हमारा जीवन-बीनू मिश्रा - Teachers of Bihar

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Sunday, 31 May 2020

हमारा जीवन-बीनू मिश्रा

हमारा जीवन

          जिस मकान में मैं ठहरी थी उसकी खिड़की के सामने ही खड़ा था एक पूरा समृद्ध पहाड़ी पेड़। सुबह की रक्ताभ किरणें उस पेड़ पर पड़कर एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रही थी। मैं ऐसा महसूस कर रही थी कि मेरी कुशल समाचार पूछने आया मेरा मित्र हो। कहते हैं कि देखने वाले की आँखें सुंदर हो तो उसे हर चीज सुंदर ही दिखाई देती है। इस प्यारी सी सुबह में मैं लेटे-लेटे उस पेड़ को देख रही थी। हवा मौज में थी। पेड़ के ऊपर उषा की सतरंगी किरणों ने अपनी चादर फैला दी थी। पेड़ को पूरा देखने के लिए मैं खिड़की के पास आ बैठी। अब वह पेड़ मुझे जड़ से फुनगी तक दिखाई दे रहा था। देखते ही मेरा ध्यान गया कि यह पेड़ हवा का तेज झोंका आते ही पूरा का पूरा इस तरह हिल जाता है जैसे बीन की तान पर कोई साँप झूम रहा हो। हवा के और तेज होते ही पेड़ और झुक जाता तथा हवा के हल्का पड़ते ही फिर सीधा हो जाता। मेरा ध्यान इस तरफ गया कि हवा कितनी भी तेज क्यों न हो पेड़ का जड़ स्थिर रहता है।
          यहीं बैठे मेरा ध्यान एक दूसरे पेड़ पर गया जो काफी नीचे था। पेड़ का ठूंठ, सूखा वृक्ष। मैं कभी उस हरे भरे पेड़ को देखती, कभी उस ठूंठ को। यह न हिलता है, न झुकता है। यह शब्द मैंने मन ही मन कई बार दोहराया। न हिलना ना झुकना। दूर अंतर में कुछ स्पर्श हुआ। पर वह स्पर्श सूक्ष्म था, यूं ही संकेत सा। शब्द चक्कर काटते रहे। तब आया यह वाक्य- 'न हिलना, न झुकना,' जीवन की स्थिरता का, दृढ़ता का चिन्ह है और वह वीर पुरुष है जो न हिलता है और न हीं झुकता है। पर उस ठूंठ में जीवन कहां है? वह तो मुर्दा पेड़ है। न हिलना न झुकना जीवन की स्थिरता का चिन्ह हुआ या मृत्यु की जड़ता का?
          अजीब उलझन थी पर समाधान क्या था? मैं दोनों को देख रही थी, देखती रही। तब मेरे मन में आया कि जो परिस्थितियों के अनुसार हिलता झुकता नहीं, वह जड़ है। क्योंकि हिलना और झुकना ही जीवन का चिन्ह है, हिलना और झुकना यानी परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालना अर्थात समझौता। जिस जीवन में समझौता नहीं, सामंजस्य नहीं वह जीवन कहाँ है? वह जीवन की जड़ता है। जैसे यह ठूंठ और पहाड़ का शिखर। मुझे ध्यान आया कि जीते-जागते जीवन में भी एक ऐसी मनोदशा आती है जब मनुष्य हिलने और झुकने से इंकार कर देता है। अतीत में रावण और हिरण्यकश्यप इस दशा के प्रतीक थे तो इस युग में हिटलर, जो केवल एक ही मत को सही मानते थे जो स्वयं उनका था। इसी का नाम है, 'डिक्टेटरशिप' या 'अधिनायकता'
          बात यह है कि हमारा जीवन भी इस वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसका कुछ भाग हिलने झुकने वाला हो और कुछ भाग स्थिर रहने वाला। यही जीवन की पूर्ण सार्थकता होगी। जीवन वह है जो समय पर अड़ भी सकता है, समय पर झुक भी सकता है। पर वह ठूंठ है, जो न अड़  सकता है, न झुक सकता है।
"हम दृढ़ बनें, जड़ नहीं"
तभी हवा का एक झोंका आया और पेड़ हिल उठा। मेरी दृष्टि उसके शिखर से जड़ तक चली गई। वह अब भी हिल रहा था और ठूंठ अनझुका, अनहिला ज्यों का त्यों खड़ा था


बीनू मिश्रा 
   

6 comments:

  1. बहुत-बहुत सुन्दर!

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  2. 'ना हिलना और ना झुकना'....यह अपनेआप में व्यापक अर्थ समेटे हुए है।

    सुंदर रचना 👏👏👌

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  3. हमारा जीवन पर आपने अच्छा आलेख लिखा है मैम।आप इसी तरह से और भी आगे लिखिए। वाकई हम जीवन में दृढ़ बनें, जड़ नहीं।

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  4. Bahut sundar rachna, heart touching 👌👌

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  5. बहुत सुन्दर रचना,दिल को छू लेने वाली 👌👌

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