Thursday, 4 June 2020
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बूढ़ा बरगद-अरविंद कुमार
बूढ़ा बरगद
अमरपुर थाना में पदस्थापित दारोगा रमेश, खाना खाकर हैंगर से लटकी वर्दी उतारने लगा। अच्छी कद काठी, सांवला रंग, हृष्ट-पुष्ट शरीर, माथे पर तेज, मानो उसका शरीर ,वर्दी के लिए ही बना हो। कमर में बेल्ट डालते ही फोन की घंटी बजी। फोन रीसिभ करते ही दूसरी तरफ से आवाज आई- भैया! बाबू जी नहीं रहे, आप जल्दी से घर चले आइये, सब लोग आपका इंतजार कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल से रमेश का भाई सुधीर कलपते हुए इतना बोल पाया और फिर दूसरी तरफ से फोन का संबंध विच्छेद हो गया ।
दारोगा रमेश के आवास के उत्तरी सिरे पर आम के पेड़ पर बैठा एक काला कौआ आज सुबह से ही रह-रहकर कांव-कांव कर रहा था।
खबर सुनकर, कानून की हिफाजत करने वाला सख्त इन्सान, ममता व करूणा की आंतरिक चोट खाकर फफक पड़ा। परिवार के मुखिया को रोते देख पत्नी व बच्चों के बीच चीख-पुकार मच गई । आंगन में रोने की आवाज सुन, पेड़ पर बैठे कौए की फड़फड़ाहट भी तेज हो गई मगर चंद मिनटों के बाद ही वो वक्त का बेपरवाह पक्षी आम की डाल को छोड़कर अपनी अगली मंजिल की और निकल पड़ा।
आनन-फानन में छुट्टी लेकर रमेश नीजी वाहन से सपरिवार मधेपुरा के लिए निकल पड़ा। चार पहिया वाहन सड़क पर दौड़ लगाता हुआ आगे बढ़ रहा था, पीछे छूट रही थी शहर की उँची-उँची इमारतें, रेलवे स्टेशन, नदी, नहर, पूल-पुलिया एवम खेत-खलिहान।
रास्ते में गाँव की यादें, भाई-बहन का प्यार, बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद पिता की दोहरी भूमिका, गरीबी, संघर्ष, भूख जैसै दृश्य एक के बाद एक किसी चलचित्र की भांति रमेश के सामने दिखाई पड़ने लगे।
बचपन में ही रमेश की माँ का देहांत हो चुका था। पिता लक्ष्मण प्रसाद ने मेहनत, मजदूरी कर तीनों बच्चों का परवरिश किया। जब बच्चे थोड़ा होशियार हो गये तो गाँव के ही स्कूल में उनका नामांकन करवा दिया। धीरे-धीरे दुःख-सुख से भरा समय का पहिया आगे बढ़ता रहा। अब लक्ष्मण प्रसाद का बड़ा बेटा रमेश नौवीं कक्षा में पहुँच चुका था। बेटी गीता और बेटा सुधीर भी अब होश संभाल चुके थे। समय की रफतार व बढ़ती उम्र के बीच एक रोज चौकिदार घनश्याम के कहने पर लक्ष्मण प्रसाद, दैनिक मजदूरी छोड़ मधेपुरा S.P. साहब के यहाँ नौकर हो गये। S.P. साहब का घरेलू काम निबटाना, बाजार से सब्जियाँ लाना, साहब के बच्चों का देखभाल करना और देर शाम वापस अपने घर लौट आना लक्ष्मण का दिनचर्या बन गया था। अपने सेवा भाव से उसने बहुत ही कम समय में अपने मालिक S.P.साहब का दिल जीत लिया था ।
एक रोज S.P. साहब अपने आवास पर ही कुछ जरूरी कागजात का स्टडी कर रहे थे इसी बीच लक्ष्मण गरमा-गरम चाय लेकर अपने साहब के पास पहुँचा। लक्ष्मण तुम्हारा कोई लड़का-वरका है ? S.P. साहब ने लक्ष्मण के हाथ से चाय लेते हुए पुछा।
हाँ सर दो लड़का और एक लड़की है। बड़ा लड़का 12वीं की परीक्षा दिया है, हुजूर !
