शिक्षकों की दशा और दिशा- विमल कुमार विनोद - Teachers of Bihar

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Sunday 29 December 2019

शिक्षकों की दशा और दिशा- विमल कुमार विनोद

"शिक्षकों की दशा और दिशा"
     प्रकृति तथा पर्यावरण के विकास का एक मूल विषय है-शिक्षा। शिक्षा ही वह चीज है जो मनुष्यों के विकास के मूल में है। बाल विकास मनोविज्ञान के अंतर्गत जन्म के बाद से ही बच्चों के विकास में माता-पिता,परिवार,समाज, विद्यालय तथा शिक्षक की अहम भूमिका होती है।
            शिक्षक जो कि समाज का एक प्रमुख अंग है ,जिसके कंधों पर देश के विकास का सारा दारोमदार है,लेकिन आज समाज तथा सरकार का शिक्षक के प्रति उदासीनता का भाव देखने को मिलता है जो कि आज के समय की बहुत बड़ी समस्या के रूप में उभरकर सामने आ रही है।अपने आप में मैं भी एक शिक्षक होने के बाबजूद इससे संबंधित बातों का अध्ययन करने का प्रयास किया हूँ जो कि मेरी लेखनी के द्वारा प्रस्तुत है-

(1)सामाजिक और पारिवारिक लगाव का कमजोर होना- पहले शिक्षक समाज में लोगों के घर पर जाकर समाज के लोगों से मिलकर उसके साथ पारिवारिक संबंध बनाने का प्रयास करते थे।इससे समाज के लोगों तथा शिक्षक के बीच एक पहचान बनती थी,जो कि आज के समय में देखने को नहीं मिलती है। साथ ही विद्यालय में अभिभावक-शिक्षक गोष्ठी के नहीं होने के कारण भी शिक्षकों के संबंध में समाज के लोगों की उदासीनता देखने को मिलती है।

(2)परिवार के सदस्यों का ज्यादा महत्वाकांक्षी होना-प्रत्येक मनुष्य का एक प्रमुख गुण होता है अपने आप में महत्वाकांक्षी होना।लेकिन सवाल यह उठता है कि हमें उतना ही ख्वाब देखना चाहिए जितना संभव हो सके।अपनी आय से अधिक खर्च करने के चलते लोग अपना काम छोड़कर दूसरे चीज की ओर अधिक ध्यान देने लगते है,जिसके चलते अपने मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं।

(3)इच्छा शक्ति की कमी- प्रत्येक व्यक्ति प्रति सुबह सोचता है कि मेरा बच्चा पढ़ता,कोई उसे अच्छी तरह पढ़ाता,वह आगे तरक्की करता ।लेकिन बहुत दुर्भाग्य की बात है कि जब वह स्वंय विद्यालय जाता है तो उसमें अपने कार्य के प्रति इच्छा शक्ति की कमी देखने को मिलती है।वह विद्यालय में अपने समय को अन्य 
घर के बातों में उलझा कर रखना पसंद करता है ,लेकिन वर्ग कक्ष में जाने के नाम पर इच्छा शक्ति में कमी देखने को मिलती है।चूँकि सम्मान कटोरे में मांगने की भीख नहीं होती है जो आपको मिल जायेगी,बल्कि यह आपके मेहनत का प्रतिफल होता है।यदि आप विद्यालय में जाकर बच्चों को शिक्षा देने हेतु मेहनत करेंगे तो आपको सम्मान अवश्य मिलेगी।

(4)अपने पद से संतुष्ट न होना-बहुत सारे शिक्षकों के मन में यह धारणा घर कर गई है कि उसके मन के मुताबिक पद नहीं मिल पाया,जो कि गलत अवधारणा है।क्योंकि शिक्षक का पद एक सम्मानित पद है,जिसका सफल संचालन करके तो देखिये,कितनी मर्यादा और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

(5)विद्यालय की किसी समस्या के लिये दूसरों को उत्तरदायी बनाना-हम शिक्षकों की यह आदत सी बन गई है कि विद्यालय की किसी भी समस्या के लिये एक दूसरे को दोषी ठहराने का प्रयास करना।आप किसी भी कमी का ठीकरा चौक-चौराहे पर खड़ा होकर दूसरे के माथे में मढ़ने की कोशिश करते हैं,कभी आपने स्वंय अपनी विद्यालय की तरक्की करने की बात सोची है? आज के समय में भी ऐसा देखा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अध्ययन करने आने वाले बच्चों की कमी नहीं हैं,उनमें आज भी काफी उत्साह है,सिर्फ कमी है  मेरे जैसे शिक्षक में,जो कि निश्चित रूप से समाज के लोगों तथा प्रशासनिक तंत्र  का शिक्षक के प्रति उदासीनता का एक प्रमुख कारण है।

