मानस--एकलव्य - Teachers of Bihar

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Saturday, 4 April 2020

मानस--एकलव्य

मानस
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          जाड़े का समय था। पेपर वाला पेपर देकर चला गया। तभी चार साल का छोटा लड़का मानस दौड़ता हुआ पेपर लेकर कहने लगा ये लीजिए आपका पेपर आ गया। उम्र व रहन-सहन के कारण आँखों पर चश्मा चढ़ गया है। मैं चश्मा ढूँढने लगा तभी नौ साल का बड़ा लड़का धनु बैठे-बैठे कहता है चश्मा लैपटॉप पर रखे हैं और इधर-उधर ढूँढ रहे हैं। मैं चश्मा पहनकर अखबार पढ़ने लगा। धर्मपत्नी चाय लेकर आ गई और कहने लगी अखबार क्या पढ़ते रहते हैं। इसमें सिर्फ चोरी, डकैती, अपहरण, हत्या, बलात्कार, बालिका कांड जैसे बातों का समाचार भरा रहता है। सुबह-सुबह मन क्रोध और घृणा से भर जाता है। लेखक और सम्पादक महोदय भी सत्य को ज्यों का त्यों न परोस कर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर देता है। हमलोग उसी के दृष्टिकोण से अपना दृष्टिकोण बनाकर चिंतन करने लगते हैं। टी.वी. पर भी वही हाल है। हमलोगों के पास जैसे कोई ज्ञान ही नहीं है। खुद को जादूगर समझते हैं, कहते हुए रसोईघर में चली गई। मैं चाय समाप्त कर विद्यालय जाने की तैयारी में लग गया। जूता लेकर मानस दौड़कर आया और पहनाने लगा। मैं उसे मना करते हुए स्वयं से पहनने लगा। यदि थोड़ा सा पेट (तोंद) बाहर निकला हो तो जूते का फीता लगाने का कष्ट क्या होता है, बताने की जरूरत नहीं। यहाँ भी उसकी आँखें मेरी सहायता के लिए उत्सुक थी। जब मैंने फीता बाँध लिया तो उसे एक प्रकार का संतोष प्राप्त हुआ जैसे माता के द्वारा बच्चों को खिला देने पर, पिता को पुत्र के गौरव पर और गुरु को शिष्य की अव्वलता पर होता है।
          विद्यालय पहुँचकर चेतना सत्र का सफल संचालन किया तत्पश्चात वर्ग अष्टम की उपस्थिति पंजी के साथ वर्ग कक्ष में पहुँचा। बच्चों द्वारा धूप में पढ़ाने का विनम्र आग्रह मैं ठुकरा नहीं सका। बहुत बच्चे कम कपड़े में थे। काफी समझाने के बाद भी अधिकांश बच्चे पोशाक व गर्म कपड़ों में नहीं आ पाते थे। कितने प्रयासों के बाद कुछ सफलता मिली थी परन्तु आशातीत नहीं। वैसे भी जिस घर में दो वक्त की रोटी का अभाव हो, महाजन का कर्जदार हो, जहाँ गली के डॉक्टर प्रारम्भ में इलाज कर बाद में खून चूसते हों उन घरों के बच्चों से पोशाक व गर्म कपड़ों की अपेक्षा रखना विचारों को क्रूर करने जैसा ही होगा। बच्चे नियमित विद्यालय तो आते हैं। यह उप्लब्धि भी दीपक की तरह हमारे सकारात्मक प्रयासों को नई दिशा प्रदान करता रहेगा। खैर धूप में बच्चों को पढ़ाने लगा। कुछ देर बाद छात्र शिवम कहता है- सर आपका टोपी गिरा है। मेरी टोपी कुर्सी से कब गिरी मुझे इसका ध्यान ही नहीं रहा। मैं टोपी उठाते हुए विचार में खो गया। यहाँ भी कोई मानस नहीं सब धनु है। बालपन की सहज व स्वाभाविक सहायता का गुण उम्र बढ़ने के साथ क्या कम होने लगता है? क्या ज्ञान हमें जरूरतमंद या गैर जरूरतमंदों में अंतर करना सिखला देती है या मनुष्य स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए स्वयं सीख जाता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मनुष्य अपनी मनुष्यता की राहों में आने वाली उलझनों से बचने के लिए स्वयं सहायता के गुणों का त्याग कर देते हैं या फिर मानवता के परे की शिक्षा पा जाते हैं? नैसर्गिक प्राप्त ज्ञान जीव-जंतु कभी नहीं छोड़ता है। हमें प्राप्त ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि करना था न कि प्राप्त ज्ञान को नष्ट करना। आज पूरा विश्व कोरोना के भय के साये में जी रहा है। परायों की बात कहाँ, अपनों के बीच भी दूरी बढ़ गई है। अगर यही ज्ञान है तो आज भी मेरा मन जग मानस को ढूूँढ रहा है।


             एकलव्य
       संकुल समन्यवक
      म०वि० पोखरभीड़ा
       पुपरी, सीतामढ़ी

12 comments:

  1. बच्चों का मन स्वाभाविक रूप से निश्छल होता है। निष्कपट भाव से दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव होता है। ज्यों-ज्यों वे बड़े होते हैं परिवार एवं समाज का प्रभाव पड़ने पर उनके स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है। प्रारंभिक स्तर पर हमें अपने घर और विद्यालय में अनेक मानस दिख जाएंगे। हमें एक शिक्षक के रूप में उनके मानवीय गुणों को उभारने एवं उन्हें विकसित करने में उनकी मदद करनी चाहिए। अच्छे एवं उपयोगी लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद एवं शुभकामनाएं....

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    1. आपका प्रोत्साहन सदैव मेरा मार्गदर्शन करता रहेगा।।बहुत बहुत आभार आपका।।

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  2. सिर्फ शिक्षकों में ही यह गुण पाई जाती है कि वह मानस एवं धनु दोनों के मानवीय गुणों को साथ लेकर चले

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    1. बिल्कुल सही।।गुरू को समर्थ होना भी चाहिये।।
      बहुत बहुत आभार आपका

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  3. बहुत ही मर्मस्पर्शी और व्यवहार परक आलेख।शुभाशीष बंधू जी।

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  4. बहुत हीं सुन्दर कहानी!
    विजय सिंह

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    1. शब्द सम्बोधन उचित नहीं बस प्रणाम स्वीकार करें।।

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    2. शब्द सम्बोधन उचित नहीं बस प्रणाम स्वीकार करें।।

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  5. व्यवहारिक और मर्मस्पर्शी आलेख ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।।

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