लक्ष्मण ने उत्सुकता पूर्वक जबाब दिया। उसके जबाव में बेटे के उज्ज्वल भविष्य की चिंता थी।
एक काम करो लक्ष्मण, अगले साल सिपाही भर्ती की बहाली निकलने वाली है। तुम रोज सुबह
अपने बेटे को दिनकर स्टेडियम भेज दिया करो। मैं भी सुबह व्यायाम के लिए उसी स्टेडियम में जाता हूँ। मैं तुम्हारे बेटे की मदद करना चाहता हूँ। S.P. साहब ने कहा।
साहब की बात सुनकर लक्ष्मण अवाक था, उसके मन में s.p साहब के प्रति कृतज्ञता व श्रद्धा की लहरें उफान मार रही थी, उन्हें ऐसा लग रहा था मानो किसी गरीब को करोड़ो रुपये की लाॅटरी लग गई हो।
जिन्दगी के अनुभव ने लक्ष्मण को इतना तो जरूर बता दिया था कि अगर साहब जी जैसै बड़े लोग किसी के सर पे हाथ रख दे तो उसकी जिंदगी बन जाय।
एक साल तक रोज घर से तीन किलोमीटर की दूरी तय करना तथा मैदान में पहुँचकर जम कर पसीना बहाना अब रमेश के जीवन का हिस्सा बन गया था।
s.p. साहब के मार्गदर्शन एवम सहयोग से रमेश अगले ही वर्ष सिपाही भर्ती परीक्षा में सफल हो गया।
समय ने करवट बदली पदोन्नति के सहारे रमेश ने पहले ASI तथा बाद में थानाध्यक्ष तक के सफर को पूरा किया । रमेश कुछ दिन पहले ही बुजुर्ग पिताजी का इलाज करवा कर वापस अमरपुर लौटे थे। नौकरी का तकाजा था इसलिए घर पर नही ठहर पाए। हालाँकि रमेश कई बार पिताजी को अपने साथ अमरपुर जाने की जिद्द कर चुके थे मगर उनके पिता है कि गाँव की मिट्टी को छोड़ना ही नही चाहते थे।
एकाएक रमेश की तंद्रा भंग हुई सुनहरी यादों का सफर अब धुंधला पड़ने लगा। सामने रमेश के गाँव का बूढ़ा बरगद, आम के बगीचे, खपैती नदी व विशाल खाली मैदान बांहें फैलाये रमेश का दीदार कर रहा था। अपना गाँव अर्थात जननी जन्म भूमि को देखकर रमेश ने मन ही मन उसे प्रणाम किया। रमेश की गाड़ी जैसै ही दरवाजे पर आकर लगी, भाई सुधीर और बहन देवकी रमेश से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगे। रमेश अपने आंसुओं को पीकर तत्काल बड़े भाई का फर्ज निभाते हुए गाँव वालों की मदद से क्रिया-कर्म के विधान में शामिल हो गए। लक्ष्मण प्रसाद के अंतिम दर्शन करने को पूरा गाँव उमड़ पड़ा था। अर्थी सजाई जा रही थी, अब लक्ष्मण प्रसाद का पार्थिव शरीर अपनी अंतिम यात्रा पर था। जैसै ही आस पड़ोस के लोगों ने लक्ष्मण दास के शरीर को अर्थी पर डालने के लिए पकड़ा। रमेश के सब्र का बांध टूट गया। वह संघर्ष, त्याग व बलिदान की प्रतिमूर्ति लक्ष्मण प्रसाद से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगा। उनके आंखों से बहते आँसू सावन के बरसात को भी पीछे छोड़ रहा था।
परंपरागत समय के अनुसार भोज का आयोजन हुआ। भोज काफी बड़े पैमाने पर किया गया। काफी लोगों को आमंत्रित किया गया था। रमेश खूद आते-जाते हर एक आदमी का हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुए उनका पूरा ख्याल रख रहे थे । दरोगा भैया, दरोगा भैया- लक्ष्मण बाबा तो मेरा गला पकड़ रहे हैं। भोज खा रहे कलुआ ने बांये हाथ से अपना कंठ पकड़ते हुए बोला ।
अरे क्या हुआ कल्लू- " रमेश ने आश्चर्य से पूछा"?
