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Saturday, 4 October 2025

ईश्वर में आस्था


(एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति- सत्य एक है, लोग भिन्न-भिन्न नामों से उन्हें पुकारते हैं।)

1. परमहंस योगानन्द ने कहा है, 'निर्भय रहिए और ईश्वर में आस्था के द्वारा जीवन को सुरक्षित बनाइए ।' स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, 'ईश्वर में आस्था रखते हुए कर्म करते जाओ ।'

2. श्रीमद्भगवद्गीता में शास्त्रविधि से युक्त होकर ईश्वर-उपासना की बात कही गयी है, किन्तु बिना शास्त्रविधि ईश्वर के प्रति श्रद्धा और आस्था  'स्वभावजा श्रद्धा' कहलाता है ।

3. परमात्मा का प्रेम सुख-दुख, पाप-पुण्य सबमें समान होता है, किन्तु वे किसी के प्रारब्ध में हस्तक्षेप नहीं करते हैं ।

4. आप ईश्वर को माने या न माने किन्तु जब सारे रास्ते बन्द होते हैं तो वे ही आपकी सहायता करते हैं । कोई न कोई किरण आपको अवश्य उबार लेती है ।

5. जब कुमार्गगामी जब सन्मार्ग पर चलने का निश्चय कर लेता है और चलना शुरू कर देता है, ईश्वर उनकी सहायता करते हैं, थोड़ी चोटें लगती हैं, फिर सबकुछ सही हो जाता है ।

6. ईश्वर सबको अपने कर्मों के अनुसार नचाता हुआ सबके हृदय में प्रतिष्ठित है । हम सब उनके अंश हैं- ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।। आपके भीतर प्रदत्त प्रतिभा, क्षमता, कौशल उन्हीं के द्वारा प्रदत्त होती है । यह जीवन और मानव शरीर उनके द्वारा प्रदत्त सबसे बड़ा वरदान है ।

7. दीनों, पतितों, जरूरतमंदों, शरणागतों की रक्षा व सेवा करने, घर पर आये ऋषियों, अतिथियों की सेवा करने से ईश्वर की ही सेवा होती है ।

8. शास्त्रविरुद्ध घोर आचरण द्वारा शरीर को तपाने से उन्हीं को कष्ट पहुंचता है, क्योंकि यह शरीर भी उन्हीं का अंश है । इसे हमेशा फिट रखना हमारा दायित्व है । शास्त्रसम्मत उपवास, व्रत आदि करने से शरीर को सब तरह का लाभ पहुंचता है ।

9. प्रत्येक कर्त्तव्य पवित्र है । कर्त्तव्यनिष्ठा भग्वद्पूजा का सर्वोत्कृष्ट रूप है ।(स्वामी विवेकानन्द) 

10. ईश्वर में आस्था का अर्थ है आप इच्छित लक्ष्य के लिए काफी प्रयास कर रहे हैं, वह आपको वह लक्ष्य नहीं मिला तो आप्का प्रयास आपको और भी बेहतर प्रदान करेगा ।

11. भगवन्नाम का स्मरण, स्तवन, हमारे बहुत सारे दुखों और पापों पर भारी पड़ने लगता है । थोड़ी देर ईश्वर-स्तवन आवश्यक कर्त्तव्य है ।

12. समस्त प्राणियों से प्रेम करना ईश्वर से प्रेम करना ही है । मानव सेवा माधव सेवा

13. हमारे हृदय में उपस्थित आत्मा ईश्वर का ही पवित्र अंश है । वही हम पर शासन भी करती है और हमारा मार्गदर्शन भी करती है । हमें शक्ति भी प्रदान करती है ।

योग-प्राणायाम, ईश्वर-स्तवन के द्वारा शरीर के साथ आत्मा भी पुष्ट होती है ।

14. गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, जो प्रतिक्षण अंतरात्मा से मुझे भजता है, मैं उनमें हूँ, वे मुझमें हैं ।

