगत की एक ऐसी माँ का नाम पूछा जाए जिसने बिना भेदभाव के सभी को मातृवत-स्नेह प्रदान किया तो सबकी जुबाँ पर केवल एक ही नाम आएगा-"मदर टेरेसा''। जी हाँ, मदर टेरेसा ही एक ऐसा नाम है,जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव-सेवा हेतु समर्पित कर दिया। अपनी आठ दशकीय जीवनावधि में मदर टेरेसा, नन होने के कारण आजन्म कुँवारी रहने का आदर्श और त्यागमय जीवन जी रही थी। ईसाइ सन्यासिनियों को मदर कहने के रिवाज के कारण टेरेसा भी मदर हैं, माँ हैं, पर सीमित और संकुचित अर्थों वाली वह माँ नहीं, जिनके अपनी कोख से उत्पन्न गिनती की कुछेक संतानें होती है, बल्कि मदर टेरेसा यूनिवर्सल मदर, सार्वलौकिक माँ थी। विश्व के तमाम स्त्री पुरूष, युवक -युवतियाँ, बच्चे-बूढ़े उनके बच्चे के समान थे और मदर टेरेसा उनकी ममतामयी स्नेहिल माँ थी। जितने इन्सान इस धराधाम पर आकर गुजर गये और जितने वर्त्तमान हैं तथा आने वाले दिनों में जितने आयेंगे, उत्पन्न होंगे, सबकी भूत और भविष्यलक्षी प्रभाव से टेरेसा माँ थी। विशेष रूप से अनाथ, अशक्त, परित्यक्त, बीमार, मरणासन्न-रोगी और बेसहारा लोगों की तो वे विशिष्ट , अतिविशिष्ट माँ थी।
भारत की नागरिकता स्वीकार कर, भारत के महानगर कोलकाता को कार्यक्षेत्र का केन्द्र-स्थल बनाकर मदर टेरेसा विश्व भर को अपने सेवा क्षितिज के विशाल दायरे में समाहित किये हुए रही। प्राकृतिक प्रकोपों एवं मानवीय चूकों के कारण मदर के जीवन काल में विश्व के जिस किसी कोने में घायल होकर मानव क्रंदन अथवा आर्तनाद करती थी, त्राहिमाम का पुकार लगाती थी, मदर टेरेसा वायु वेग से वहाँ जा पहुँचती थी और अपने आँचल की साया-सहारा देकर अपनी दया, करुणा, संवेदना, सहानुभूति, सेवा-सुश्रुषा की मरहम-पट्टी से उसके सभी प्रकार के दारुण दुखों से मुक्ति दिलाने की सच्चे हृदय और संकल्प निष्ठा और प्रार्थना के द्वारा उपक्रम करती थी। पीड़ित मानवता जिससे अपेक्षित राहत महसूस करती थी।मदर टेरेसा की कृपादृष्टि में जादू था। जिसे वह सच्चे मन से देख लेती थी-उसका दुःख काफूर हो जाता था,उसकी बाँछे खिल जाती थीं, जिसके सिर या शरीर के किसी हिस्से पर अपना हाथ फेर देती थी,उसका कल्याण हो जाता था। जिससे मीठे लहजे में बोल लेती थीं, उसके मन -प्राण जुड़ा जाते थे।जिसकी सेवा-सुश्रुषा अपने पावन हाथों कर देती थी । उसका जीवन धन्य हो जाता था। मदर टेरेसा की उपस्थिति में ऐसा ही चमत्कार था।अगर अंधेरे में वह खड़ी हो जाती तो अंधेरा रोशनी में परिवर्तित हो जाता।मदर टेरेसा का व्यक्तित्व सेवा की ज्योति से दीप्त था। उनका व्यक्तित्व मानवत्व नहीं देवत्त्व का प्रतीक था।
मदर टेरेसा का जन्म 27 अगस्त 1910 को एक अल्बानियाई परिवार में उस्कुव नामक स्थान में हुआ था,जो अब मेसीडोनिया गणराज्य में है।उनके बचपन का नाम एग्नेश गोनक्सा बोजकसिहाउ था। जब वे मात्र 9 वर्ष की थी, उनके पिता का देहान्त हो गया। फिर उनकी माँ ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उन्हें बचपन में पढ़ना, प्रार्थना करना और चर्च में जाना अच्छा लगता था, इसलिये सन1928 में वे आयर लैंड की संस्था"सिस्टर ऑफ लोरेटो'' में शामिल हो गई, जो सोलहवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध सन्त के नाम पर उनका नाम "टेरेसा'' रखा गया और बाद में लोगों के प्रति ममतामयी व्यवहार के कारण जब दुनिया ने उन्हें 'मदर' कहना शुरू किया तब वे "मदर टेरेसा'' के नाम प्रसिद्ध हो गई। धार्मिक जीवन की शुरुआत के बाद वे इससे संबंधित कई विदेश-यात्राओं पर गई। इसी क्रम में1929 ई की शुरुआत में वे मद्रास पहुँची। फिर उन्हें कलकत्ता में शिक्षिका बनने हेतु अध्ययन करने के लिए भेजा गया। अध्यापन का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद वे कलकत्ता के लोरेटो एटली स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगी तथा अपनी कर्तव्य निष्ठा एवं योग्यता के बल पर प्रधानाध्यापिका के पद पर प्रतिष्ठित हुई।