अरे! दारोगा भैया इ कलुआ मेरा बचपन का दोस्त है।इसका सब खेला हम जानते है। जब इसको भोज में रसगुल्ला खाने का मन होता है तो इ ऐसै ही नाटक करता है। ले कलुआ ले और ले रसगुल्ला, ढेर सारा रसगुल्ला कलुआ को देते हुए, हरिचरण बोला।
कलुआ के आस-पास भोज खा रहे लोगों में हँसी फूट पड़ी।
क्रिया-कर्म और भोज का दौर समाप्त होते ही मेहमानों से घर खाली हो चुका था। खाली घर रमेश के परिवार को पुन: दुःख का एहसास रहा था। अगले रोज रमेश, पत्नी कविता व बच्चें वापस अमरपुर जाने के लिए घर से निकल पड़े थे। भाई को जाते देख, सुधीर उससे लिपट कर फफक पड़ा। रमेश अपने भाई सुधीर को सजल नेत्रों से देखते हुए कहा- बाबूजी तो मेरा मरा है। अनाथ तो मैं हो गया हूँ, तुम्हारे लिए तो पिताजी के बदले मैं हूँ न सुधीर! तुम मेरा बेटा भी है और भाई भी। मेरा जो कुछ भी है वो सब तुम्हारा ही तो है। मेरे किसी भी चीज पर सबसे पहले तुम्हारा हक है इसके बाद ही मेरे बच्चों का। भाभी कविता सुधीर के आँखों से बहते आँसू पोछते हुए बोली- तुम्हारा जब मन करें अमरपुर आ जाना, सब कुछ तो तुम्हारा ही है।
ड्राइवर गाड़ी के रफ्तार को धीरे-धीरे बढा रहा था।
सामने बूढ़ा बरगद भी रमेश को गाँव से जाते देख उदास था। रमेश ने बूढ़े बरगद से कहा- जा रहा हूँ बट बाबा।जननी जन्मभूमि और यहाँ के लोगों का ख्याल रखना। रमेश ने भीगीं आँखों से बूढ़ा बरगद को प्रणाम किया।
गाड़ी अब रफ्तार पकड़ चुकी थी।पीछे छूट रही थी बचपन की यादें और बाबूजी का स्नेह।
अरविंद कुमार
भरगामा
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Nice 👌
ReplyDeleteहमारे माता-पिता और बुजुर्ग अभिभावक बूढ़े बरगद के समान ही होते हैं जिनकी छत्रछाया की जरूरत हमें जीवन भर रहती है। भले ही वो उम्र की ढलान पर सक्रिय रूप से ज्यादा कुछ नहीं कर पाते हों, पर उनका होना ही हमारे हौसले को बुलंद रखता है और हमें बड़ी से बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए हिम्मत देता है। बदलते सामाजिक परिवेश में संयुक्त परिवार की अवधारणा को काफी नुकसान पहुंचा है तथापि बड़े बुजुर्गो के अनुभव का लाभ एवं उनकी छत्रछाया पाने की अभिलाषा हम सभी की होती है। व्यवहारिक जीवन से जुड़े मर्मस्पर्षी रचना हेतु बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं.....
ReplyDeleteNice and appreciable article. Many many thanks sir
ReplyDeleteइसे पढ़कर नागार्जुन की रचना "पीपल" की याद आ गई।
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुंदर आलेख!
धन्यवाद बहुत-बहुत
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी व हृदय स्पर्शी भाई,,,,,,,,
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