मनुष्य के व्यक्तित्व पर सर्वाधिक प्रभाव उसके चिंतन का ही पड़ता है। मनुष्य जैसा सोचता है, उसका व्यक्तित्व वैसा ही बन जाने की दिशा में होता है।
महाभारत में महात्मा विदुर जी ने कहा है,
यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते ।
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥(उद्योगपर्व, महाभारत)
(मनुष्य जैसे लोगों की संगति में रहता है, जैसे लोगोंकी सेवा करता है और जो जैसा होना चाहता है, वह वैसा ही हो जाता है ।)
फिर,
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किम्वदन्तीह् सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत्॥(अष्टावक्र संहिता, १.११)
अर्थात् यदि हम सोचते हैं, हम बद्ध हैं तो हम बद्ध हैं, यदि सोचते हैं कि हम मुक्त हैं तो हम मुक्त हैं। यह लोकोक्ति, "जैसी जिसकी मति होती है, वैसी ही उसकी गति होती है," सत्य है।
गिरीन्द्र मोहन झा

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