Saturday, 9 May 2020
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महावीर-रोमा कुमारी
महावीर
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बात उन दिनों की है जब न तो गाँव-देहात तक कोई पक्की सड़क जाया करती थी और न दूर-दूर तक की खबरें चंद मिनटों में प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचा करती थी। तब झारखंड नामक राज्य का कोई नामोनिशान तक नहीं था, लेकिन हाँ बिहार में तब दो परगनाएँ काफी मशहूर हुआ करती थी, एक छोटानागपुर तथा दूसरा संथाल परगना।
90 के दशक में संथाल परगना के साहिबगंज जिले के छोटे से कस्बे के सुदूर पहाड़ी आदिवासी इलाके में एक मास्टर साहब का तबादला हुआ। विकास से कोसों दूर यह आदिवासी क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य का बड़ा धनी था। एक तरफ छोटी बड़ी पहाड़ियाँ और दूसरी तरफ बहती हुई नदी। उन पहाड़ियों पर ही आदिवासियों की झुरमुट बस्तियाँ थी और बस्तियों के बीच में एक प्राथमिक विद्यालय। कस्बे से विद्यालय तक पहुँचने में मास्टर साहब को 5 से 6 किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ती थी क्योंकि बीच में गहरी नदी थी जिसे साल के 4 से 5 महीने नाव से पार करना पड़ता था और शेष महीनों में नदी के छिछले पानी को पैदल ही पार करना पड़ता था। नदी के इस पार कुछ ईंट के पारंपरिक भट्टे लगे हुए थे जिसमें आदिवासी इलाकों की औरतें और बच्चे कच्ची ईंट बनाने का काम किया करते थे। बच्चे गीली मिट्टी से कभी-कभी खेलने भी लग जाते जिसके कारण ठेकेदार से उनको झड़प भी सुनने को मिलती।
मास्टर साहब की नजरें अनायास ही उन बच्चों पर चली जाती जब वह नदी को पार कर रहे होते।
एक दिन विद्यालय से लौटते वक्त भट्टे के पास के पेड़ के किनारे अपनी पैंट की गीली मिट्टी को साफ करते और सुखाते समय मास्टर साहब की नजरें ईट भट्टे की ओर काम करते बच्चों पर पड़ी। वह बच्चे आपस में कुछ बात कर रहे थे ।
एक बच्चा- अरे हम सब बड़ा होकर क्या करेगा?
दूसरा बच्चा- करना क्या है अम्मा-बप्पा मजदूरी करता है तो हम सब भी बड़ा होके मजदूर बनेगा।
तीसरा बच्चा- अरे.. तुमको मजदूर बनना है तो बनो हम तो नहीं बनेगा।
पहला बच्चा- अरे काहे.. तुमको या तुम्हारे बप्पा को का लॉटरी लगी है!( हँसने की आवाज)
तीसरे बच्चे की आँखों में एक अनोखी चमक थी और चेहरे पर आशा के भाव। उसने कहा- अरे नहीं रे..सुना है अपने गाँव में एक मास्टर आया है, हमरा एक दोस्त कहता है कि उसके पास जादू है, वह सबको जो चाहे वह बना देता है।
दूसरा बच्चा- अच्छा! तुमरा दोस्त सच कहता है का ? तुम उसको देखे हो का?
तीसरा बच्चा- हम उसको देखे तो नहीं है, पर हाँ! हमरा दोस्त कहता था कि वह देखने में हम लोगों के जैसा है काला-काला पर उसको हमरा भाषा 'संथाली' नहीं आता है 'उ' दका को भात बोलता है, पगला है.."( हँसने की आवाज)
दूसरे दिन मास्टर साहब उन बच्चों से मिलने की ख्वाहिश लिए सवेरे ही अपने डेरे से निकल कर विद्यालय की ओर चल पड़े। ईंट भट्टे के पास आकर उन्होंने बच्चों की तरफ कुछ इशारा किया। सौम्य एवं शांत व्यक्तित्व को देखकर चमकीले आँखों वाला बच्चा अपने आप को रोक न सका। अपने माथे पर 4 ईंटों के भार सहित वह दस-बारह बरस का बच्चा दौड़ता हुआ उनकी तरफ आया।
चमकीले आंखों वाला बच्चा- तुमको ईंटा लेना है! ठेकेदार अभी नहीं आया है।
मास्टर साहब- नहीं
बच्चा- का लेगा?
मास्टर साहब- हम कुछ लेने नहीं आए हैं।
बच्चा- तो फिर..
मास्टर साहब- हम संथाली सीखने आए हैं।
बच्चा- किससे?
मास्टर साहब- महावीर से।
बच्चा- (आश्चर्य चकित होकर) महावीर! कौन महावीर? यहाँ कोई महावीर नहीं है।
मास्टर साहब- अरे तुम हो.. हाँ हाँ तुम। 4 ईटों का भार माथे पर होते हुए भी तुम दौड़कर मेरे पास आए हो तो तुम हुए न महावीर।
बच्चा मुस्कुराते हुए बड़े आश्चर्य से पूछने लगा- तुम जादू जानता है! तुम मास्टरजी हो?"
