दो दृश्य--ज्ञानवर्द्धन कंठ - Teachers of Bihar

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Friday 14 February 2020

दो दृश्य--ज्ञानवर्द्धन कंठ

दो दृश्य
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        वर्ष 1988, मेन रोड, गोपालगंज। बुक-स्टॉल पर खड़ा मैं पत्रिका के पन्ने पलट रहा हूँ। पूजा के लिये माँ शारदे की मूर्ति एक ठेले पर लिये कुछ लड़के चले आ रहे हैं। एक दौड़ता हुआ स्टॉल पर आता है। पुराना अखबार माँगकर ले जाता है ताकि मूर्ति का चेहरा ठीक से ढँक सके। अगले ही क्षण वह पलटकर आता है। झुँझलाकर बोलता है - "का भाई, उर्दू अखबार काहे दे देहल"? दूसर लाब। हिन्दी-अंग्रेजी कवनो चली। फिर वह पहलेवाला अखबार वापस कर इच्छित अखबार ले जाता है। मैं बहुत देर तक भूल जाता हूँ कि मैं वहाँ क्यों खड़ा हूँ। मानस में कई सवाल उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं। सबब ढूँढ़ता हूँ। सबक खोजता हूँ। मस्तिष्क के किसी कोने में एक टीस बनी रह जाती है।
        बेरोजगारी की कश्मकश में दूसरे दीगर सवालों के बीच शिक्षक-बहाली की वेकेंशी आती है। फार्म भरता हूँ। परीक्षाएँ होती हैं। चुन लिया जाता हूँ। फिर स्कूल में 'सरस्वती पूजा' का उत्सव आता है। सारे बच्चे उत्साह से लबरेज हैं। लड़कियाँ प्रसाद बना रही हैं- उर्मिला, फरहत, शबनम, आशा, हेमा, फातमा, बबीता, नगमा,....
लड़के माँ शारदे की मूर्ति का शृंगार और पंडाल की सजावट में लगे हैं- सुरेश, भुवन, अनवर, अंजार, रामनरेश, तारिक़, सुरेंद्र, विपिन,....
        मैं पास खड़ा दृश्य को निहार रहा हूँ। मस्तिष्क के कोने में वर्षों से जमी टीस रही कोई चीज पिघलती महसूस हो रही है। आँखों से अनवरत बहते नीर को छुपाकर ट्यूबवेल पर धोने चला जाता हूँ। बच्चे बेखबर काम में लगे हैं।

ज्ञानवर्द्धन कंठ
प्रधानाध्यापक
राo मo विo भवप्रसाद
डुमरा, सीतामढ़ी 

4 comments:

  1. संदेशपरक स्मृतियां ����

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  2. धर्मनिरपेक्षता को गति देने वाला।
    विजय सिंह

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  3. प्रेरणादायक

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