Sunday, 7 June 2020
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बदल गई ज़िन्दगी-राजीव नयन कुमार
बदल गई जिंदगी
आवासन केंद्र पर मोहन का अंतिम दिन था। तेरह दिन से मोहन अपने गांव के विद्यालय में बने आवासन केंद्र (क्वारेंटाइन हेतु ) पर रह रहा था। साथ में उसकी पत्नी रमा और दो बच्चे भी थे। विद्यालय में प्रवेश करते ही वो बचपन की यादों में खोता चला गया। मोहन को पढ़ने में मन नहीं लगता था। मास्टर जी की एक - एक बात याद करते हुए मोहन पश्चाताप कर रहा था। यदि मास्टरजी की सलाह मान लेता तो, आज ये दिन न देखना पड़ता। उन दिनों खूब मौज मस्ती होती थी। दीपक, नरेश, छोटन उसके बचपन के साथी थे। आम का पेड़ आज भी उन दिनों की गवाही के लिए विद्यालय के प्रांगण में चुपचाप खड़ा है। धीरे धीरे समय बीतता गया और मोहन जैसे - तैसे आठवीं पास होकर बेरोजगार हो गया। घर में अशिक्षा और गरीबी उसे वक्त से पहले ही जवान बना दिया था। गांव में ही रहकर अपने पिताजी के साथ मजदूरी करने निकल जाता था।
समय बीतता गया। समय के साथ मोहन की शादी भी हो गई और माता पिता चल बसे। गांव में काम की कमी और भेदभाव का दंश झेलना मुश्किल हो रहा था। एक दिन पत्नी के साथ काम की खोज में दिल्ली चला आया। वहां भेेेदभाव के दंश से मुक्ति मिली और एक कारखाने में छोटा सा काम भी मिल गया। वह अब अपने परिवार के साथ खुशी - खुशी जीवन यापन कर रहा था। दोनों बच्चे का जन्म भी दिल्ली में ही हुआ। अचानक लॉकडाउन होने से मोहन पुनः बेरोजगार हो गया। एक माह तो वह किसी तरह गुजारा किया। अब उसके पास शेष पाँच सौ रुपए ही बचे थे। परिस्थिति का मारा मोहन, पत्नी और दोनों बच्चो के साथ पैदल ही अपने गांव की ओर चल दिया। जब बात जान पर आ जाती है तब सभी समस्याएँ अपने आप छोटी लगने लगती है। सीने में दर्द को समेटे मोहन गाँव की तरफ धीरे - धीरे बढ़ रहा था। गाँव और शहर रूपी किनारों के बीच मोहन झूल रहा था । भीड़ की लहरों में मोहन अपने आप को असहाय छोड़ दिया। जनसमूह की धारा में मोहन अपने परिवार के साथ धीरे-धीरे मीलो लंबी रास्ते को नापता जा रहा था। हजारों प्रश्न मस्तिष्क में बिजली की तरह कौंध रही थी। गाँव में बड़जन की धौंस में कम से कम अपनापन तो होता था। यहाँ शहर में तो कोई किसी को पहचानता भी नहीं। शहरों में सिर्फ काम से ही मतलब रखते है। मोहन ख्यालों के अतल गहराइयों में समाता चला गया। नाश्ते की घंटी के साथ ही मोहन की तंद्रा टूटी। कितना बदलाव आ गया है विद्यालय और अपने गाँव में। गाँव के चालितर काका ने आकर बोला था, "घबराओ नहीं मोहन, सब ठीक हो जाएगा। बस चौदह दिनों की ही तो बात है"। इन शब्दों के साथ ही पैर के छाले से उठती हुई दर्द एक मिनट में समाप्त हो गया था। इन्हीं शब्दों को तो सुनने के लिए कान तरस गई थी दिल्ली में। चौदह दिनों में जब मास्टरजी ने विधालय के योजनाओं एवं बच्चो की पढ़ाई के बारे में बताए तो मोहन के सामने एक नया सवेरा अपनी बाहें खोले आगोश में लेने के लिए तैयार था। उसके बच्चे की नामांकन की भी बात हो गई थी। सरकार के द्वारा जॉब कार्ड की भी बात की जा रही थी। विद्यालय में माईक पर बज रहे देशभक्ति गीत "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" की धुन पर मोहन झूमने लगा था। मन ही मन सोच रहा था कि अब नहीं दिल्ली जाना। अपने बच्चों को यही सरकारी विद्यालय में पढ़ाएँगे और अपनी गाँव की मिट्टी में अपना पसीना बहाकर सोना उपजाएँगे।
राजीव नयन कुमार
रा० म० विद्यालय खरांटी
ओबरा, औरंगाबाद
दूरभाष 9835435502
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इंसान सदैव अपने बीते दिनों को याद कर अफसोस करता है अपने द्वारा की गई गलतियों के लिए। शिक्षा के महत्व को हम तभी समझते हैं जब हमारा वक्त गुजर जाता है। कितना अच्छा होता कि एक के द्वारा की गई गलतियों से सीख लेकर दूसरे उस लगती को न दुहराते। आज तमाम सुविधाओं एवं संसाधनों के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के लिए वैसी जागरूकता नहीं आ पाई है जैसी आनी चाहिए थी। कहीं न कहीं हम शिक्षक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अतः हम सभी शिक्षकों को कुछ ऐसा प्रयास करना चाहिए कि ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल जाए आने वाले दिनों में। एक स्थायी समस्या को प्रासंगिक आलेख के द्वारा खूबसूरती से प्रस्तुत करने हेतु बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं............
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteबहुत सुंदर व प्रेरक अनुभव.💐💐
ReplyDeleteVery nice experience
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