मास्टर साहब- हाँ.. तुम मुझे संथाली सिखाओगे ना।
बच्चा- हाँ, हाँ
बच्चा ईंट को भट्टे के पास पहुँचाकर अपनी अम्मा को मास्टर जी के बारे में बड़ी उत्सुकता से बताता है।
महावीर- अम्मा, अम्मा!
अम्मा- क्या है?
महावीर- अम्मा वो हमारे भट्टे पर मास्टर जी आया है और कहता है हमसे कि हमको संथाली सिखा दो।
अम्मा- कहाँ है?
महावीर दौड़कर मास्टर जी को अम्मा के पास लाता है।अम्मा के हाथ गीली मिट्टी से सने हैं और मिट्टी के एक एक लोये को ईंट के साँचे में डालती जाती है। तभी मास्टर जी उनसे कुछ कहते हैं।
मास्टर जी- अम्मा आपका बेटा बड़ा ही होनहार है मैं आपके गाँव में नया आया हूँ , यहीं पहाड़ी की ढलान के विद्यालय में मैं बस्ती के बच्चों को पढ़ाता हूँ पर मैं आपकी संथाली बोली को नहीं जानता जिससे मुझे गाँव में बच्चों की भाषा समझने में दिक्कत हो रही है क्या आप अपने बेटे को मेरे साथ विद्यालय भेजेंगी।
अम्मा- (रुआंसी आवाज में) "मास्टर जी हमरा मरद घर में बीमार पड़ा है। हम मजदूरी करके अपना पेट भरता है। अगर हमरा बेटा विद्यालय जाएगा तो हम अकेला मजदूरी नहीं कर पाएगा। मजदूरी नहीं करेगा तो खाएगा क्या?"
मास्टर जी- "अभी सुबह का विद्यालय चलता है यह हमारे साथ सुबह नदी पार करके चला जाएगा और 10 बजे मैं इसकी छुट्टी कर दूँगा। क्या रे महावीर हमको संथाली सिखाएगा ना?
महावीर - जी मास्टर जी!
अगले दिन से महावीर सुबह मास्टर जी के साथ विद्यालय जाने लगा।
एक दिन मास्टर जी विद्यालय में सत्तू घोल रहे थे।
महावीर- "मास्टर जी तुम क्या पीता है"?
मास्टर जी- "हम सत्तू पीता है, तुम पिएगा थोड़ा पी कर देखो अच्छा लगेगा।
महावीर- "हाँ-हाँ बहुत अच्छा लगा। हम भी कल तुमको कुछ पिलाएगा। अरे चंदू हांसदा कल हम दोनों भी मास्टर जी के लिए कुछ पीने को लाएगा।
मास्टर जी- "अच्छा बच्चों तुम आज क्या खाकर घर से आए हो"?
छोटा बच्चा- "दका जोम किता"।
महावीर- "मास्टर जी ये बोलता है भात खाया है। दका मतलब भात, जोम मतलब खाना( खाने का इशारा करते हुए)।
मास्टर जी- "दका जोम मतलब भात खाना!
दूसरे दिन महावीर अपने साथी के साथ मास्टर जी को कुछ पिलाने के लिए मिट्टी की छोटी से हांडी में लेकर आया।
मास्टर जी- "ये क्या है"?
महावीर- "यह ताड़ी है। इसे यहाँ सभी मरद, औरत और बच्चा भी पीता है। मास्टर जी तुम भी पियो ना...
मास्टर जी- "ये देखों! इससे कैसी बदबू आ रही है और मक्खी भी भिन-भिना रही है। ये अच्छी चीज नहीं है, इसे पीने से लोग बीमार पड़ जाते हैं। मैं अगर बीमार पड़ गया तो..तो मेरे भी बच्चे भूख से बिलबिला कर मजदूरी करते नजर आएँगें। मैं नहीं पीउँगा।
महावीर को तो मानो जैसे काठ मार गया। उसकी चमकीली आँखों में मोती जैसे आँसू आ गए
तथा उसके अपने पिता की बीमारी का प्रमुख कारण वह ताड़ी की हांडी उसकी आँखों के सामने नाचने लगा। जिसकी वजह से उसे अपनी माँ के साथ मजदूरी करनी पड़ रही थी और उसे ठेकेदार की भद्दी गालियाँ भी सुननी पड़ती थी। महावीर उस हांडी के साथ विद्यालय से बाहर तेजी से निकला और उस हांडी को जोर से जमीन पर पटक कर फोड़ दिया और अपने आप से कहने लगा "अब फिर मेरा बप्पा बीमार नहीं पड़ेगा"।
धीरे-धीरे महावीर मास्टर जी के साथ घुल-मिल गया। उसने एक दिन मास्टर जी से पूछा-
महावीर- "मास्टर जी एक पू्छूँ? क्या आपके पास कोई जादू है! जिससे बच्चा जो बनना चाहे वो बन जाए।
मास्टर जी-"हाँ, है मेरे पास ज्ञान का जादू है। इसके लिए पहले पढ़ना-लिखना सीखना पड़ेगा क्योंकि किताबों में ही वह जादू है"।
महावीर- "तब तो मैं खूब पढ़ूँगा। क्या आप मुझे पढ़ना- लिखना सिखा देंगे"?