(6)शिक्षकों का व्यक्तिवादी होना-राजनीति शास्त्र के चिंतक हॉब्स का मानना है कि"सभी मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी होते हैं,जो कि सच्चाई भी है।लेकिन सवाल यह उठता है कि हम तो एक शिक्षक है और विद्यालय में बच्चों को शिक्षा देने के समय हमारे मन में व्यक्तिवादी भावना से उपर उठकर विश्व शिक्षा के लिए सोच विकसित करना जरूरी है,क्योंकि
जिस तरह हम किसी शिक्षक से उम्मीद करते हैं कि वह हमारे बच्चों को अच्छी शिक्षा देगा,आपसे भी समाज के अविभावक यह अपेक्षा करते हैं, जिसपर आपको खरा उतरना चाहिये।

(7)चेतना शक्ति की कमी-शिक्षकों के मन के अंदर अपने काम के प्रति रूचि की कमी देखने को मिलती है।उनको यह पता ही नहीं चल पाता है कि उसे क्या करना चाहिए,क्या नहीं?शिक्षकों के बीच चेतना शक्ति का विकास कराने के लिये कार्यशाला का आयोजन किया जाना चाहिये।
  किसी भी विद्यालय का विकास तथा शिक्षा व्यवस्था में सुधार मुख्य रूप से विद्यालय प्रधान के चारों ओर घूमता रहता है,क्योंकि जब विद्यालय प्रधान ससमय विद्यालय आकर सारी गतिविधियों का आकलन तथा पर्यवेक्षण करने की कोशिश करेंगे तो फिर  पूरा विद्यालय प्रशासन मुस्तैदी के साथ अपने कार्य को करने में ध्यान देगा। वर्तमान समय में जहाँ एक ओर अविभावक अपने बच्चे-बच्चियों को निजी विद्यालय में नामांकन कराने के लिये आतुर रहते हैं,वैसी परिस्थिति में कुछ विद्यालय जिसमें-
(क)मध्य विद्यालय नंदनी,समस्तीपुर।
(ख)उ. मध्य विद्यालय रहीमापुर,वैशाली,
(ग)मध्य विद्यालय कमलपुर,अररिया
(घ)प्राथमिक विद्यालय नेपालगढ़,कालोनी, किशनगंज
(ङ)प्राथमिक विद्यालय छुरछुरिया, अररिया
(च) उत्क्रमित मध्य विद्यालय पोखरपुर,नालंदा
(छ) उत्क्रमित मध्य विद्यालय दौलतपुर, बेगूसराय,इत्यादि।
यह तो एक उदाहरण है इन जैसे विद्यालयों की सूची काफी लंबी है जिसे अगर मैं लिखने लगूंगा तो यह सूची खत्म नहीं होगी। इन सारे विद्यालयों में विद्यालय प्रधान ने अपने विद्यालय के विकास के लिये स्वंय अपने शिक्षकों को मनोगत्यात्मक रूप से उत्प्रेरित करने का प्रयास किया जिसके कारण आज सरकार तथा समाज के लोगों का ध्यान उस ओर गया तथा समाज के द्वारा भी विद्यालय के विकास में सहयोग किया जा रहा है।
         मैं भी एक विद्यालय प्रधान के रूप में पदभार ग्रहण करने के बाद से विद्यालय की व्यवस्था में परिवर्तन करने का प्रयास कर रहा हूँ।मुझे अपने आप में आत्म विश्वास है कि अगर विद्यालय प्रधान अपने विवेक तथा विद्यालय परिवार से तालमेल करके विद्यालय का विकास करना चाहे तो निश्चित रूप से शिक्षा तथा शिक्षकों की दशा और दिशा दोनों में सुधार तथा परिवर्तन आयेगा।
श्री विमल कुमार 'विनोद '
प्रभारी प्रधानाध्यापक,राज्य
संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा बांका


9 comments:

  1. Nice thinking....👌👌👍

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  2. Nice thinking....👌👌👍

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  3. उपरोक्त सभी बिन्दुओं पर ध्यान देने से हीं हमारी दिशा और दशा दोनों में सूधार हो सकती है।
    विजय सिंह

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  4. बेहद सटीक और आवश्यक विश्लेषण। धन्यवाद् आपका।

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