समय परिवर्तनशील है, युग युगांतर प्रगति प्रकृति का नियम है। तेजी से बदलती और प्रगति के पथ पर अग्रसर होती दुनिया और कदम से कदम मिलाकर चलता हमारा भारत। वाकई भारत को भविष्य के अनुसार नागरिक तैयार करने के निमित्त शिक्षा नीति में परिवर्तन समय की मांग थी।
हमारी शिक्षा नीति बदलते समय के अनुसार पुरानी पड़ गई थी और उसपर पड़ी धूल की परत को हटाकर तथा प्रौद्योगिकी को शामिल कर आवाशयकतानुसार इस नए जमाने के अनुसार शिक्षा नीति में परिवर्तन किया गया और टेक्नोलॉजी का किस प्रकार प्रयोग कर हम विश्व के मुकाबले अपने स्कूली शिक्षा के साथ-साथ विश्वविद्यालय को भी कडे़ मुकाबले के लिए तैयार करें इस निमित नई शिक्षा नीति एक बेहतर प्रयास माना जा सकता है।
नई शिक्षा नीति में वर्गों के परिपेक्ष्य में भी व्यापक बदलाव किए गए हैं। फाऊंडेशनल स्टेज, प्रिपेरटॉरी स्टेज मिडिल स्टेज और सेकेंडरी स्टेज इन चार समूहों में वर्ग को बांटा गया है, जो क्रमशः 5 वर्ष ,3 वर्ष ,3 वर्ष और चार वर्षो के लिए तैयार किया गया है। बोर्ड परीक्षाओं के लिए वर्षों का विभाजन भी नए तरीके से किया गया है।
इसी क्रम में शिक्षकों के प्रशिक्षण और तकनीकी ज्ञान से लैस करने की बातें भी शिक्षा नीति में की गई है।साथ ही शिक्षकों के प्रशिक्षण पर खर्च की जाने वाली राशि को बढ़ाने की बातें भी हुई है। दूसरी और बच्चों के शिक्षन के घंटे भी नई शिक्षा नीति तो क्या राइट टू एजुकेशन एक्ट के आने के पश्चात से ही बढ़ाया गया है।
१) वाकई इस दूरदर्शी सोच को काबिले तारीफ माना जा सकता है, परंतु इसकी सफलता के लिए सबसे पहले आधार स्तंभ तैयार नहीं किया जाना कहीं ना कहीं यह दर्शाता है कि इस राह में अभी बहुत बड़ा रोड़ा पड़ा हुआ है। शिक्षा के विकास के लिए सबसे अधिक जरूरत आधारभूत संरचना यानि वर्ग अनुरूप कमरों की संख्या और योग्य शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की है। । क्या यह बात चिंतनीय नहीं है कि क्या हमारे देश के बिहार जैसे कुछ राज्य शिक्षकों को वैसे वेतन दे पाएंगे जो उन्हें अन्य पेशे में जाने से रोक सकें । वरना शिक्षक भले ही मिल जाए ,लेकिन अगर उन्हें उचित और आकर्षक वेतन प्राप्त नहीं होगा तो योग्य शिक्षकों का मिलना बड़ा मुश्किल होगा। यह गौर फरमाने की बात है कि अगर कोई शिक्षक शिक्षक- प्रशिक्षण प्राप्त कर ,टेट और फिर बीपीएससी की परीक्षा पास करें और तब शिक्षक बने तो, उस ऊर्जा को वह अन्य लोक सेवा आयोग के पदाधिकारी स्तर के नौकरियों की ओर क्यों नहीं लगाना चाहेगा, जहां की चकाचौंध कहीं ना कहीं शिक्षा पेशा को इनफीरियर महसूस कराता हो? तो योग्य शिक्षकों के लिए आकर्षक वेतन पैकेज भी देने होंगे तभी इस नई शिक्षा नीति को सही मामले में अमली जामा पहनाया जा सकता है।
२) दूसरी बड़ी समस्या शिक्षा के क्षेत्र में अन्य विभाग के पदाधिकारी का इंटरफ्रेंस भी है। अतः इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी" अखिल भारतीय शिक्षा सेवा "संवर्ग के गठन का है जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के स्तर का होगा तभी कोई भी अन्य विभाग शिक्षकों के कार्य के बदले अन्य कार्य में उन्हें नहीं धकेलेंगे और उसे अन्य सेवा के बराबर ही महत्व देंगे। वरना BLO, जनगणना और चुनाव जैसे कार्यों को जब तक शिक्षा के ऊपर समझा जाएगा ,कोई भी शिक्षा नीति सफल नहीं हो सकेगी। तो इस तरह नई शिक्षा नीति के सफलता के लिए शिक्षा को अन्य कार्यों से पूरी तरह अलग किया जाना नितांत आवश्यक होगा।
3) अपने देश में "21 क "के तहत जब शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया गया तो समान स्कूल प्रणाली क्यों नहीं लागू की जाती है? आईसीएसई ,सीबीएसई और अन्य राज्यों के लिए अलग-अलग बोर्ड की आवश्यकता क्यों !पूरे देश के लिए एक ही बोर्ड हो। हां अलग-अलग राज्यों के लिए बोर्ड या विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय कार्यालय भले हीं हाँ, लेकिन स्कूली शिक्षा तक पढ़ाई के स्तर और किताब तो समान किया हीं जाने चाहिए, भले ही क्षेत्रीयता के अनुसार भाषा की अपनी महत्ता दी जाय ।आखिर हम गरीबों और अमीरों की शिक्षा अलग-अलग क्यों चाहते हैं?
४) अब रही बात शिक्षन् के घंटे के, कम से कम प्रिपेटरी एवं फाऊंडेशनल स्टेज के लिए विद्यालयों में शिक्षा के जो घंटे निर्धारित किए गए हैं ,उसमें कटौती की भी आवश्यकता प्रतीत होती है । वरना एक बार अगर शिक्षा बोझ बन गयी तो वह जीवनपर्यंत छात्रों को भूत बनकर डराते रहेगी। नई शिक्षा नीति में निर्धारित फाऊंडेशनल स्टेज के घंटे और प्रिपेरटॉरी स्टेज के घंटे में कटौती होने से बच्चों का कोमल बाल मन को आगे की शिक्षा के लिए स्तंभ तैयार करने के निमित्त यह नितांत आवश्यक होगा।
अरविंद कुमार
प्रधानाध्यापक
गौतम मध्य विद्यालय न्यू डिलिया
देहरी रोहतास, बिहार

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