महावीर की आँखों की चमक बढ़ती जा रही थी।
मास्टर जी- "क्यों नहीं थोड़ी सी मेहनत और लगन से तुम सब कुछ आसानी से सीख जाओगे"।
धीरे-धीरे महावीर पढ़ना-लिखना सीख गया। एक दिन मास्टर जी से महावीर बोला- "मास्टर जी मैं बड़ा आदमी बनना चाहता हूँ। मैं अपने बप्पा की तरह बड़ा होके मजदूरी नहीं करना चाहता। मैं बड़ा आदमी बनना चाहता हूँ, बहुत बड़ा। मास्टर जी, क्या मैं बड़ा आदमी बन सकता हूँ"?
मास्टर जी- "हाँ क्यों नहीं अगर तुम्हें 50 रुपये का काम मिले तो तुम पूरी ईमानदारी के साथ 500 रुपये का काम समझकर करना और यही सोचना कि इसी मेहनत और ईमानदारी से मुझे एक दिन बड़ा आदमी बनना है, तो तुम जरूर बन जाओगे।"
धीरे-धीरे समय बीतता गया और महावीर अब बड़ा हो गया वह प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा ग्रहण का हाई स्कूल में चला गया। मास्टर जी का तबादला भी घर के पास के विद्यालय में हो गया।
एक दिन मास्टर साहब अपने घर से विद्यालय ज्योंहि पहुँचें तभी वहाँ एक बड़ी सी गाड़ी आकर लगी। उस गाड़ी से सांवले रंग का चुस्त-दुरुस्त नौजवान कोट- पैंट पहने हुए निकला और मास्टर जी के चरणों को छूने लगा।
मास्टर जी- "आप कौन हैं भाई? मैंने आपको पहचाना नहीं"।
युवक- "मास्टर जी मैं आपका महावीर"! यह कहकर उसकी आँखें भर आईं और उनके गले से लिपट गया।
थोड़ी देर दोनों ही खामोश रहे फिर मास्टर जी ने कहा-
मास्टर जी- "मैंने अपने तबादले की सूचना पाते ही तुमसे मिलने की बहुत कोशिश की पर तुम उस गाँव में नहीं मिले।"
महावीर- "मेरे पिता के निधन के बाद मैं रोजी-रोटी कमाने के लिए गाँव के चाचा के साथ दिल्ली चला गया। वहाँ उसने मुझे एक सेठ के यहाँ रखवा दिया। मैं वहीं काम करने लगा। पर मेरी आँखों में बड़ा आदमी बनने का सपना था इसलिए जब भी मैं अपनी आँखें बंद करके सोता तो मास्टर जी आप मेरे सामने आ जाते और कहते "महावीर तुम्हें बड़ा आदमी बनना है न तो हर छोटे काम को भी बड़ा काम समझकर ईमानदारी और पूरी लगन से सौ गुना फायदा समझ कर करना"। मेरी ईमानदारी और सेवा से सेठ जी का स्वास्थ्य ठीक हो गया और उनके कारोबार में भी खूब मुनाफा हुआ। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। परिवार के लोगों ने धन के लालच में उनको खूब धोखा भी दिया था, इसलिए मेरी सच्चाई, सेवा और ईमानदारी देखकर उन्होंने मुझे अपना बेटा बनाने की मंशा मेरे सामने प्रकट की। मेरी आँखें भर आईं। उन्होंने कानूनी तौर पर मुझे अपना बेटा स्वीकार किया और आगे की पढ़ाई भी कराई जिसके फलस्वरूप आज मैं आपके सामने इस रूप में खड़ा हूँ।
मास्टर जी, आपके पास सचमुच में जादू है!
रोमा कुमारी
मध्य विद्यालय बालूधीमा
रानीगंज, अररिया, बिहार
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बहुत ही अच्छा लिखी है आप ।इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteरोमा जी रचित यह लेख उनके शिक्षक पिताजी के जीवनी पर आधारित है जो शीघ्र ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं। बेहतरीन लेखनी! धन्यवाद
ReplyDeleteअतिसुंदर-अतिसुंदर! यह केवल एक शिक्षक हीं कर सकते हैं।
ReplyDeleteअति सुंदर लेख।
ReplyDeleteदिल को छू गया !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व लाजबाव रचना।इस हेतु आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteलाजवाब!
ReplyDeleteसुंदर रचना।
Very good
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।।
ReplyDeleteवाह.. वाह.,. वाह शानदार आलेख
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