बालमन की समझ-रंजीत रविदास(शिक्षक) - Teachers of Bihar

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Sunday 14 April 2019

बालमन की समझ-रंजीत रविदास(शिक्षक)

बालमन की समझ-रंजीत रविदास(शिक्षक)
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                  एक शिक्षक के रूप में मेरा ऐसा मानना है कि बच्चों के मनोभाव को समझे बिना हम उनके सीखने में उतना सहायक सिद्ध नहीं हो सकते है,जितना होना चाहिए।
वैसे तो बच्चों को समझने के लिए शिक्षकों को कई बिन्दुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। जिनमें से कुछ प्रमुख बिन्दुएँ  है-

वातावरण -  पढने-लिखने की इस प्रक्रिया में वो ही बच्चे सफल होते हैं जो अपना अधिकतम ध्यान केन्द्रित कर सके। यह तभी संभव होगा जबकि इसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार हो सके। अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए सबसे पहले शिक्षक को बच्चे के अंदर झांककर देखना होगा ,उनकी रुचियों तथा क्षमताओं को जानना होगा उनकी इच्छानुसार शिक्षक को तैयार करना होगा। इस प्रकार के वातावरण का सृजन करने के लिए शिक्षक को काफी मेहनत करनी होगी। आमतौर पर एक शिक्षक जितनी मेहनत अपने कक्षा-कक्ष में करते है। उसके परिणाम उतने सकारात्मक नही मिलते और शिक्षक की मेहनत बेकार सी जाती है। इसका कारण यही है कि किसी बिषय को पढाने से पूर्व उसके लिए उचित वातावरण तैयार नहीं हो पाता है और हम एकतरफा मेहनत करते है।
रूचि-  यदि हम  बच्चों को समझते है ,उनकी इच्छाओं  भावनाओं तथा रुचियों को जानते है तो निश्चित रूप से हम जो क्रियाकलाप उनके साथ करते है वो उनके अनुकूल होते है। इन परिस्थितियों में बच्चे हमारी बातों को  समझतें है। फिर हमारे सामने यह सार्वजनिक समस्या नही आती है कि बच्चे कक्षा में समझ ही नहीं पाते। इस प्रकार अनुकूल वातावरण तैयार करके हम सिखने सिखाने में आने वाली सारी बाधाओं पर पार प् लेते है। एक आम शिक्षक कक्षा कक्ष में अपने बच्चों के साथ कम करता ही है। ऐसा तो नहीं की वह व्यर्थ में समय गंवाता है। परन्तु उनकी मेहनत शायद इसी कारण से सफल नही हो पाती कि बच्चों की सहभागिता जब तक नही होगी;बच्चे जब तक स्वंय पाठ्यवस्तु को सिखने के लिए तैयार नही होते,शिक्षक की मेहनत रंग नहीं ला सकता है।
अभिव्यक्ति-  हर व्यक्ति अपने आपको अलग ढंग से अभिव्यक्त करता है।अभिव्यक्ति के विभिन्न ढंग उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते है।मात्र अक्षर ज्ञान अथवा गणित का लेख जोखा शिक्षा का उधेश्य नहीं है।उचित ढंग से अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास शिक्षा द्वारा ही संभव है।आपको विद्यालय में कई  ऐसे विद्यार्थी स्म्देखने को मिलेंगे ।जिन से आप लिखित परीक्षा ले तो वो सही सही उत्तर देंगे। लेकिन उनसे आप कुछ सुनाने को कहें तो वो एकदम चुप रह जाते है। यह एक कमी अभिव्यक्ति का आभाव है। हमें विद्यार्थी को स्वभावानुसार बिचारों की अभिव्यकि हेतु प्रेरित करना चाहिए।विद्यार्थी अन्तर्मुखी हो तो कोशिश होनी चाहिए की अधिक मुखरित होकर स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित हो। यदि वह बहिर्मुखी है तो उसमे यह विवेक जागृत करना है वह अपने आपको कहाँ और कैसे अभिव्यक्त करे। शिक्षक को ऐसे बच्चो को भरपूर बोलने का अवसर देना चाहिए।
संशय,झिझक और भय-   बच्चे स्वाभाव से निडर और जिज्ञासु होते है।किसी भी नये कार्य को करने में हिचकते नही परन्तु उम्र बढ़ने के साथ साथ उनमें संकोच,झिझक और भय पनपने लगता है।मुझे अच्चा लगता है कि हमेन अपनी कक्षाओं में समय समय पर कुछ ऐसे गतिविधिया या क्रियाकलाप करते रहना चाहिए जी विद्यार्थी में संकोच न पनपने दे।

आत्मविश्वास-    कई बच्चे ऐसे होते है जो सोचते है कोई बात बोले या न बोलें,कहीं गलत तो नही हो जायेगा। परीक्षा में नकरात्मक परिणाम के बाद उनके आत्मविश्वास में लगातार कमी आने लगता है। बतौर शिक्षक यह जरुरी है कि हम बच्चों की मदद करें जिससे वे अपनी बात खुलकर ख सके चाहे वह गलत हो या सही। गलत को सही करने के मौके उसे जीवन में मिल जायेंगे। परन्तु यदि उनका आत्मविश्वास चला गया तो उसे दोबारा जगाना बड़ा मुश्किल हो जायेगा।

