"हमारी धरा और हम"-माँ कान ऐंठती है-मनीष कुमार राय - Teachers of Bihar

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Wednesday, 22 April 2020

"हमारी धरा और हम"-माँ कान ऐंठती है-मनीष कुमार राय

"हमारी धरा और हम"-माँ कान ऐंठती है
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          पृथ्वी के निर्माण से लेकर अब तक के सफर में इस पर न जाने कितनी सभ्यताओं ने निर्माण और विध्वंस झेला है। तब जाकर आज इस रूप में पृथ्वी को हम देख पा रहे है। मनुष्य ने भी वंश दर वंश इस निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सा लेते हुए अपना क्रमिक विकास किया है। आज के स्वरूप को ही मनुष्य अंतिम और समुन्नत अवस्था में कह रहा है पर क्या वाकई हमने उन्नति अथवा प्रगति का शिखर प्राप्त कर लिया है? पृथ्वी पर हमेशा से अधिपत्य और अधिकारों को लेकर मनुष्य आपस में लड़ता रहा है। इस अधिकार की लड़ाई में क्या हम अपने दायित्व और कर्तव्य को सही ढंग से निभा पाए हैं? सच तो ये है कि अपने घर के आगे भी यदि आज की तारीख में कोई पेड़ पौधे लगाता है या बागवानी करता है तो हम कह तो देते हैं कि अच्छा लग रहा है पर उससे प्रेरित होकर क्या हम भी वैसा ही करते हैं? लगभग नहीं वाले उत्तर ही ज्यादा होंगे। पर्यावरण की महत्ता समझना, उस पर बड़ी-बड़ी बातें करना अब सामान्य सी बात है। यदि पौधे का रोपण कर भी लिया तो एक सेल्फी जरूर होनी चाहिए, क्यों? सबको दिखाना है, बताना है कि देखिए हम भी कितने दायित्वबोध से लदे-भरे पड़े हैं। अच्छा है, कोई कारण तो है, पर क्या पौधे के रोपण के उपरांत उसका ख्याल रखते हैं?ईमानदारी से खुद को बताइयेगा। किसी और को बताने की आवश्यकता भी नही है। पृथ्वी निवासियों से पृथ्वी पूछेगी भी नही। जितना देना है उससे ज्यादा ही देगी, पर यूं पृथ्वी को हम कब तक छलेंगे? यह तो माँ है। बस देना जानती है, पर जब बच्चे की शैतानियाँ सीमा पार करने लगती है तो दंड भी देती है पर उस दंड की सीमा भी वह स्वयं निर्धारित करती है। उसे मालूम कि बच्चे को कितना जोर से मारना है। ठीक वैसे ही हमें पृथ्वी भी चेतावनी देती है। कभी अति वर्षा से जनित बाढ़ के रूप में, कभी भूकंप, कभी भू-स्खलन, कभी जलस्तर के विलुप्तीकरण के रूप में, पर्यावरण में सांस लेने में तकलीफ के रूप में, तो कभी हिम स्खलन जैसे प्राकृतिक आपदाओं के रूप में। हमने अपनी पृथ्वी को अपना घर कभी नहीं माना।हमने लकीरें खींची, देश बनाए, राज्य, जिले, प्रखंड, गाँव, घर की सरहदें बनाई और निश्चिन्त हो गए। हमने समझा कि हमें जो चाहिए था वह मिल गया, पर वैसा हुआ क्या? हम समझते रहे कि सड़क के ऊपर के कचरे से हमें क्या मतलब भला? पड़ोसी के घर की गंदगी हमारा क्या बिगाड़ लेगी? क्या हमने सबको सुधारने और ठीक करने का जिम्मा ले रखा है, या इससे हमें क्या फायदा? बस इसी नफे-नुकसान के गणित ने हमारे दायित्व और कर्तव्य के व्याकरण को विकृत कर दिया है।
                हमारा ध्यान उन विस्तृत समस्याओं की ओर जा ही नहीं रहा है या कहिये हमारा संकुचित दिमाग उतने ऊँचे स्तर की सोच की व्याख्या करने में अब सक्षम ही नहीं रहा। हरेक बदलती पीढ़ी दिन प्रतिदिन पृथ्वी के साथ उद्दंडतापूर्ण व्यवहार कर रही है। बस फिर किसी दिन धरती माँ कान पकड़ कर किसी प्राकृतिक आपदा के माध्यम से चेतावनी दे देंगी। तब कुछ दिनों के लिए हम डरे सहमे बच्चे की तरह पेश आएँगे और कुछ दिनों के बाद सामान्य हो जाएँगे। रोजमर्रे की जीवन शैली के काम हमें ज्यादा महत्वपूर्ण लगते हैं। जैसे ये न हुआ तो बहुत कुछ खत्म हो जाएगा। हम अपने गिनती के पारिवारिक सदस्यों के चेहरे की एक मुस्कान के लिए हरेक छोटी से छोटी बात का ख्याल रखते हैं पर उस मुस्कान के मूल स्रोत या आधार को भूल जाते हैं।
                    कोरोना संक्रमण कालीन आज पृथ्वी दिवस के मौके पर हम संकल्प ले सकते हैं कि पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए हमसे, हमारे स्तर से; जो बन पड़ेगा, करेंगे। न केवल खुद बल्कि अपने बच्चों में भी यही संवेदना जागृत करने का प्रयास सिर्फ बातों के माध्यम से नहीं; खुद करके, उनको भी शामिल करके, जरूर करेंगे। इस कोरोना नामक अर्धमृत जीव ने भी हमे बहुत बड़ी शिक्षा दी है। हमे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं का लिहाज़ करना सिखाया। पेड़-पौधों की हरियाली, पक्षियों की चहचहाहट, दूर से दिखाई देने वाले पहाड़, चांद तारों और बादलों की बदलती आकृतियों ने हमे सोचने समझने का एक अच्छा अवसर प्रदान किया है। हमें हमारे सामाजिक कर्तव्यों को समझाया है। जिस तरह पर्व त्योहार के मौके पर हम अपने माता-पिता को नए वस्त्र देकर खुद को तृप्त करते हैं, उनकी अवस्था का सम्मान करते हैं, उनकी सेवा कर अपने दायित्व का अहसास करते हैं, ठीक उसी प्रकार अपनी धरती माता के लिए भी वही समर्पण भाव रखना होगा। हमारे जरा से प्रयास से बिहार में कई जिलों का भू-जलस्तर अब ऊपर आ रहा है। कितना सुखद यह अहसास है इसका अंदाजा तब लगेगा जब हम चेन्नई जैसे कई राज्यों में करीब से हरेक लोगों को जलसंकट से जूझते देखेंगे। उनकी प्यास हमारे सारे सवालों या हमारी लापरवाही का जवाब दे देगी। जमीन के टुकड़े पर जब तक हम अपना मालिकाना हक समझते रहेंगे तब तक हम अपनी लापरवाहियों के नतीजे भी देखते-भुगतते रहेंगे। आज जरूरत है धरती से संबंधित वेद उद्धरित श्लोकों को सरजमीं पर उतारने की, या तो कर्तव्य और दायित्व का पालन करें या माँ के कान ऐंठने  का इंतजार करें? ये तो हमे ही मिलजुल कर सोचना और तय करना है।


