अभिव्यक्ति के निमित्त भाषा की उपयोगिता और शिक्षकों के दायित्व - मनीष कुमार (शिक्षक) - Teachers of Bihar

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Sunday 14 April 2019

अभिव्यक्ति के निमित्त भाषा की उपयोगिता और शिक्षकों के दायित्व - मनीष कुमार (शिक्षक)

हाल में ही मेरे एक शिक्षक मित्र ने यह प्रश्न किया था कि परीक्षा की प्रणाली मुझे बचपन से लेकर अब तक असहज करती है।क्या यह कहना सही नही होगा कि हम सभी विषयों की परीक्षा या मूल्यांकन भाषाई अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं?चाहे वह विस्दिहै गणित ही क्यों न हो? भाषाई स्तर पर छात्र परीक्षक को संतुष्ट नही कर पाता या अपने विचार अभिव्यक्त नही कर पाता तो क्या उसे फेल कर देना उचित होगा?हो सकता है ज्ञान के स्तर पर वह व्यवहारिक रूप से कुशल हो।या किसी क्षेत्र विशेष में विशिष्ट हो।बातें तो मुझे भी अकाट्य लगी।पर जब इस संदर्भ में सोचने बैठा तो मुझे विकल्प नज़र नही आया।आखिरकार भविष्य में भी जब उसे अपनी बात कहनी हो या परिमार्जित रूप से पेश करनी हो तो वह करेगा क्या?सम्प्रेषण के लिए भाषा तो अनिवार्य अंग है।चाहे वह अच्छा संगीतकार ही क्यों न बने सफल होने के लिए भाषाई पकड़ तो उसमें और गहरी रखने की जरूरत है। गणित के सवालों को हम उससे पूछने के और क्या तरीके अपना सकते हैं?जब तक उसकी भाषाई अभिव्यक्ति कामचलाऊ भी नही होगी तो वह अपनी बात दूसरों तक पहुँचाएगा कैसे?
           अब रही विद्यालयों में समुदाय,शिक्षक और छात्र के भाषाई रिश्ते की बात।तो वहां भी कहीं कहीं पर एक निर्वात सा उत्पन्न हो जाता है।बच्चे की भाषाई अभिव्यक्ति का सिरा ही बड़े कमजोर नींव पर खड़ा किया जा रहा है।बहुतों कारण है।जैसे शिक्षकों की गुणवत्ता,उनका शैक्षणिक स्तर,उनकी सोच,छात्रों की घरेलू भाषा,समुदाय की भाषा,बच्चों के सीखने का स्तर,भाषाई विविधता आदि।पर मैं इस बात को प्रमुखता देना पसंद करूंगा कि शिक्षक की अपनी शैक्षणिक सोच क्या है।यदि भाषाई स्तर पर वे खुद को वर्ग में स्थापित नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें सामंजस्य के अन्य विकल्पों की तलाश करनी चाहिए।उन्हें अपने प्रयासों में असर पैदा करने के औजार को धारदार बनाने में कहां खुद पर काम करने की जरूरत है यह सोचना होगा।नही तो उनके अस्तित्व पर संकट आ सकता है।क्योंकि मनुष्य की उपयोगिता उसके सिद्ध होने में ही निहीत है।पर अफसोस कि शिक्षक का एक वर्ग अब इन सब बातों पर सुक्ष्म दृष्टि नही देना चाहता।शिक्षक महज एक नौकरी,पदनाम नही बल्कि राष्ट्रीय दायित्व है,सेवा है।
                 राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण और सीखने के प्रतिफल या अधिगम प्रतिफल पर हुई राज्य स्तरीय,जिला स्तरीय,प्रखंड स्तरीय कार्यशाला के बाद वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बिहार के शिक्षकों ने इसे गंभीरता से समझा है।सर्वेक्षण के आंकड़े सोचने पर मजबूर करते हैं।भाषाई पकड़ पर नीचे से काम करने की आवश्यकता है।पर जो तरीके है उनपर गहराई से अध्ययन,मंथन और सम्प्रेषण करना होगा।वरना आने वाले दिनों में कहीं बच्चे देखकर पढ़ने में भी कठिनाई महसूस करेंगे तो अभिव्यक्ति के अवसर पर भी ग्रहण लग सकता है।
                 मेरे कुछ मित्र ये भी कह रहे थे कि निरंतर प्रयोगों ने सीखने के अवसर पर कुठाराघात किया है या कहें एक अवरोध सा उत्पन्न कर दिया है।पर ये बात भी उतनी सहजता से गले नही उतरती।सीखने के तरीकों को रुचिकर,और सरल बनाया गया है।इतना जरूर है कि उन प्रयोगों को शिक्षकों द्वारा उतनी आत्मीयता के साथ आत्मसात नहीं किया गया है।इसका एक कारण हमारे सीखने का अलग कारण हो सकता है।
               बिहार के कई जिलों के विद्यालयों की गतिविधियां जब "टीचर्स ऑफ बिहार द चेंजमेकर्स" के माध्यम से फेसबुक पर देखता हूँ तो कई विद्यालयों के बच्चों की भाषाई अभिव्यक्ति देखकर मन खुश हो जाता है।संतोष होता है कि जहां शिक्षकों के सद्प्रयास जारी हैं वहां प्रतिफल अच्छा है।अर्थात हमें इस दिशा में अभी और काम करने की आवश्यकता है।उनसे प्रेरणा मिलती है।इस मंच ने एक खुली और स्वस्थ प्रतियोगिता को जन्म देने का काम किया है।
           भाषा का स्वस्थ होना इसलिए भी जरूरी है कि सभी विषयों को जानने के लिए हमे पढ़ना-लिखना सीखना ही होगा वरना अभिव्यक्ति की पकड़ कमजोर हो जाएगी।क्योंकि अभिव्यक्ति को भाषा की जरूरत तो अनिवार्य रूप से पड़ती ही है।चाहे वे बोलकर ही क्यों न अपनी बात कहें।दसवीं कक्षा तक तो ये अनिवार्य है।वरना आप इतने बच्चों के ज्ञान का मूल्यांकन और कैसे करेंगे? ये मेरे अपने निजी विचार हैं।हो सकता है आप कहीं पर असहमत भी हों।सुझाव सादर आमंत्रित है।
मनीष कुमार राय, प्रभारी प्रधानाध्यापक,मध्य विद्यालय सिमरिया,प्रखंड-कसबा,जिला-पूर्णियाँ।

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