(आर्थिक बिषमताए-  ईश्वर ने सभी बच्चों को बराबर बनाया है। बच्चा 6साल की उम्र में विद्यालय आता है। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके अभिभावक बनें और शिक्षक भी ।आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चे का नियमित रूप से विद्यालय आना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। छोटे छोटे लाभ के लिए वे विद्यालय से विमुख होने को मजबूर होते है। कई बच्चे दोपहर को ही विद्यालय से भाग जाते है। उनकी समस्या यह होती है कि खेत में काम कर रहे अपने माता पिता के लिए कलेवा(दोपहर का भोजन) ले जाते है और कम में भी हाथ बंटाते है। कई बच्चियां परात भर रोटी बना कर विद्यालय आती है। ऐसे विद्यार्थी पढ़ाई में पिछड़ जाते है,क्योंकि पाठ्य वस्तु अपने समयानुसार बढ़ते रहते है। इससे उन बच्चों में विद्यालय के प्रति अरुचि पनपती है। शिक्षकों को ऐसे बच्चों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे उसकी रूचि में लगातार बढ़ोत्तरी हो।
विषय-वस्तु की समझ-  उच्च माध्यमिक पास करने के बाद भी बच्चा इस लायक नहीं हो पाता है कि वह विषय वस्तु पर अपनी समझ बना सके। वह किसी विषय पर उतना ही बोल और लिख पाता है जितना उसने कहीं पढ़ा या रटा है । उसके अपने स्वयं के विचार इस अवस्था में विकसित नहीं हो पाते है। इसका सीधा सा तात्पर्य यही है कि बच्चे अपने सिमित दायरे में ही विकसित हो रहे है। हमने उन्हें उनके संसार  से परिचित नहीं कराया और जब तक वे अपने स्वयं के संसार में विचरण नहीं करते उसे कैसे समझ सकते है। उसे समझने के लिए उन्हें पहले हमे पूरा दर्शन कराना होगा।
शिक्षक को स्वयं के विवेक का प्रयोग करते हुए बच्चों को उसके संसार से परिचित कराने के लिए बच्चों को अधिक से अधिक करने  के अवसर प्रदान करना चाहिए। किसी विषय वस्तु पर बच्चे के स्वंय की समझ विकसित करें। ऐसा जरूरी नहीं की यह सब उच्च तकनीक से ही संभव है। बच्चे के लिए तो उसके आसपास ही बहुत कुछ है। उसका संसार तो उसके आसपास बसा है,जहाँ उसका पूरा समय व्यतीत होता है। इस ओर कई शिक्षक प्रयास भी कर रहे है उसी परिवेश से बच्चे कुछ सीख रहे है। बच्चों के संसार के लिए जरुरी नहीं कि उन्हें देशाटन कराया जाय। इसी बात को ध्यान में रखकर कई निष्ठावान,कर्मठ तथा लगनशील शिक्षक बच्चों की प्रतिभा को निखार रहे है। स्वेच्छा से बच्चे अपने परिवेश में वे सब खोजते है जिन्हें हम जबरदस्ती उनपर थोपना चाहते है। स्वयं की चाह में जब बच्चे रूचि लेकर काम करते है तो उन्हें स्थायी ज्ञान की प्राप्ति होती है इसमें बच्चों को महसूस नहीं होता कि कुछ सीख भी रहे है।

                               निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि विद्यालयों में प्रत्येक कक्षा के लिए पर्याप्त मात्रा में शिक्षक उपलब्ध नहीं होते है ऐसे में दिवार पत्रिका शिक्षण के लिए बहुत अच्छा माध्यम है।शिक्षक के बिना भी बच्चे इससे व्यस्त रहते है।उनमे खोजने की प्रवृति बढती है। शिक्षकों का दायित्व बच्चों में विद्यमान क्षमताओं की पहचान करते हुए उनका विकास करना है।यदि वे ऐसा कर पा रहे है तो उनकी सफलता है।सफलता के लिए जरुरी नहीं की कोई प्रमाणपत्र मिले।
                             शिक्षकों का सीना गर्व से तब चौड़ा होता है जब उनके छात्र सफलता की बुलंदियों को छूते है।यह उनकी सफलता है। संसाधनों की कमी का रोना यदि हम रोते रहेंगे तो शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आती रहेगी।हमें तो बस समस्याओं से जूझते हुए बच्चों के सुखद भविष्य के लिए काम करना है।यह काम उन बच्चों को सोचे समझे बिना असंभव है।सरकारी व्यवस्था में हमेशा से मानकों की अनदेखी होती रही है।भविष्य में भी किसी चमत्कार की आशा निरर्थक है।हमारे पास जो भी संसाधन उपलब्ध है। उसका उपयोग करते हुए नौनिहालों के सुखद एवं उज्ज्वल भविष्य हेतु स्वयं को समर्पित करना है।तभी हम विद्यालय को सफल बना सकते है।

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