बाबा नागार्जुन-हर्ष नारायण दास - Teachers of Bihar

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Tuesday 30 June 2020

बाबा नागार्जुन-हर्ष नारायण दास

बाबा नागार्जुन 

          नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 ईस्वी को वर्त्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। सतलखा गाँव उनका ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्त्तमान दरभंगा जिले के तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमादेवी था।षनागार्जुन के बचपन का नाम ठक्कन मिश्र था। गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संतानें हुई और असमय ही वे चल बसे। सन्तानों की मृत्यु हो जाने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। ईश्वर के प्रति आस्थावान अपने आराध्यदेव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे।
          वैद्यनाथ धाम देवघर जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में भी पूजा पाठ में भी समय लगाने लगे फिर जो पाँचवीं सन्तान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ  समय में यह चल बसेगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा का श्री गणेश गाँव में ही हुआ। मधुबनी जिले के गनोली एवं सहरसा जिले के पंचगछिया में सम्पन्न हुई। बनारस से संस्कृत साहित्य में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। कोलकाता से काव्यतीर्थ किया। श्रीलंका के परिवेश एवं केलानियाँ नामक स्थान पर बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया। लंका में ही नायक पाद धम्मानन्द से 1937 ईस्वी में बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया। इसी अध्ययन के क्रम में नायक पाद धम्मानन्द से 1937 ईस्वी में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।सन1938 में लंका से भारत लौटे। यहाँ लौट कर वे किसानों की समस्या से अवगत हुए एवं बिहार आन्दोलन से जुड़े।इस दौरान1939 एवं 1940 ईस्वी में दो बार जेल गए।
          लंका यात्रा से पूर्व इनका विवाह अपराजिता देवी के साथ 1931 ईस्वी में सम्पन्न हुआ। इनकी पत्नी काफी धर्मशील एवं धर्मपरायण महिला थी। नागार्जुन की साहित्य यात्रा का प्रारम्भ 1930 ईस्वी से होता है। इनकी साहित्य प्रतिभा की पहली किरण मैथिली साहित्य पर पड़ी। मैथिली इनकी मातृभाषा है। वे मैथिली भाषा में "यात्री'' नाम से साहित्य सृजन किया करते थे। 1937 ईस्वी में बौद्ध धर्म की दीक्षा के उपरान्त अपना नाम नागार्जुन कर लिया। हिन्दी साहित्य में "नागार्जुन '' नाम से ही विख्यात हुए। सन 1948 ईस्वी में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या के उपरान्त इन्होंने "शपथ'' एवं "तर्पण'' कविता का प्रकाशन किया। इस कविता में उन्होंने क्षोभ की व्यंजना की है। इससे असंतुष्ट होकर सरकार ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया। लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर सम्पूर्ण क्रान्ति में सक्रिय हुए।इस दौरान जगह-जगह पर नुक्कड़ कवि सम्मेलन में भाग लेकर जनता को जगाते रहे। इस आरोप में 1975 में इन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में बीमार हुए, स्थिति गम्भीर हुई। स्वास्थ्य की गम्भीरता के मद्दे नजर पटना उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार जेल से मुक्त हुए
          इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पण्डित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला एवं महापंडित राहुल सांकृत्यायन का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। इन दो महान साहित्यिक हस्तियों के प्रभाव एवं प्रेरणा से नागार्जुन का व्यक्तित्व एवं कृतित्व  सरिता में चमत्कारिक प्रवाह आ सका, जीवनशैली में आमूल-चूल परिवर्त्तन सम्भव हो सका। राहुलजी की प्रेरणा से राजनीतिक क्षेत्र में इनका आविर्भाव हुआ एवं निराला जी के प्रेरणा से साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश हुआ। अपने राजनीतिक जीवन में कार्लमार्क्स के साम्यवाद से सर्वाधिक प्रभावित रहे परन्तु साहित्यिक जीवन में यह साम्यवाद जनवाद के रूप में परिवर्तित हो गया इसलिए इन्हें "जन कवि" कहकर पुकारा जाता है। जनवादी विचार धारा में अभिप्रेरित होकर इन्होंने यथार्थ की धरती पर विविध मानव जीवन के जीवंत प्रस्तुत किये हैं। निराला के प्रभाव में इन्होंने पीड़ित एवं दलित आम जनता की पीड़ाओं को वाणी प्रदान किया गया है। वर्गसंघर्ष से त्रस्त लोगों के प्रति इन्होंने संवेदना निवेदित करते हुए इसके लिये जिम्मेदार व्यवस्था के प्रति उत्तप्त रोष भी प्रकट किया है। भारत की आजादी के उपरान्त जनता के अभावों, कष्टों एवं पीड़ाओं को देखकर दिल्ली की गद्दी पर बैठे शासकों के विरुद्ध विविध व्यंग्य वाण का भी संधान किया।