प्रारम्भ में कलकत्ता में ही उनका निवास क्रीक लेन में था, किन्तु बाद में वे सर्कुलर रोड स्थित आवास में रहने लगी । वह आवास आज विश्वभर में "मदर हाउस'' के नाम से जाना जाता है।
अध्यापन कार्य करते हुए मदर टेरेसा को महसूस हुआ कि वे मानवता की सेवा के लिए इस पृथ्वी पर अवतरित हुई है। इसके बाद उन्होंने अपना जीवन मानव-सेवा हेतु समर्पित करने का निर्णय लिया। मदर टेरेसा किसी भी गरीब, असहाय एवं लाचार को देखकर उसकी सेवा करने के लिए तत्पर हो जाती थीं तथा आवश्यकता पड़ने पर वे बीमार एवं लाचारों की स्वयं सेवा एवं मदद करने से भी नही चुकती थीं। इसलिये उन्होंने बेसहारा लोगों के दुःख दूर करने का महान व्रत लिया। बाद में"नन''के रूप में उन्होंने मानव सेवा की शुरुआत की एवं भारत की नागरिकता भी हासिल की।
कलकत्ता को उन्होंने अपनी कार्यस्थली के रूप में चुना और निर्धनों एवं बीमार लोगों की सेवा करने के लिये 1950 ई०में "मिशनरीज ऑफ चैरिटी'' नामक संस्था की स्थापना की।इसके बाद 1952 ई०में कुष्ठ रोगियों, नशीले पदार्थों की लत के शिकार लोगों तथा दिन दुखियों की सेवा के लिये कलकत्ता में काली घाट के पास "निर्मल हृदय'' नामक संस्था बनाई। यह संस्था उनकी गतिविधियों का केन्द्र बनी। विश्व के120 से अधिक देशों में इस संस्था की कई शाखाएँ हैं, जिनके अन्तर्गत लगभग 200 विद्यालय, एक हजार से अधिक उपचार केंद्र तथा लगभग एक हजार आश्रय गृह संचालित हैं। अपने जीवन काल में उन्होंने लाखों दरिद्रों, असहायों एवं बेसहारा बच्चों और बूढ़ों को आश्रय एवं सहारा दिया।
मदर टेरेसा को उनकी मानव-सेवा के लिये विश्व के कई देशों एवं संस्थाओं ने सम्मानित किया। 1962 ई०में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया। 1973 ई०में संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें"टेम्पलटन पुरस्कार''से सम्मानित किया। 1979 ई०में उन्हें "शान्ति का नोबेल पुरस्कार'' प्रदान किया गया। 1980 में भारत सरकार ने उन्हें"भारत-रत्न''से सम्मानित किया। 1983 ई० में ब्रिटेन की महारानी द्वारा उन्हें "आर्डर ऑफ मेरिट'' प्रदान किया गया। 1992 ई०में उन्हें भारत सरकार ने"राजीव गाँधी सद्भावना पुरस्कार''से सम्मानित किया । 1993ई०में उन्हें "यूनेस्को शान्ति पुरस्कार'' प्रदान किया गया। 1962 ई०में मदर टेरेसा को "रेमन मैग्सेसे पुरस्कार'' प्राप्त हुआ।इन सब पुरस्कारों के अतिरिक्त भी उन्हें अन्य कई पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए। 5 सितम्बर 1997 को 87 वर्ष की अवस्था में कलकत्ता में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए दिसम्बर 2002 में पॉप जॉन पाल द्वितीय ने उन्हें 'धन्य' घोषित करने की स्वीकृति दी तथा 19 अक्टूबर 2003 को रोम में सम्पन्न एक समारोह में उन्हें "धन्य घोषित किया गया।वे स्वभाव से ही अत्यन्त स्नेहमयी, ममतामयी एवं करुणामयी थीं । वह ऐसी शख्सियत थीं, जो लाखों-करोड़ों वर्ष में एक बार जन्म लेते हैं। ऐसी ममतामयी माता को उनके जन्म दिवस पर कोटिशः नमन।
हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय घीवहा
फारबिसगंज(अररिया)

No comments:
Post a Comment