15. ईश्वर से भय प्रथम चरण है, ईश्वर से प्रेम, भक्ति, सेवा अन्तिम चरण है ।

16. ईश्वर में आस्था है तो उलझनों में भी रास्ता है ।

17. अपनी मातृभूमि, अपने देश के प्रति भक्ति भी ईश्वर-भक्ति का ही एक रूप है ।

18. परमपिता परमेश्वर का न कोई आदि है, न ही मध्य और न ही अन्त । वे ही आदि, वे ही स्थिति और वे ही अन्त हैं ।

19. प्रकृति और पुरुष परमपिता परमेश्वर के ही रूप हैं । जिनके मेल से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है ।

20. कबीरदास ने लिखा है, देह धरै को दंड है, सब काहु को होय । ज्ञानी भुगते ज्ञान तें, मूरख भुगते रोय ।। यदि आप कोई गलत काम करेंगे तो ज्ञानी को ज्ञान से उसका भोग भोगना पड़ता है, अज्ञानी को रोकर, क्योंकि ईश्वर किसी के कर्मफल और प्रारब्ध में हस्तक्षेप नहीं करते । ध्यान रहे, वेदान्त अपराध को स्वीकार नहीं करता, वह भूल, भ्रम और अज्ञानता को स्वीकार करता है । स्वामी विवेकानंद के कथनानुसार, 'आपके द्वारा किया गया सत्कर्म कई देवों की शक्ति लेकर आपकी सहायता करता है, किन्तु गुफा के भीतर भी किया गया दुष्कर्म चक्रवृद्धि ब्याज के साथ आपही पर टूटता है ।'

19. वे अपने भक्तों से श्रद्धा, आस्था,  सत्य पर चलने, और थोड़ा बहुत स्मरण के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहते ।

20. आप  विचारों और कार्यों से पूर्ण स्वाधीन हैं, किन्तु  अपराध कार्य, दुष्कृत्य करने पर दंड-प्राप्ति से आपको कोई नहीं बचा सकता । भगवान से आप न डरें या न डरें, किन्तु अपराध और दुष्कर्म से अवश्य डरें ।

21.स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, 'किसी मनुष्य ने चाहे एक भी दर्शनशास्त्र न पढ़ा हो, किसी प्रकार के ईश्वर में विश्वास न किया हो और न करता हो, चाहे उसने अपने जीवन भर में एक बार भी प्रार्थना न की हो, परन्तु केवल सत्कार्यों की शक्ति द्वारा उस अवस्था में पहुंच गया है,  जहाँ वह दूसरों के लिए अपना जीवन और सबकुछ उत्सर्ग करने को तैयार रहता है, तो हमें समझना चाहिए कि वह उसी लक्ष्य को पहुंच गया है, जहाँ भक्त अपनी उपासना द्वारा तथा दार्शनिक अपने ज्ञान द्वारा पहुंचता है । इस प्रकार तुम देखते हो कि ज्ञानी, कर्मी और भक्त, तीनों एक ही स्थान पर पहुंचते हैं और वह स्थान है- आत्मत्याग । लोगों के दर्शन और धर्म में कितना ही भेद क्यों न हो, जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिए अर्पित करने को उद्यत रहता है, उसके प्रति समग्र मानवता श्रद्धा और भक्ति से नत हो जाती है ।'

22. व्यक्ति चाहे घोर पतन के गर्त में हो, चाहे परमोच्च अवस्था को प्राप्त हो, किन्तु ईश्वर सबकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं । उनकी दया के मार्ग में आपकी स्थिति विघ्न नहीं बनती है ।

23. उनसे मांगने योग्य वस्तु केवल सद्बुद्धि है ।

24. जब कोई आपको नजर नहीं आता, वे ही केवल नजर आते हैं ।

25. उनके द्वारा दिया गया महान वरदान- मनुष्य जीवन व मानव शरीर, कर्तव्य व अवसरों के प्रति सतर्कता, जिज्ञासु प्रवृत्ति, अच्छे शिक्षक व मार्गदर्शक मिलना, सज्जनों, विद्वान लोगों से संगति आदि......

गिरीन्द्र मोहन झा

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