Wednesday, 17 June 2020
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बदलाव-डाॅ. सुनील कुमार
बदलाव
"ये देखो! देखो-देखो! क्या इसे देख कर बता सकते हो कि यह खून हिन्दू का है या मुस्लिम का? सभी का खून एक जैसा ही रहता है"। यह डायलॉग नाना पाटेकर ने फिल्म क्रांतिवीर में दिया था।
बात तो सही है लेकिन खून का रंग भले ही एक हो, ब्लड ग्रूप अलग-अलग हो सकता है। यहाँ तक कि जरूरी नहीं कि परिवार के सभी सदस्यों का ब्लड ग्रूप एक समान ही हो यानी मैच कर ही जाए। जिस प्रकार एक ही परिवार के अलग-अलग सदस्य का ब्लड ग्रूप अलग-अलग हो सकता है ठीक उसी प्रकार एक ही परिवार के सदस्यों का स्वभाव, शारीरिक बनावट, विचार, सोच, पसंद, भोजन, कार्य-क्षमता, कार्य-रूचि आदि भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। जब एक परिवार में इतनी भिन्नताएं हो सकती हैं तो समाज की तो बात ही कुछ और है।
क्या इसे हम विद्यालयी स्तर पर ऐसे नहीं देख सकते कि विद्यालय में विभिन्न परिवेश से आये भिन्न-भिन्न क्षमता वाले बच्चों का भिन्न-भिन्न अनुभव जब एक साथ मिल जाएगा तो मानो विद्यालय में सकारात्मक सोच को नया बल मिलेगा? यही बात समाज के बड़े लोगों के लिए भी लागू होता है। प्रत्येक व्यक्ति हर काम को नहीं कर सकता, इसका मतलब यह कतई नहीं कि उससे दूसरा काम भी संभव नहीं है। कोई व्यक्ति किसी काम में रुचि रखता है तो दूसरा व्यक्ति किसी अन्य कार्य में। प्रत्येक व्यक्ति खास होता है। किसी में कुछ गुण तो किसी में कुछ और गुण। इसीलिए कभी भी एक दूसरे से किसी की तुलना करना ठीक नहीं है। जो इस प्रकार की तुलना करते हैं वे नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। यह बताने की कोशिश करते हैं कि इनमें अमुक श्रेष्ठ है, बढ़िया है, महान है जबकि दूसरा निम्न श्रेणी का है।लेकिन ऐसी बात नहीं है। सबके अपने-अपने महत्व हैं। सभी खास हैं। इनकी आपसी तुलना नहीं की जा सकती। इनमें कोई एक श्रेष्ठ और दूसरा निम्न नहीं हो सकता। तुलनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले लोग मानसिक दुर्बलता के शिकार होते हैं। ऐसी मानसिकता वाले लोग चीजों को अपने हिसाब से परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। असल में चश्मा जैसा रहेगा चीजें वैसी ही तो दिखेंगी।
अतः सिर्फ एक पहलू पर नजर रखकर निर्णय तक पहुँचना न्यायसंगत नहीं और यदि ऐसा होता है तो यह बुद्धिहीनता का ही परिचायक है। घर हो या विद्यालय हम बच्चों या अन्य के साथ भी ऐसे ही अन्याय करते आ रहे हैं। तुलना नहीं बल्कि आवश्यकता है बच्चों के स्वभाव को परखना एवं उसके अनुकूल मार्गदर्शन करना।
