पूर्णिमा-विजय सिंह "नीलकण्ठ" - Teachers of Bihar

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Sunday, 3 May 2020

पूर्णिमा-विजय सिंह "नीलकण्ठ"

पूर्णिमा
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           बहुत समय पहले की बात है, किसी गाँव में माधो नाम का एक किसान रहता था जिसको एक पुत्री थी पूर्णिमा। चुँकी बच्ची का जन्म पूर्णिमा के दिन ही हुआ था इसलिए माधो ने उसका सुंदर नाम पूर्णिमा रखा। पूर्णिमा के आते ही माधो और उसकी पत्नी इस बात से खुश थी की पहली संतान पुत्री थी। फिर पूर्णिमा की किलकारी सुनकर दोनों पति-पत्नी काफी खुश रहते और बड़े ही ध्यान से उसका पालन-पोषण करते। माधो सुबह- सुबह खेत चला जाता और उसकी पत्नी गृह कार्य के साथ-साथ अपनी बच्ची की देखभाल बहुत ही तन्मयता से करती। 
        धीरे-धीरे पूर्णिमा बड़ी होने लगी फिर पाँच वर्ष की उम्र में उसका नामांकन गाँव के सरकारी विद्यालय में करा दिया गया। दो- चार दिन नकर-नुकड़ करने के बाद पूर्णिमा प्रतिदिन विद्यालय जाने लगी और विद्यालय में पढ़ाई गई बातों को घर में पढ़ती। इस तरह वह मेहनत कर कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने लगी। माधो और उसकी पत्नी पूर्णिमा से काफी खुश रहते थे। अच्छी तरह पढ़ाई करते हुए वह छठी कक्षा में प्रवेश की तभी उसकी माँ  किसी बीमारी के कारण स्वर्ग सिधार गई। अब तो दोनों बाप-बेटी के ऊपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। किसी तरह दो-चार महिने के बाद दोनों बाप-बेटी ने अपने आप को संभाला। अब तो पढ़ाई के साथ-साथ उसे घर के सारे काम भी करने पड़ते लेकिन उसने कभी भी हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी। 
          माधो के सगे-संबंधी उसे पुत्र प्राप्ति हेतु दूसरा विवाह  कर लेने का दबाव डालते रहता लेकिन माधो इस बात पर कुछ नहीं बोलता क्योंकि वह अपनी बेटी से बहुत प्यार करता था। वह पूर्णिमा के लिए सौतेली माँ नहीं लाना चाहता था लेकिन बार-बार कहने पर माधो ने दूसरी शादी कर ली। फिर बेचारी पूर्णिमा पर दुःखों का पहाड़ गिरना शुरू हो गया।
          सौतेली माँ सुबह देर से उठती जिस कारण पूर्णिमा को घर का सारा काम करना पड़ता फिर विद्यालय जाती। सौतेली माँ से एक लड़का हुआ जिसका नाम पूरण रखा गया। पूर्णिमा के लिए अब पूरण की देख-भाल करने की जिम्मेदारी भी आ गई फिर भी वह बिना विचलित हुए हर काम के साथ-साथ पढ़ाई करते रहती। जब वह नौवी कक्षा में गई तब सौतेली माँ का व्यवहार बदलने लगा। वह हर दिन कुछ खोट निकालकर माधो से पूर्णिमा को फटकार दिलाती रहती। कभी चावल में कंकड़ तो कभी आटे में धूल डालकर पूर्णिमा को बदनाम करती और माधो से डाँट-फटकार दिलाती रहती है। उसका हर दिन का काम बस यही मात्र रह गया था। एक दिन तो और हद हो गई, जैसे ही पूर्णिमा पिताजी के लिए चावल-दाल परोसकर पानी लाने गई इसी बीच सौतेली माँ ने चावल के अंदर एक मरा छिपकली रख दिया। जब माधो खाने बैठा तो उसकी नजर छिपकली की पूँछ पर पड़ी लेकिन वह कुछ नहीं बोला। इधर सौतेली माँ ने माधो को इतना उकसाया कि उसे भी शंका हो गई कि पूर्णिमा उसे मारना चाहती है, फिर क्या था माधो ने उसे खूब पीटा और गाँव के बाहर तालाब पर जाकर यह कहते हुए छोड़ दिया कि तुम इसी तालाब में डूबकर अपनी जान गँवा दो, ऐसा कह वह वापस घर आ गया। 
          पूर्णिमा तालाब किनारे बैठकर फूट-फूट कर रोने लगी। तभी पास के गाँव का शंकर नाम का एक व्यक्ति वहाँ आया। किसी लड़की को अकेला रोता हुआ देख उसके पास गया और दुःख का कारण पूछा। पूर्णिमा ने सारी बातें बता दी। शंकर को मात्र एक पुत्र था कोई पुत्री नहीं थी। उसने उसे पुत्री बनाकर अपना घर ले आया और अपनी बेटी की तरह प्यार देने लगा। फिर एक दिन शंकर की पत्नी ने अपने पुत्र का विवाह पूर्णिमा से कर दी फिर क्या था उसके जीवन में खुशियाँ लौट आई। सारे दुःखों को भुलाकर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगी।
           इधर जब पूरण बड़ा हुआ तो उच्च शिक्षा के लिए बाहर चला गया। फिर वहीं नौकरी पकड़ ली और शादी कर बस गया। अब माधो भी बूढ़ा हो चुका था। एक दिन किसी बीमारी से उसकी पत्नी का देहांत हो गया। अब माधो की देख-भाल करने वाला कोई नहीं रहा। माधो का छोटा भाई छल-प्रपंच कर माधो की जमीन और घर अपने नाम लिखवा लिया और उसे घर से भगा दिया। माधो दिन-भर इधर-उधर भटकते रहता। कोई कुछ दे देता तो खा लेता नहीं तो भूखे रहता। एक दिन माधो तालाब से पानी पीने के लिए तालाब किनारे पहुँचा और अपने अतीत को याद कर फूट-फूट कर रोने लगा। फिर पानी पीकर वहीं लेट गया और सो गया। कुछ देर बाद जब उसकी आँखें खुली तो अपने आप को एक घर में पाया। तभी एक महिला उसके पास पानी और चाय लेकर आई। वह अपनी पुत्री पूर्णिमा को भूल चुका था। पूर्णिमा ने अपना परिचय देते हुए उन्हें पानी और चाय पीने को दी। फिर माधव के बाल दाढ़ी कटवा कर उन्हें स्नान कराकर साफ-सुथरे कपड़े पहनाकर भोजन करवाई। इस तरह अब माधो खुशी पूर्वक अपनी पुत्री के साथ रहने लगा। उनकी मृत्यु पर पूर्णिमा ने ही मुखाग्नि देकर उनकी आत्मा को शांति दिलाई।
            इधर शंकर यह सब देखकर प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहा था। वह मन ही मन यह सोचकर खुश था मेरी बहू सचमुच पूर्णिमा के चाँद की तरह चमकने वाली बेटी है।


