बच्चों की शिक्षा- रमेश कुमार मिश्र - Teachers of Bihar

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Sunday 14 April 2019

बच्चों की शिक्षा- रमेश कुमार मिश्र

बच्चों की शिक्षा को उनके अनुभव के स्तर से भी जोड़ने की कोशिश की जानी चाहिए ।तब आप कह सकते हैं कि इनके अनुभव इतने परिपक्व नहीं होते कि वे सही या गलत का भेद कर सकें ।यह भी सही है कि उनमें आपकी तुलना में अनुभव का अभाव है लेकिन वे अनुभव शून्य हैं या उनके अनुभव की कोई उपयोगिता नहीं है,ऐसी बात नहीं है।अगर आप ध्यान से सोचे तो आप भी महसूस करेंगे कि उनके अनुभव की भी प्रासंगिकता है और वे पूर्णतः नकारे नहीं ना सकते ।मान लीजिये आपने किन्हीं  दो बच्चों से पूछा कि राम कौन थे?तो एक ने जबाब दिया अयोध्या के राजा और दूसरे ने उत्तर दिया:-मेरे घर के बगल में रहने वाले चाचा जी ।हम दूसरे बच्चे का उपहास उड़ाते हैं ।अब जरा गौर से सोचिये दूसरे ने जो देखा वह बताया।और हमने बिना कुछ सोचे -समझे ही उसका उपहास उड़ा दिया तो बेचारा मासूम यह समझ भी न सका कि आखिर उसका कसूर क्या था ।उसने गलत क्या कहा? उसने तो जो देखा वह कहा और हमारी(शिक्षकों) दृष्टि ने प्रत्यक्ष दर्शन को नकार दिया और अयोध्या के राजा राम को अपने उत्तर के रूप में सहेजकर हम अतिप्रसन्न हो गए।प्रत्यक्ष दर्शन फलीभूत होकर अप्रत्यक्ष दर्शन का रुप धारण करने में समर्थ हो सकता है ।दोनों उत्तरों की सार्थकता शिक्षकों को ढूंढ़नी होगी ।मैंने पहले भी कहा है कि उत्तर का गलत लिखना बच्चों में  ज्ञान का अभाव नहीं वरन ज्ञान की क्रमबद्धता तथा उसके उचित स्थापन का अभाव है ।
आप उत्तर के रूप में जो चाहें वही मिले ऐसा कभी नहीं हो सकता और ऐसी आशा करना भी मेरे विचार में विवेकहीनता है ।हमें उत्तर अगर संदर्भित चाहिए तो इसका खाका बच्चों के सामने खीचिए तत्पश्चात ऐसी अभिलाषा कीजिये।तात्पर्य यह कि उनके अनुभव को अपने अनुभव से सहारा दीजिये न कि उनके अनुभव का उपहास उड़ाइये और अपना अनुभव उनपर थोपिए ।आपने देखा होगा किस प्रकार एक राज मिस्री साहुल के सहारे दीवार को सीधा खड़ा करने की कोशिश करता है,ईंट को हिलाता-डुलता उन्हें उचित स्थान देता है न कि ईंट को ही फेंक देता है ।आप उनके ज्ञान को उनके अनुभवों से जोड़ते हुए अपने अनुभव से जोड़िये ।उनके अर्जित ज्ञान की भी प्रासांगिकता समझिये और यह काम आपको ही करना होगा।बाल मन की पहुँच भला आपतक कैसे हो सकती है ।
बच्चे सीखने के क्रम में अतिउत्साहित होते हैं और वे जो भी अनुभव करते हैं ,उसे तुरंत साझा करना चाहते हैं।उनकी पवित्र प्रकृति उन्हें ऐसा करने को बाध्य करती है ।इसी क्रम में बच्चे कुछ ऐसे तथ्य का इस्तेमाल कर जाते हैं जिसे सामाजिकता के रूप में प्रतिष्ठित नहीं माना जाता । तब शिक्षक परिस्थिति का ध्यान नहीं करते वरन अपने ही स्तर की बुद्धि की खोज उस बच्चे में भी करने लगते हैं और उन्हें प्रताड़ित करते हैं ।ऐसी अवस्था में संवेदनशीलता एवं धैर्य की आवश्यकता है। इसमें उस निरपराध मासूम का क्या दोष।उसने जो सुना उसे व्यक्त किया । मैं शिक्षकों से बराबर सुनता हूँ कि बच्चे गलत माहौल ने रहने के कारण गाली देते हैं ।उनमें संस्कार का अभाव है।संस्कारहीनता का संबंध गाली से कैसे है,यह तो विचारणीय प्रश्न है।गाली देने का रिवाज हमारे विवाहोत्सव में है।तो क्या हमारी हिन्दू संस्कृति विवाह में संस्कारहीनता परोसती है?तो क्या बच्चों को विवाह में न ले जाया जाए क्योंकि वहां जाने से उनके गाली सीखने की संभावना बनी रहेगी?बड़ी आश्चर्यजनक बात है ।वाचिक स्थापन के विभेद को न समझकर उसे संस्कारहीनता की उपमा देना मुझे कहीं से भी न्यायसंगत नहीं लगता।यह तो शिक्षकों का दायित्व है कि वे बच्चों को स्थान परिवर्तन से अर्थ और भाव परिवर्तन की जानकारी दें ।

रमेश कुमार मिश्र
शिक्षक
भारती मध्य विद्यालय,लोहियानगर,कंकड़बाग, पटना

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