          कवि हृदय होने के नाते नागार्जुन ने स्वाभाविक रूप से प्रकृति चित्रण  भी किया है। प्रणय गीत लिखकर यौवन के उच्छ्वासों को भी वाणी दी है। देशप्रेम एवं राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित कविता की भी रचनाएँ की है मगर उनकी आत्मा अभावों में विषमतापूर्वक जीने वालों के निःस्वासों में बसती है। नागार्जुन का कवित्व लगातार कठिनाइयों से जूझता रहा। 
          नागार्जुन का रचना-संसार बहुआयामी एवं विविधताओं से पूर्ण है। उनकी प्रतिभा के द्वारा हिन्दी कविता कोश को काफी समृद्धि मिली।  उनके उपन्यासों की संख्या तेरह है। प्रथमतः1948 में उनका "रतिनाथ की चाची'' नामक उपन्यास प्रकाशित होता है जिसमें मूल रूप से नारी समस्या को केन्द्र बनाया गया है। उसकी सामाजिक दशा एवं दिशा पर लेखक ने फोकस दिया है। "बलचनमा' '(1952) का कथानक  किसान एवं जमीन्दार के बीच  परिभ्रमण करता है। इसमें जमीन्दार के अत्याचार के ब्याज से किसान मजदूरों की दयनीय दशा वर्णित है। "बाबा बटेसरनाथ" में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचारों के विरुद्ध नवयुवकों का आह्वान किया है। "बरुन के बेटे'' में मल्लाहों के जीवन चर्चा की कहानी है। "कुम्भीपाक'' में नारी मुक्ति का सामाजिक सवाल उठाया गया है। "दुखमोचन'' में पिछड़े गाँव के विकासशील होने की कथा को ग्रहण किया गया है। "नई पौध'' में बेमेल विवाह की समस्या का नई पीढ़ी से समाधान की  आकांक्षा की गई है। "उग्रतारा'' में नारी संघर्ष का मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है। "इमरतिया'' का कथानक पूर्वोत्तर भारत के एक सीमावर्ती गाँव से शुरू और समाप्त होता है। "पारो'' चरित्र प्रधान उपन्यास है। मैथिली से इसका हिन्दी भाषान्तर कुंजानंद मिश्र के द्वारा किया गया है। यह उपन्यास सुखान्त है। इसके अन्त में सामाजिक क्रान्ति होती है जिसकी कामना  उपन्यासकार करता है। उपन्यास से पूर्व नागार्जुन की कहानियों का प्रकाशन प्रारम्भ होता है। 1936 में इनकी पहली कहानी "असमर्थ दाता'' प्रकाशित होती है। इसमें विवश बालिका भिखारिन की मार्मिक दशा का चित्रण है। ताप हारिणी (1945) एक घटना प्रधान कहानी है। "विशाखा मृगार माता'' में बौद्ध भिक्षु की कथा है। यह एक चरित्र प्रधान कहानी है। "ममता'' शीर्षक कहानी में नारी की ममता को रूपायित किया गया है। "आसमान में चंदा तेरे'' में सुन्दर सपना सजाने वाले युवक की कहानी है। "भूख मर गई थी'' यथार्थवादी कहानी है। "काया पलट'' का कथानक भारतीय गांव के जागरण पर आधारित है। "जेठा" में मातृ-पितृ विहीन अनाथ बालक की कहानी है। "विषय ज्वार'' में गुजराती जनपद का प्रभाव परिलक्षित होता है। "दीनानाथ'' एक स्वतन्त्रता संग्राम के सेनापति की कथा है जो आजादी के उपरान्त मन्त्री होता है और जीवन, पूर्व जीवन से सर्वथा भिन्न आडम्बर युक्त हो जाता है। "मनोरंजन टैक्स'' एक लघु कथा है। "भस्मांकुर" (खंडकाव्य) नागार्जुन रचित एक खंडकाव्य है। इसका प्रथम प्रकाशन 1970 ईसवी में हुआ था। "भूमिजा'' एक खंडकाव्य है जिसमें मिथिला की सांस्कृतिक धरती की बेटी सीता के खण्ड  जीवन आधार पर इसकी रचना हुई है। इसका प्रकाशन 1980 ईस्वी में होता है।
          इस प्रकार नागार्जुन के कथा विकास अवलोकन के  उपरान्त कहा जा सकता है कि मानवीय जीवन के भिन्न-भिन्न भावों को भोगे हुए यथार्थ को रूबरू प्रस्तुत करना उनकी विशिष्ट विशेषता है। साहित्यकार नागार्जुन जीवन संघर्ष के अपराजेय सेनानी फक्कड़ एवं अखड्ड स्वभाव के धनी रूढ़ि एवं परम्पराओं के विनाशक प्रगतिशील विचार के सक्रिय रचनाकार थे। इनकी कविता के साथ-साथ कथा साहित्य भी पाठकों को बरबस आकर्षित कर लेता है। इनकी कहानियों एवं उपन्यासों में रचनाकार की एक पृथक पहचान रूपायित होती है जो अन्य रचनाकारों से भिन्न है। इनका कथा साहित्य हमें जीवन का सामीप्य प्रदान करता है।इन्हें 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार (मैथिली में, पत्रहीन नग्न गाछ के लिये) भारत भारती सम्मान, मैथिली शरण गुप्त सम्मान, 1994 में राजेन्द्र शिखर सम्मान, पश्चिम बंगाल सरकार से राहुल सांकृत्यायन सम्मान प्राप्त हुआ। ऐसे महान साहित्यकार का निधन 5 नवम्बर 1998 को दरभंगा में हो गया। उनके 109 वीं जयन्ती पर कोटिशः नमन


हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय घीवहा 
फारबिसगंज
अररिया

3 comments:

  1. बहुत-बहुत सुन्दर रचना!

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  2. बहुत ही सारगर्भित , तथ्यपरक एवं रोचक कथा। बहुत बहुत साधुवाद महोदय जी।

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