Saturday 28 March 2020
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हमारी शिक्षा पद्धति और कोरोना वायरस-नीरज कुमार
हमारी शिक्षा पद्धति और कोरोना वायरस
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शिक्षा का व्यक्ति के मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की पूर्णता को आत्म-प्रकाशन(self realization), क्षमता तथा अनुभव का निरन्तर वृद्धि करते हुए ही प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति का यह अध्यात्मिक विकास उसी समय हो सकता है जब शिक्षा के उदेश्य उसके जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार बदलते रहे। इससे शिक्षा के उद्देश्यों तथा व्यक्ति के जीवन दोनों में समंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बना रहेगा। यदि शिक्षा का उदेश्य व्यक्ति के जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नहीं बदलेंगे तो व्यक्ति का मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास असम्भव होगा।
आज भौतिकवादी समाज में भौतिक सम्पन्नता को प्रमुख स्थान दिया जाता है। ऐसे समाज में नैतिक आदर्शों, आध्यात्मिक मूल्यों, रचनात्मक कार्यों तथा विवेक आदि के विकास पर कोई ध्यान न देते हुए शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण केवल भौतिक सुखों की उन्नति के लिए किया जा रहा है जिससे वह समाज धन-धान्य से परिपूर्ण हो सके।
समय के बदलाव के साथ आज का मनुष्य सामाजिक आडम्बरों की चका-चौंध की गिरफ्त में लिप्त हो गया है। व्यक्ति दैनिक कार्य करने में सुख व आराम की संतुष्टि पाना चाहता है। इसलिए विज्ञान के इस युग में नए-नए आविष्कार करते जा रहा है और अपने जीवन को सुगम सरल व सुखद बनाने के लिए नए उपकरणों व मशीनों का निर्माण किए जा रहा है। आज स्थिति यह है कि हम मशीनों व भौतिक संसाधनों पर इतने निर्भर और आकर्षित हो चुके हैं कि अपनी वास्तविक परम्पराओं, रीति-रिवाजों को छोड़ने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप हमारी शिक्षा, लालन पालन व सामाजिक ताना-बाना कमजोर होता जा रहा है। मशीनीकरण के कारण मनुष्य अपने पूर्वजों द्वारा प्राप्त संस्कारों को छोड़कर भौतिकवाद की ओर अग्रसर हो रहा है।
अपनी सर्वव्यापकता को प्रभावशाली बनाने के लिए विज्ञान ने प्रकृति के सभी स्वरूपों को प्रभावित किया है। आज विज्ञान का ही प्रभाव है कि आकाश और पाताल के गूढ़ रहस्य एक-एक करके खुलते जा रहे हैं। प्रकृति पर अपनी विजय पताका फहराते हुए विज्ञान ने दूसरे विधाता के रूप में अपनी पहचान प्रस्तुत कर दी है।
यधपि विज्ञान ने मानव हित में बहुत योगदान दिया है लेकिन मानव की भौतिकवादी लालसा ने विज्ञान को कई बार नकारात्मक और विध्वंसकारी रूप में भी उपयोगी बनाया है जिससे सामाजिक बुराइयों के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण, कन्या भ्रूण हत्या, कृषि में रसायनिक तत्वोंं का अंधा-धुंध प्रयोग, रासायनिक और जैविक हथियार, परमाणु बम इत्यादि भी विश्व के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। आज हवा और पानी की अशुद्घता तथा फसलों में प्रयोग किए जा रहे अंधा-धुंध रासायनिक तत्वों के कारण देश में बीमारियाँ बढ़ी हैं।
आज पूरा विश्व कोरोना के महामारी से अघोषित युद्ध कर रहा। अब समय विचार करने का है कि यह वायरस तीव्र आर्थिक विकास की होड़ का नतीजा तो नहीं हैं? यदि ऐसा है तो हमें अपनी चाल को थोड़ा धीमा करना होगा जिससे भविष्य में इस प्रकार के संकटों से मुक्त रहें। कोरोना वायरस के संक्रमण से हमें दो सीख मिलती है- पहली यह कि भौतिकवाद की एक उचित सीमा हो और दूसरी यह कि मनुष्य को पर्यावरण से ज्यादा छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए। तरक्की के नाम पर हमने दुनियाँ को मुश्किल में डाल दिया है।
नेचर मेडिसिन जर्नल में प्रकाशित शोध के मुताबिक महामारी साबित होने के बाद चीनी वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस के जीनोम सिक्वेंस को एनालिसिस किया। रिपोर्ट में सामने आया कि यह वायरस प्रकृति में हुए परिवर्तन का ही परिणाम है जो वुहान शहर से दुनियाँभर में फैला। इसे न तो किसी लैब में तैयार किया गया है और न ही ऐसा कोई प्रमाण मिला है।
यद्यपि शिक्षा का उदेश्य व्यक्ति के जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार बदलना आवश्यक है लेकिन ये बदलाव कैसा हो इसपर भी विचार करना नितान्त आवश्यक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बदलाव की अंधी दौड़ में मानव विध्वंसकारी बदलाव कर ले।
कोरोना ने विश्व पटल को एक पाठ जरूर पढ़ाया है कि हमारी शिक्षा पद्धति कैसी हो। इसपर विचार करने की आवश्यकता है। आधुनिकीकरण के नाम पर प्रकृति से छेड़-छाड़ नुकसान पहुँचाने वाली न होकर मानवता आधारित हो और इसे इसके मूल स्वरूप में आत्मसात करने वाली हो क्योंकि प्रकृति हमें वही देती है जो बदले में हम उसे देते हैं।
नीरज कुमार
उत्क्रमित मध्य विद्यालय रूपापुर
पालीगंज, पटना
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बहुत हीं सुन्दर!
ReplyDeleteविजय सिंह
बहुत-बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteविजय सिंह
तार्किकता से लवरेज
ReplyDeleteआभार सर
Deleteशिक्षा निर्माण कारी हो ना की विनाशकारी ,शायद यही सार है आपके लेखन का
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