👉 आइए जॉर्ज रिएविस की काल्पनिक कहानी, 'द एनिमल स्कूल' के कुछ अंश से इसे समझने की कोशिश करते हैं--
एक बार जानवरों के प्रधान ने फैसला किया कि उन्हें ‘नई दुनियाँ’ की समस्याओं को संबोधित करने एवं अपने आप को स्थापित करने के लिए कुछ अलग करना होगा, इसलिए उसने एक विद्यालय तैयार किया।
• दौड़, चढ़ाई, तैराकी और उड़ान से जुड़े एक गतिविधि पाठ्यचर्या को अपनाया गया।
• पाठ्यचर्या संचालन आसान बनाने के लिए, सभी जानवरों को प्रत्येक विषय लेना आवश्यक बनाया गया।
• बत्तख तैराकी में उत्कृष्ट थी। वास्तव में, अपने प्रशिक्षक से भी बेहतर थी, लेकिन उड़ान में उसे केवल पास होने लायक ग्रेड मिले लेकिन वह दौड़ने में बहुत कमज़ोर थी, इसलिए उसे दौड़ने का अभ्यास करने के लिए विद्यालय के बाद रुकना पड़ा और तैराकी भी छोड़नी पड़ी।
• ऐसा तब तक किया गया, जब तक कि तैरने में सहायक उसके जालीदार पैर खराब नहीं हो गए और वह तैराकी में शीर्ष से औसत स्तर पर आ गई लेकिन विद्यालय में औसत स्वीकार्य था इसलिए किसी को भी इस बात की ज़रा-सी भी चिंता नहीं थी, सिवाय बत्तख के।
• खरगोश ने अपनी शुरुआत कक्षा में दौड़ने में अव्वल आने से की, लेकिन तैराकी में उसे इतना सारा काम करना पड़ा कि उसका मानसिक संतलुन जैसे बिगड़ ही गया था।
• गिलहरी चढ़ाई करने में तब तक उत्कृष्ट थी जब तक कि उसकी रुचि ख़त्म नहीं हुई लेकिन फिर उसके शिक्षक ने उसे पेड़ से नीचे की ओर बार-बार आने की बजाय उसे केवल जमीन से पेड़ की ओर ही बार-बार जाने के लिए कहा और मामला बिगड़ना शरू हो गया। उसे बहुत मेहनत करने के लिए कहा गया और परिणामस्वरुप उसे चढ़ाई में ‘सी’ और दौड़ने में ‘डी’ ग्रेड मिला। जबकि चढ़ाई में सबसे आगे थी।
• बाज़ एक समस्या वाला बच्चा था और उसे गंभीरता से अनशुासित किया गया। चढ़ाई की कक्षा में उसने अन्य सभी लोगों को पेड़ से ऊपर पहुँचने में पराजित कर दिया लेकिन उसे पसंद नहीं किया गया क्योंकि उसने वहाँ तक पहुँचने के लिए अपने तरीके का उपयोग करने पर ज़ोर दिया।
• वर्ष के अतं में एक असामान्य ईल जो अच्छी तरह से तैर सकती थी, थोड़ी चढ़ाई, थोड़ी दौड़-भाग और थोड़ा-बहुत उड़ भी सकती थी, को सबसे अधिक औसत अंक मिले और वह विजेता बनी।
• प्रैरी कुत्ते विद्यालय से बाहर ही रहे और प्रशासन से लड़ते रहे क्योंकि खुदाई और बिल बनाने को पाठ्यचर्या में शामिल नहीं किया गया था।
अब विचार करना है कि यह गतिविधि कितना न्यायोचित था? क्या आयोजित पाठ्यचर्या/प्रतियोगिता सभी प्रतिभागियों के अनुकूल था? शायद नहीं, ठीक इसी प्रकार हम मनुष्य भी हमेशा दूसरों की जाँच के लिए तैयार रहते हैं। तुलना के लिए तैयार रहते हैं। बच्चों से भी उम्मीद करते हैं कि मेरा बच्चा यही बने चाहे वह बच्चा उसके अनुकूल हो अथवा नही!