मनीष कुमार राय

5 comments:

  1. बहुत-बहुत सुन्दर!
    विजय सिंह

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  2. Bahut badhiya, jaagruk ho sabhi?...

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  3. Bahut bardhiya sabhi ko jagrook hona chahiye.

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  4. "हमारी धरा और हम"प्रकृति के दोहन से पर्यावरण संकट,मानव जीवन को इससे होने वाले दुष्परिणाम,जीव-जगत पर होने वाले संकट को लेखक मनीष कुमार राय ने बहुत ही सरल भाषा में तर्कपूर्ण,महत्वपूर्ण और तथ्यपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया है।
    मनुष्य प्रकृति का ही अंश है और प्रकृति ही मानव जीवन का पोषण और संरक्षण करती है।यही कारण है की हमारे पूर्वज जल,जंगल,जमीन से जुड़कर ही अपना जीवन-यापन करते थे और इसपर उनकी गहन आस्था थी।जल की दूषित करना,जंगल को काटना,प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग पाप माना जाता था। धिरे-धीरे मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रगतिशील सोच ने कथित बुद्धिजीवियों को जन्म दिया और लोग प्रकृति से खुद को श्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठा। विकास के नाम पर जल,जंगल,जमीन का दोहन शुरू हुआ नतीजा जब प्रकृति का आक्रोश दिखा तो पूरी धरती का पर्यावरण संकट में पड़ गया।पूरी मानवजाति और जीव-जगत के समाप्त होने का खतरा आज हमारे सामने खड़ा है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य खजानों का दोहन और पूर्वजों की मान्यताओं को महत्व न देना, कौन सा संकट खड़ा करेगा यह तो भविष्य ही बताएगा। हाँ,यदि मानव जाति को प्रकृति के आक्रोश से उबरना है तो हमें प्रकृति से सामंजस्य बिठाकर चलना पड़ेगा। पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक प्रगति के बीच तालमेल रखकर ही मानव सभ्यता को बचाया जा सकता है।

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  5. बहुत ही सुन्दर आलेख है। सच में, हमें जागरूक होना चाहिए और प्रकृति से बेहतर तालमेल रखने की कोशिश करनी चाहिए।

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