विजय सिंह "नीलकण्ठ"
मड़वा बिहपुर भागलपुर 
मध्य विद्यालय मोती टोला
इस्माईलपुर भागलपुर

17 comments:

  1. कहानी में शुरू से बना हुआ रोमांच अंत में शिथिल हो जाता है ।इस पर थोड़ा और ध्यान दिया जाता तो अच्छा होता ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!

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  2. पूर्णिमा के जैसे कई बच्चे पढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ना चाहते हैं,लेकिन माता पिता, समाज के दबाव में कुछ नहीं कर पाते। बच्चे को यदि प्रोत्साहन दिया जाय तो निश्चित ही उनका भविष्य उज्ज्वल होगा। बहुत बढ़िया।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!

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  3. बहुत ही अच्छी प्रेरणादायक कहानी है।सच में,जिसे तिरस्कार,हेय एवं उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया वही बुढ़ापे में उसका संबल बनी।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!

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  4. बहुत अच्छी कहानी के लिए बधाई सर।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!

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  5. बहुत सुन्दर मित्र.💐🙏

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!

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  6. बहुत बढ़िया। धन्यवाद

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद मित्र!

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  7. बहुत ही समसामयिक एवं प्रेरणा दायी कहानी।
    बहुत-बहुत धन्यवाद।

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