एक और छोटे से उदाहरण से समझ सकते हैं कि यदि हमारे देश के मिशाइल मैन स्व. डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम साहब से क्रिकेट खेलने की उम्मीद की जाती, मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर से वैज्ञानिक शोध की उम्मीद की जाती, स्वर कोकिला लता मंगेशकर से डॉक्टरी क्षेत्र में उम्दा प्रदर्शन की उम्मीद की जाती तो शायद आज पूरी दुनियाँ कलाम, सचिन, लता जैसी हस्तियों को इनके नाम से नहीं जानती। कहीं न कहीं यही गलती हम भी कर रहे हैं। अक्सर दूसरों से हमारी अपेक्षा यही रहती है कि ये ऐसा करता है वो ऐसा नहीं करता है। जबकि देखा जाए तो उपदेश देने वाला स्वयं उन उपदेशों को लागू करता हो यह कोई आवश्यक नही।
निष्कर्ष:- अतः अभिभावक, मार्गदर्शक को चाहिए कि अपने और अपने बच्चों के दिल की सुनें। चाहे कोई कुछ भी कहे जो अपना दिल कहे वही करें। सुनो सबकी, करो अपने दिल की क्योंकि सभी को खुश रखना संभव नही है।
👉आइए इसे और बेहतर तरीके से इस उदाहरण द्वारा समझने की कोशिश करते हैं-
बाप, बेटा और गधा वाली कहानी सुने हैं न।
एक बार एक बाप-बेटा एक गधे को लेकर जा रहे थे। उन्हें इस तरह खाली गधे को ले जाते देख रास्ते में कुछ लोग बोले, "देखो- कैसे मूर्ख हैं। गधे को खाली लिए जा रहे हैं और खुद पैदल चल रहे हैं"। यह सुनकर पिता बेटे से बोला कि तुम गधे पर बैठ जाओ। कुछ दूर बढ़े तो लोगों ने कहा- "कैसा स्वार्थी और नाकारा बेटा है, बूढ़ा बाप बेचारा पैदल चल रहा है और ये खुद गधे पर सवार है"। यह सुनकर बेटा उतर गया और पिता से बोला कि आप बैठ जाइए। वो फिर कुछ दूर आगे बढ़े तो लोगों को बोलते सुना- "कैसा जालिम बाप है, खुद गधे पर सवार है और बेटा बेचारा पैदल चल रहा है"। यह सुनकर पिता गधे से उतर गए और इस बार दोनों एक साथ गधे पर बैठ गए। अभी कुछ ही दूर गए थे कि लोगों ने ताने दिए- "कितने निष्ठुर हैं ये दोनो, दोनों हट्टे-कट्टे एक साथ गधे पर सवार हैं। बेचारे गधे की तो जान ही निकली जा रही है। ये नहीं कि एक-एक करके बैठते"। इस बात को सुनकर अब बाप-बेटा दोनों गधे को टांग कर ले जाने लगे। बीच रास्ते में ही गधा मर गया।
तो साहब, लोगों को तो कुछ न कुछ कहना ही है। बोलो तो कहेंगे, न बोलो तो कहेंगे। धीरे बोलो तो कहेंगे, जोर से बोलो तो कहेंगे। करो तो कहेंगे, न करो तो भी कहेंगे। इसिलिए कहने वालों पर खाक डालिए और साकारात्मकता के साथ सिर्फ अपने और अपने बच्चों के दिल की करिए। बच्चों को स्वयं से करके सीखने का मौका तो दें। खुले आकाश में स्वतंत्र उड़ने तो दें, फिर देखें बदलाव।
डॉ. सुनील कुमार
डिस्ट्रिक्ट मेंटर औरंगाबाद
राष्ट्रीय इंटर विद्यालय दाउदनगर
औरंगाबाद.
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सुंदर आलेख सर।
ReplyDeleteआज के परिदृश्य पर परिवार की मानसिकता सामाजिक सोच और "कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना"
ReplyDeleteउत्कृष्ट विषय पर ध्यान दिलाया गया है
🙏
अच्छी रचना है सर
Deleteहर बच्चा अपने में एक खासियत लिए विद्यालय आता है। एक शिक्षक के रूप में हमें उसकी खासियत को पहचानने तथा उसे उभारने में उस बच्चे की मदद करने की जरूरत है। एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाते हुए भी बच्चों की अभिरुचि के अनुसार हम पाठ एवं उदाहरणों का उपयोग बच्चों की अभिरुचि को जगाने तथा उसकी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप उसके भविष्य निर्माण हेतु कर सकते हैं। एक जरूरी विषय पर सारगर्भित आलेख हेतु बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं.........
ReplyDeleteHats off to you sir for your Article. The illustration was amazing. Finally, your view is out of the world.
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुन्दर और प्रेरणार्थक!
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित और प्रेरणादायक आलेख।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत💐💐
ReplyDeleteवर्ग कक्ष में सभी विद्यार्थियों के अनुरूप शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को संपन्न करना समावेशी शिक्षा है. अब इसे व्यावहारिक रूप मिलना चाहिए.
ReplyDeleteVery Nice , Sir
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार👏
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