बच्चों में उत्साह और आनंद पहुंचाने का अवसर ढूंढिए ।उन्हें अपने से जोड़ने का प्रयास कीजिये ।उनमें आत्मीय भाव विकसित कीजिये और यह तभी संभव हो सकता है जब आप स्वयं के प्रति जिम्मेवार और ईमानदार हों ।आप सोच रहे होंगे कि मैंने क्यों कहा कि शिक्षक को स्वयं के प्रति जिम्मेवार और ईमानदार होना चाहिए ।कहा तो ये जाता है कि हमें बच्चों के प्रति जिम्मेवार और ईमानदार होना चाहिए लेकिन मेरा मत थोड़ा भिन्न है ।मुझे ऐसा लगता है कि स्व से होकर पर गमन ज्यादा लाभकारी है ।तात्पर्य यह कि पहले हमें अपना कर्तव्यबोध होना चाहिए तत्पश्चात इसके ब्याज से ही बच्चों का उद्देश्य पूरा जो जाएगा।कर्तव्यबोध व्यक्ति को समग्रता की ओर ले जाता है ।कर्तव्यबोध से ही तो उद्देश्य पनपता है ।ऐसे भी शिक्षण कभी पूर्णतः पेशा या व्यवसाय नहीं हो सकता ।शिक्षण तो धर्म है,संस्कार है।इसे तो समय और समाज सापेक्ष होना चाहिये।मैंने पहले ब्लॉग में लिखा है कि ज्ञान का संपूर्णता को प्राप्त कर लेना इतना सहज नहीं है।सच तो यह है कि यह संपूर्णता तो पूर्णतः प्राप्त कर ही नहीं सकता क्योंकि यह विषय,समाज और समय सापेक्ष होता है और इनके बदलाव से ज्ञान के स्तर में बदलाव की संभावना भी बनी रहेगी और बनी रहनी भी चाहिये तभी तो उच्च से उच्चतर और फिर उच्चतम पाने की आशा बनी रहेगी ।
मुझे तो यह लगता है कि कुछ आधारभूत रचनाओं को तो हम जरूर बच्चे को सिखाते हैं लेकिन हर विषय-वस्तु को सिखाया भी नहीं जा सकता।बच्चा उधेड़बुन में ही सही,निर्माण में लगा रहता है और एक नई सृष्टि का सृजन भी करता रहता है और स्वतः आनंदभोग भी करता है।बच्चे तो कम उम्र से ही सृजन में लग जाते हैं चाहे हम उन्हें तवज्जो दें या न दें।वे उसके परिणाम का अपने स्तर से आकलन भी करते हैं।यह तो शैक्षणिक तप है और भले ही हमें उनके निर्माण का परिणाम आभासी लगे पर वह आभासी नहीं हो सकता ।उनके ज्ञान में क्रमबद्धता भले न दिखे लेकिन तात्कालिक सामाजिक,सामयिक अवस्थानुसार ज्ञान के पुट जरूर दिखलाई देंगे ।
बच्चे कम उम्र से ही सीखना शुरू कर देते हैं ।हर विषय-वस्तु को जानने की उनकी यह ललक उन्हें सीखने की ओर प्रवृत करती है और उनका यह सिलसिला हमेशा जारी रहता है।उत्तर का गलत लिखना मेरे विचार में बच्चों के ज्ञान का आभाव नहीं बल्कि ज्ञान की क्रमबद्धता और उसके उचित स्थापन का अभाव है और इसके लिये बच्चों को सजा देना कहीं न्यायोचित नहीं है क्योंकि किसी विषय/वस्तु पर विचार एक झटके में नहीं बन जाते ।समझ तो धीरे-धीरे विकसित होती है ।बच्चों के विचार को एकसिरे से खारिज करना उन्हें सजा देना ही है ।उन्हें उत्साहित किया जाना चाहिए ताकि वे स्वयं को अयोग्य न मान बैठें और निराशा तथा हतोत्साह का भाव उनके मन मे न घर कर जाए ।बच्चों के उसी ज्ञान का सम्मान कीजिये जो उनके पास है ।उनकी कर्मठता तथा जुझारूपन की तारीफ कीजिये तभी तो वे उत्साहित होंगे और फिर सुदृढ़ वैचारिक भूभाग का निर्माण करेंगे।
रमेश कुमार मिश्र
(शिक्षक)
भारती मध्य विद्यालय,लोहियानगर, कंकड़बाग,पटना,बिहार
बिल्कुल सही परख!
ReplyDeleteविजय सिंह
सुन्दर,सटीक,अनुकरणीय और प्रशंसनीय।
ReplyDeleteBahut hi sundr
ReplyDeleteBahut hi sundr
ReplyDeleteGreat sir
ReplyDeleteRajeev Ranjan singh Great sir bahut achchha
ReplyDelete👍🏼👍🏼👌🏻
ReplyDeleteयह आलेख वास्तविकता से इतर नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि बाल मन का स्वभाव एवं उनकी कार्य करने की प्रकृति सहज,सरल एवं उत्साह आधारित ही होती है,किन्तु उनकी यह सहजता एवं सरलता मूर्तरूप तभी ले पाती है जब उन्हें उत्साहवर्द्धन हेतु ईमानदार,सेवाभाव से परिपूर्ण कर्तव्यनिष्ठ एक सच्चे मार्गदर्शक का सानिध्य प्राप्त होता है।
आज के इस व्यवसायिक युग में ऐसे कर्तव्यबोध एवं समृद्ध सद्गुणों से अच्छादित शिक्षकों का सानिध्य महज़ सौभाग्य एवं संयोगकल्पित माने तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी,किन्तु यदि हम सिर्फ एक शिक्षक होने के नाते केवल शिक्षक के रूप में ही बच्चों के बीच स्वयं को प्रतिबिंबित करें तो बदलाव तो निश्चित है।
वो कहते हैं न कि *पंखों से नहीं हौसलों से उड़ान होती है* और हौसला के लिए उत्साह तथा उत्साहवर्द्धन के लिए कर्तव्यबोध से युक्त शिक्षक अपरिहार्य है।
अतः हमलोगों को चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में अपने कर्तव्यों से समझौता न करें तथा शिक्षा के प्रासंगिकता को समझते हुए बच्चों में ज्ञान के बीज बोने का काम करते रहें।
धन्यवाद!