भाषण- रमेश मिश्रा - Teachers of Bihar

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Wednesday 12 February 2020

भाषण- रमेश मिश्रा

भाषण
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            कार्यक्रमों में तो मेरा आना-जाना लगा ही रहता है और मुझे कुछ सीखने को भी मिलता है। लोगों को मैंने कहते सुना है कि ज्ञान पाना इतना आसान नहीं लेकिन मुझे लगता है कि ज्ञान पाना आसान है क्योंकि यह हमारे आस-पास ही बिखरा हुआ है। हाँ, यह जरूर है कि इसे आत्मसात करना थोड़ा कठिन है।
            सीखने के अवसर भी सर्वत्र व्याप्त हैं परन्तु श्रवण शक्ति, ग्रहण शक्ति, धारणा शक्ति और चिंतन शक्ति को अधिका-धिक मजबूत बनाने की आवश्यकता है। पुस्तकीय ज्ञान और व्यवहारिक ज्ञान में बहुत अंतर होता है। जीवन व्यवहार से चलता है पुस्तक से नहीं परन्तु यह भी सत्य है कि बहुत हद तक पुस्तकीय ज्ञान व्यवहारिक ज्ञान से ही प्रभावित होता है। व्यवहारिक ज्ञान तो समाज सापेक्ष, काल सापेक्ष होता है। जीवन में व्यवहारिकता का होना नितान्त आवश्यक है।अव्यवहारिक सोच कभी सन्तुष्टि प्रदान नहीं कर सकती। मेरे विचार में तो शिक्षकों को और भी व्यवहारिक होना चाहिये। सुदृढ़ एवं गतिमान जीवन के लिए शिक्षकों के साथ-साथ पूरे समाज को भी व्यवहारिक होना आवश्यक है।
           मैं अधिकांशतः शैक्षणिक कार्यकर्मों का हिस्सा होता हूँ। किसी भी कार्यक्रम में भाषण भी एक मुख्य हिस्सा होता है। मुझे भी भाषण करने के लिए बुलाया जाता है मगर जब हमें बोलने के लिए बुलाया जाता है तब हम भाषण से इतर चले जाते हैं। भाषण शब्द शायद अपना भाव खो देता है। बच्चे बेचारे एक सीमा के बाद अपराध भाव से तथा-कथित हम विद्वतजनों की बातें सुनते रहते हैं। मन न लगने पर भी वे अपना धैर्य बनाये रखते हैं नहीं तो उन्हें अनुशासनहीन घोषित कर दिया जाता है। हमारी एक ख़ासियत है किसी को अनुशासनहीन घोषित कर अपना स्वार्थ पूरा कर लेते हैं मगर हमने कभी सोचा है कि हम कर क्या रहे हैं? चींटी पर पाँच किलो का बोझ लाद दिया जाए और वह न ढोये तो अनुशासनहीन। भले ही वह ढोते-ढोते मर ही क्यों न जाए ? बड़ा आश्चर्य होता है यह सब सुनकर। चींटी से पाँच किलो का वजन ढुलवाने वाला कितना अनुशासित और समझदार होगा?
            प्रत्येक प्राणी और तत्व की अपनी एक क्षमता होती है। उससे आगे वह चाहकर भी उस अवस्था में कुछ नहीं कर सकता और यदि वह करता भी है तो  निष्प्रभावी ही होता है। जिस बच्चे को हम पढ़ाते समय चालीस मिनट के बाद एक ब्रेक देते हैं उसी बच्चे से हम आशा करते हैं कि वह दो-तीन घंटे तक धैर्य-पूर्वक भाषण सुनता रहे। आखिर क्यों? तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि भाषण गंभीर विषय नहीं है और फिर अगर गंभीर विषय नहीं है तो सुनाने वाले को इतनी व्यग्रता क्यों? बहुत जगहों पर मैंने देखा है कि कुछ शिक्षक डंडा लेकर खड़े रहते हैं कि बच्चों को भाषण जरूर सुनाया जाय। जिस शब्द को सुनाने के लिए आपको बल का सहारा लेना पड़े तो समझिए कि आपके शब्द प्रभावहीन हैं और मरे हुए से आखिर कौन रिश्ता रखना चाहेगा और क्यों? एक ख़ास दिन को हम बच्चों में  ठूँस-ठूँस कर ज्ञान भरकर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? हम एक लीटर की क्षमता वाले पानी की बोतल में धराक से एक ड्रम पानी उझलना चाहते हैं और यह आशा करते हैं कि इसका पानी बाहर न गिरे और न ही बोतल भी पलटे। आखिर कैसी सोच है हमारी? बच्चे अति उत्साही और पवित्र होते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें जो भी काम मिला है उसे जल्दी से जल्दी पूरा कर लें। मुझे लगता है कि अत्यधिक समय दूसरे कामों में बिताने के बाद वे निराश हो जाते हैं, उनका मन उचट जाता है और अपने संदर्भित विषय में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते। उनकी क्षमता और उत्साह एक सीमा के बाद समाप्त हो जाता है। मेरे विचार में अगर बच्चे अपनी कविता पढ़ने आए हैं तो आपको भाषण के केंद्र बिंदु में कविता को ही रखनी चाहिए। इससे बच्चा कुछ सीखेगा और ज्यादा उबेगा भी नहीं। मगर हम तो खुद अनुशासन तोड़कर हँसुआ के विवाह में खुरपी का गीत गाने लगते हैं और बच्चों से आशा करते हैं कि वे अनुशासन में रहे। एक बात और है- अगर आपकी बोली और ज्ञान में दम होगा तो बच्चा आपके पास स्वतः खिंचा चला आएगा। दबाव देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी लेकिन हम तो अपनी कमी को उसके सिर पर डालकर  स्वयं को बरी कर लेना चाहते हैं।
       बच्चों की भावना, ज्ञान और उनकी क्षमता का सम्मान कीजिये। यह भी तो हो सकता है कि आपने जो अपने भाषण में बातें कही है उसी पर वह दूसरे बच्चों पर चर्चा कर रहा हो। अगर ऐसा है तो आपके लिए यह गर्व की बात होनी चाहिए कि आपकी बोली ने उसे चिंतन के अवसर दिए।




रमेश कुमार मिश्र
भारती मध्य विद्यालय लोहियानगर 
कंकड़बाग, पटना

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