Monday 17 February 2020
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16 फरवरी-नामालूम- अरविंद कुमार
16 फरवरी-नामालूम
क्या कभी नितांत अकेले में आपने किसी पेड़ को गले लगाया है ?उसे प्यार से अंक में भरकर कुछ देर उसको महसूस किया है ?चलिए छोडिय़े ,क्या बहुत फुर्सत और मन के नीरव शांति के दरमियाँ पेड के जड़ों में पानी दिया है ? क्या कभी गौर से चुपचाप खड़े किसी दरख्त को आसपास के शोरगुल से रहित होकर कुछ देर तक निहारा है ?
अधिकतर के ईमानदार जबाब 'नहीं'में होंगे ।यहाँ महज जड़ो में पानी देने या फिर उसे देखने की बात नहीं है ।इसमें शर्त यहभी है कि आपके और उस पेड़ के आसपास कोई न हो,कोलाहल न हो ,आपका मन नितांत शांत हो -विचार शून्य हो ,आप अपने मौजूदा परिवेश में रहकर भी न होने जैसा में हों ।वहाँ सिर्फ आप और वह पेड़ हो ।यहां तक की आप अपनी और पेड़ की परछाईं तक को भूला बैठे हों और यह सब कुछ निर्जन वन में नहीं आपके मौजूदा वातावरण में ही हो रहा हो ।ऐसा जैसे एक वलय के बीच सिर्फ आप ही दोनों हों।धरती तो है,वायुमंडल तो होगा ,आसमां में परिंदे भी होगें लेकिन सबके रहते कोई नहीं हो,इस एहसास के साथ कुछ पल बिताने के अनुभव की बात है ।शायद यह वही अवस्था है जिसमें एक प्रेमी अपनी महबूबा के दर्श में भटकता हुआ नमाजी के आगे से उसके जानमाज़ को रौंदते निकल जाता है या फिर माँ काली की आरती करते करते रामकृष्ण और उनके दरमियाँ माँ काली ही रह जाती हैं ।वह घंट-घडियाल, उच्चारित ध्वनियाँ,धुँआसब अदृश्यता के जैसे गौण हो जाते हैं या फिर केदारनाथ के उस वृक्ष तले समाधि लगाए उस शंकराचार्य के तरह लीन हो जाने की तरह ही हो जिसके नथुने तो हवा खींच रहे थे,फेफड़े तो हवा पम्प कर रहे थे मगर त्वचा पर चढे हुए सर्प और कीडों से मन और संवेदना दोनों अंजान बने रहे महीनों ।
बताईये, क्या ऐसा क्षण कभी आया है आपके जीवन में ?मैं यहाँ अधिकतर न कहकर 'सौ प्रतिशत'कहूंगा कि नहीं ।ऐसा समय आपके जीवन में नहीं आया है ।आप रुककर उन शर्तों को यादकर भी जबाब देंगे तो आपका ईमानदार जबाब होगा -नहीं ।
मैं ये नहीं चुनौती दे रहा हूँ कि ऐसे क्षण आपके जीवन में नहीं आए होंगे ।आए होंगे मगर सामने माँ,बेटी,पत्नी, पिता ,मित्र,बहन आदि जैसे रिश्ते होंगे ,कोई पेड़ कभी शर्तिया नहीं रहा होगा ।याद कर लीजिए इत्मीनान से ।
अब रुककर विचारिए, पेड़ से ऐसे लिपटने का अवसर क्यूँ नहीं आया ?आपका जबाब चाहे जो हो मेरा जबाब आपकी ओर से यह है कि कभी ऐसा सोचा ही नहीं ,ध्यान ही नहीं गया कि एक परिवार के प्राणी की तरह पेड़ को अंक में प्यार से भर लूँ ।
जबकि मालूम है कि वह सजीव है ,मेरे इर्दगिर्द है ,सामने है ।गर कभी एक क्षण के लिए आया भी होगा तो 'लोग क्या कहेंगे?फलां पगला गया है क्या'इस डर से वह विचार तुरंत तिरोहित हो गया होगा जिसे वापस लाने का कभी सोचना तो दूर उल्टे झटक दिया होगा ।
और हाँ,पेड़ों को प्यार से अंक भर लेने में कुछ नहीं लगता और न ही कुछ जाता है ।बस जरूरत इस एहसास को एक पल के लिए जीने या अनुभव करने का प्रयास करने भर है निर्विकार भाव से ।बिना डर,बिना स्र्वार्थ,बिना लाज के ।जहाँ आप सबकुछ भूलकर उसे(पेड़ को)गले लगा रहे हों ।
आपको अनुभूति होगी कि पेड़ भी उसी भाव से गले लगा रहा है आपको देखकर मुस्कुरा रहा है ।जड़े आपके करों से जल ग्रहण करते समय ऐसे शरारत से ताकेगीं जैसे आँखों में शोख़ भरकर शिकायत कर रहीं हों,'कि जाओ तुमसे नहीं बोलती,इतने दिनों बाद मेरी याद आई है ।'और सच कहता हूँ आपके सीने में दिल होगा तो आपकी आँखें नादिम हो जाएँगी और नफस काँप जाएगी अपनी देरी पर ।
बस अब उस पल को जीना है ,वो एहसासात महसूस करना है ,यह सोच लीजिए ।यह एक प्रयोग है ।करना है ।मैने किया है ।ईमानदारी से कहूँ तो किया नहीं ,हो गया ।खुद -ब-खुद ।ऐसा लगा कि अपने खलिक से रिश्ता जुड़ रहा हो।आपको भी दावत है ।मुझे नहीं मालूम मेरा यह संवाद पर्यावरण संरक्षण की ओर इशारा कर रहा है मुझे तो मालूम है कि वह पल एकमेव होने का पल था ,16 फरवरी ।
अरविंद कुमार
शिक्षक
मध्य विद्यालय गुरारू मिल्स
गुरारू, गया
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पेड़ों से लगाव की ओर प्रेरित करने वाला आलेख!
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुन्दर!
विजय सिंह
बहुत-बहुत बधाई। जीवन में हरियाली लाना है, हरियाली को पाना होगा,वृक्ष जीवन की बातों को, घर-घर सबको ले जाना होगा।।
ReplyDeleteआपके विचार ने तो झकझोर दिया। प्रयास करूंगा।
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