Tuesday, 14 April 2020
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मासूम आँखें--राकेश कुमार
मासूम आँखें
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महीना सावन भादो का झमाझम बारिश, प्रकृति की खूबसूरती चरम पर, अन्नदाता के चेहरे पर मुस्कान, सभी तरह का अनुकूल वातावरण। इन सबके बीच विद्यालय जाने वाले रास्ते पर बारिश की वजह से कीचड़ मिट्टी का संगम गाड़ी की रफ्तार को धीमी कर रही थी। धीमी रफ्तार से मैं अपना मंजिल विद्यालय पहुँचा, लेकिन बारिश की वजह से मैं गाड़ी को विद्यालय के अंदर नहीं ले जा सकता था क्योंकि विद्यालय का प्रांगण गाड़ी ले जाने के अनुकूल नहीं था इसलिये मैंने गाड़ी को विद्यालय के बाहर हीं लगा रहा था कि अचानक एक तोतली मधुर सी आवाज मेरे कानों को छुई- ये छर (सर) गाली (गाड़ी) उधल (उधर) लगावा। उसकी आवाज सुनकर मेरा मन मधुर हो गया। शरारत भरे अंदाज में हमने भी कहा कि उधर गाड़ी न लग़ाम। मेरे बोलने के अंदाज़ से वो शरमा गई और दौड़कर घर के अंदर चली गई। ये मेरी पहली मुलाकात थी उसके साथ। मैं भी अपने विद्यालय के अंदर चला गया और अपने कार्यों में मशरूफ हो गया।
उसी दिन फुर्सत के साथ बैठा था, पता नहीं क्यों वो आवाज मुझे याद आ गई? मैंने अंदाज़ लगाया कि उसकी उम्र 7 या 8 साल होगी। सिलसिला यूँ हीं चलता रहा। मैं प्रतिदिन गाड़ी लगाता और उससे मुलाकात हो जाती और मैं पूछ बैठता कि ठीक है! ये सुनकर वो हँसकर भाग जाती ।
मैं अपने कार्यालय से देखता था कि वो अन्य बच्चों के साथ खेलती रहती थी। अचानक एक दिन जब मैं फिर गाड़ी लगा रहा था तो उससे पूछ बैठा (अपने शिक्षक के दायित्व बोध के अनुरूप) स्कूल पढ़े न जा हहहूँ? मेरी यह बात सुनकर पता नहीं उसे क्या हुआ दौड़कर घर के अंदर भाग गई। मैं भी उसके इस व्यवहार से चकित हो गया क्योंकि मैंने यह प्रश्न अपने आदत के अनुसार हीं पूछा था। मैं हर उस बच्चे से यह प्रश्न पूछा करता था जो कम उम्र में कहीं काम करता दिखता। यही प्रश्न मैंने उससे भी पूछा था, लेकिन वो दौड़ कर घर के अंदर भाग गई। उस दिन मेरी उसके साथ आमने-सामने की मुलाकात अंतिम थी!
सिलसिला चलता रहा मैं रोज गाड़ी लगाता लेकिन उस पर मेरी नजर नहीं पड़ती लेकिन एक नए वाकये की शुरुआत हुई। मुझे ऐसा लगा कि कोई आँखे मुझे देख रही है लेकिन जैसे हीं मेरी आँखें देखने की कोशिश करती वो आँखे ओझल हो जाती। इस तरह से आँखों का एक नया सिलसिला शुरू हो गया। जब-तक मैं विद्यालय में रहता तब-तक मुझे ऐसा महसूस होता कि कोई मासूम आँखे मुझे देख रही हो लेकिन जैसे हीं मैं उन आँखों के पीछे छिपे चेहरे को देखने की कोशिश करता तो वो ओझल हो जाती।
एक दिन फिर मैं गाड़ी लगा रहा था कि दरवाजे पर बैठी उसकी माँ पर मेरी नजर पड़ी, जैसे मानो कि मैं इंतज़ार कर रहा था कि उसके यहाँ का कोई मुझे दिखे। मैं तुरंत बोल उठा कि आपकी बच्ची आजकल दिखाई नहीं देती कहीं गई हुई है क्या? उसकी माँ बोली कि घर पर रह हव सरजी, तोरा से लजा हव। ये बात सुनकर मैं भी हँसी को बाहर आने दी। फिर मैं बोला कि उसको स्कूल काहे नहीं भेजती हैं? उसकी माँ बोल उठी कि एग और छोटा बच्चा हई सरजी! खेत मे जायलिक तब वही बचवा के देख हई। उसकी माँ की बातों को सुनकर मैं अचरज मे पड़ गया कि एक मासूम इतनी बड़ी जिम्मेवारी को निभा लेती है !
वक्त बीतता गया.. मैं भी उस मासूम चेहरे को भूलता जा रहा था लेकिन मासूम आँखे मुझे हमेशा दिखाई देती एक नई जान-पहचान की शुरुआत हो रही थी आँखों की। कुछ समय पश्चात अपने विद्यालय प्रांगण में मैं एक शिक्षक के साथ बैठा था, बार-बार मेरी नजर एक बच्ची पर जाकर ठहर जाती। जब नजरों का आमना -सामना होता तो उसकी चंचलता थोड़ी कम हो जाती मैंने इस बात का जिक्र जब अपने साथ बैठे शिक्षक महोदय से की जो मेरे साथ हीं गाड़ी पर आते-जाते थे, तो वो तुरंत बोल उठे अरे आप नहीं पहचान रहे हैं ये वही बच्ची है जिसको आप गाड़ी लगाते समय बोलते थे कि स्कूल पढ़ने क्यों नहीं आती?
यह बात सुनते हीं मैं खुश होने के साथ-साथ आश्चर्य की भी अनुभूति कर रहा था कि मेरी छोटी सी कोशिश पिंकी को विद्यालय ले आई। जी हाँ उसका नाम पिंकी हीं था और वो मासूम आँखे चेहरे और नाम के साथ दिखाई देने लगी ।
राकेश कुमार
मध्य विद्यालय बलुआ
मनेर, पटना
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सार्थक कोशिश👌👌👌👌👌
ReplyDeleteएक शिक्षक के रूप में हमें स्वाभाविक रूप से अपना काम करते रहना चाहिए। आखिर हम नन्हें बच्चों के भविष्य निर्माण के कार्य से जुड़े हैं। क्या पता हमारी एक छोटी कोशिश किसी का भविष्य संवार दे। अच्छी रचना हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर कहानी!
ReplyDeleteविजय सिंह
उस मासूम आंँखों में ना जाने,क्या ऐसी ललक थी।
ReplyDeleteछोटी सी कोशिश में,मानो विद्यालय लाने की झलक थी।
बहुत ही मर्मस्पर्शी व अनुभवयुक्त कहानी।
साकारात्मक सार्थक प्रयास
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