Monday, 8 June 2020
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प्रभावी शिक्षण के मूल तत्व-संजय कुमार सिंह
प्रभावी शिक्षण के मूल तत्व
शिक्षण एक कला है। यह छात्र को ज्ञान का अनुभव कराने की कला है। छात्र के समझ को विकसित करने एवं परिणाम स्वरूप उसके कौशल को समृद्ध करने की कला है। यह छात्र के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारने की कला है। स्वामी विवेकानंद जी ने इस संबंध में शिक्षा की परिभाषा देते हुए कहा है कि "EDUCATION IS THE MANIFESTATION OF PERFECTION ALLREADY IN MAN". अर्थात् शिक्षा उस संपूर्णता का जो पहले से व्यक्ति के भीतर होता है, प्रकटीकरण है। यदि शिक्षण एक कला है जो कि निश्चित रूप से है तो फिर एक शिक्षक के रूप में हमें कलाकार होना चाहिए। यहाँ कलाकार शब्द अपने सामान्य अर्थ में न होकर विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कलाकार का अर्थ सिर्फ अभिनेता, बांसुरी वादक, चित्रकार, गायक अथवा किसी विशेष फन में माहिर होना भर नहीं होता। बल्कि कला का क्षेत्र तो अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत है। हम अपनी रुचि, अभ्यास एवं प्रतिभा के बल पर अलग-अलग क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल कर कलाकार समझे जाते हैं।
एक शिक्षक के रूप में हमारे सामने एक महत्वपूर्ण दायित्व है। हम समाज की नई पीढ़ी को शिक्षित करने का काम कर रहे हैं। शिक्षित करने का मतलब सिर्फ पाठ्यक्रम पूरा करना और किताबी ज्ञान देना भर नहीं है बल्कि छात्र की अंतर्निहित विशेषताओं को पहचान कर उसकी रुचि एवं क्षमता का ध्यान रखते हुए उसके गुणों को उभारने एवं उसके क्षमता वर्धन में उसकी सहायता करना है ताकि वह शिक्षित होकर समाज के लिए उपयोगी साबित हो सके। जाहिर है यह काम इतना आसान नहीं है। हमें अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए स्वाध्यायी होने के साथ-साथ परिश्रमी भी होना चाहिए। जिस प्रकार योद्धा अनवरत अपने हथियारों में धार बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, एक कारीगर अपने औजारों के रख रखाव के प्रति सजग रहता है, सैनिक अपने हथियारों के साथ- साथ स्वयं को भी चुस्त दुरुस्त रखने के लिए तत्पर रहते हैं उसी प्रकार एक शिक्षक के रूप में हमें अपने ज्ञान एवं कौशल में अभिवृद्धि हेतु सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।
हमें बच्चों के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य की संप्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न परिवेश एवं सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों का प्रोफाइल तैयार करना चाहिए ताकि हम उनकी कमियों एवं विशेषताओं से परिचित हो सकें और ज्ञान के अपेक्षित अर्जन में उनकी सहायता कर सकें। कभी-कभी हम खेल, संगीत, व्यायाम आदि में व्यक्तिगत अभिरुचि न होने के कारण उन क्षेत्रों की उपेक्षा कर देते हैं जिससे बच्चों में उन क्षेत्रों की नैसर्गिक प्रतिभा का विकास नहीं हो पाता। इसलिए हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यदि बच्चों में कोई ऐसी प्रतिभा है जिसमें हमारी अभिरुचि नहीं है तो भी हम बच्चों को उसके महत्व के बारे में बताएँ तथा उसे प्रोत्साहित तो अवश्य करें। हमारा छोटा सा प्रोत्साहन भी बच्चों में अतिरिक्त उर्जा का संचार कर उसके भविष्य की राह आसान करता है। अतः यदि देखा जाए तो एक शिक्षक के रूप में हम अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। समाज हमें आशा भरी निगाहों से देख रहा है और हम बच्चों के भविष्य निर्माण के लिए सदैव प्रयत्नशील हैं। ऐसे में यदि हम उपरोक्त कौशलों को अपनाते हुए अपने शिक्षण कार्य का संपादन करें तो निश्चित रूप से हमारा शिक्षण आकर्षक, उपयोगी एवं प्रभावी साबित हो सकता है।
संजय कुमार सिंह
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय लक्ष्मीपुर, रानीगंज
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बिल्कुल सत्य सर👌👌🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद मैडम
Deleteबहुत-बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteप्रभावी शिक्षण पर प्रभावी आलेख सर 👌👌🙏💐💐
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteबिलकुल सत्य सर।
ReplyDeleteएक शिक्षक के ऊपर बहुत बड़ा दायित्व होता है। बस इसे इसे जरुरत है दायित्व को समझने की और सत्य निष्ठा से अपने कर्म को सौ फिसदी अपने छात्रों में समर्पित करना। जिसके अन्तर्गत आपसे बच्चे कलात्मक अभिव्यक्ति सीखकर अपने समाज और राष्ट्र को सफलीभूत कर सके।
एक सुन्दर आलेख हेतु सर को बधाई!💐💐
धन्यवाद भाई
Deleteबहुत ही सुंदर लेख सर हम सभी शिक्षकों के लिए विचारणीय और अनुकरणीय है शिक्षकों को सदैव ज्ञान विरदी नए तकनीकी का ज्ञान के लिए अध्ययनरत रहना चाहिए तभी हम बच्चों को एक सशक्त छात्र बना पाएंगे बहुत-बहुत धन्यवाद सर इस ब्लॉग पर लिखने के लिए
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर आलेख सर
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteबहुत सुन्दर आलेख सर
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteसुन्दर, भावपूर्ण, विचारोत्तेजक एवं ग्राह्य आलेख, छोटे भाई को बहुत -बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteVery very Thanks sir
ReplyDeleteTrue writing and thinking also.
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