आधुनिक दौर में शिक्षा की आवश्यकता व महत्व-डाॅ. सुनील कुमार - Teachers of Bihar

Recent

Monday 29 June 2020

आधुनिक दौर में शिक्षा की आवश्यकता व महत्व-डाॅ. सुनील कुमार

आधुनिक दौर में शिक्षा की आवश्यकता व महत्व

शिक्षा क्यों आवश्यक
                 आजादी के बाद इस प्रश्न पर लगातार तेजी से विचार किया जाता रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में हम निश्चित रूप से काफी आगे बढ़े हैं, विकास किया है, लेकिन आगे बढ़ने के साथ-साथ शिक्षा का वास्तविक स्वरूप या तो हम भूल चुके हैं या फिर आधुनिकता एवं विकास की दौड़ में शिक्षा में अब वह शक्ति नहीं रह गई जिससे एक ज्ञानशील, सृजनशील एवं मानवतावादी समाज का निर्माण किया जा सके। आज समाज का एक बड़ा वर्ग शिक्षा को आर्थिक सुदृढ़ीकरण के रूप में देखता है जबकि शिक्षा को मानवीय विकास का मूल साधन कहा गया है। यदि वर्तमान परिदृश्य को देखें और आँकड़ो की बात करें तो हम उक्त दोनों बातों को अस्वीकार नहीं कर सकते।
          आधुनिक विकास की दौड़ में विकास को हमें आध्यात्मिकता की सीमाओं को ध्यान में रखकर करना होगा अन्यथा दोनों ही रूपों में हम मौलिकता के स्वरूपों को खोते जाएँगे। शिक्षा का बुनियादी स्वरूप उसका मौलिक स्वरूप है जिसमें सामाजिक, मानसिक, अध्यात्मिक, चारित्रिक एवं सृजनशील व्यक्ति का निर्माण करना ही शिक्षा है। वर्तमान शिक्षा इनमें से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करती हुई दिख नहीं रही है। 
          शोध एवं अध्यनों से प्राप्त तथ्य के आधार पर यह कहना अनुचित नहीं कि एक तरफ जहाँ तकनीकी क्षेत्र में हम आगे बढ़े हैं तो वहीं दूसरी तरफ इसके नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं। तकनीकी विकास ने शिक्षा के भावात्मक प्रभाव को कम कर दिया है जिससे बच्चों की सृजनशीलता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
              राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में क्या और कैसे पढ़ाया जाए, विषय का आरंभ रवीन्द्र नाथ टैगोर के निबंध 'सभ्यता और प्रगति' से होता है जिसमें कविगुरु कहते हैं-- सृजनात्मकता, उदारता और आनंद बचपन की कुंजी है। आज के परिदृश्य में बच्चों का बचपन छीना जा रहा है इसमें अभिभावक, समाज एवं व्यवस्था सभी शामिल हैं। बच्चा जब बेहतर तरीके से अपने पैर पर खड़ा भी नहीं होने की स्थिति में है, उसी समय से बच्चे को मुंह में चम्मच लगाए रेस में दौड़ा दिया जाता है। दौड़ बेटा, दौड़...! भाग बेटा, भाग...!! तुम्हें किसी भी तरह अव्वल आनी है। बाकी की चिंता नहीं करनी। सिर्फ और सिर्फ तुम्हें शिखर पर पहुँचना है। यही मंशा लिए सभी अभिभावक एवं व्यवस्थापक परिणाम के इंतजार में हैं। कैसा समाज का निर्माण कर रहे हैं हम...?  जहाँ सिर्फ अपने बारे में बात कर रहे हैं। बच्चे की परीक्षा के बाद परिणाम के दिन हम बेसब्री से इंतजार करते हैं कि मेरा बच्चा टॉप किया या नहीं। बच्चा जैसे ही घर पहुँचा पहला प्रश्न होता है कि कितना अंक आया? कितना प्रतिशत आया? कहीं तुमसे कोई और आगे तो नहीं हो गया? और यदि हो गया तो क्यों? उस बच्चे की अब खैर नहीं!... वगैरह.... वगैरह....
          यानी बच्चे को हम यह सिखा रहे हैं कि सिर्फ तुम्हें ही अव्वल आनी है, बाकी की चिंता नहीं करनी। येन केन प्रकारेण तुम टॉप करो चाहे उसके लिए तुम्हें जो भी करना पड़े। रेस में टॉप करना है तो करना है, भले ही उसके लिए बगल वाले को पैर फंसा कर गिरा दो। तुम्हें सिर्फ अपने से मतलब है। यही शिक्षा दे रहे हैं, हम अपने बच्चों को। बच्चा सोचता है कि मेरे अभिभावक मुझसे यही चाहते हैं। जब इसी परिवेश में बच्चा बड़ा होता है तब एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जहाँ सिर्फ अपने बारे में सोचें। यदि हमें आगे निकलने के लिए बगल वाले को धक्का देना पड़े, गिरा देना पड़े तो भी परहेज नहीं क्योंकि यही शिक्षा देकर हमने उनको बड़ा किया है। आज तक यही तो उसे मानवता, नैतिकता एवं मौलिकता का पाठ हमने पढ़ाया है।
          अतः आज के परिदृश्य में समय के अनुकूल शिक्षा को परिभाषित करने की आवश्यकता है जिसमें संवेदनशीलता एवं भावनाओं का इस प्रकार से विकास करना होगा जिससे नई परिस्थितियों का सामना किया जा सके। पूरी दुनियाँ  में बढ़ते विद्वेष और मतभेदों को सुलझाने के लिए नये-नये तरीकों, शांति, शिक्षा एवं मूल्य शिक्षा को एक समग्र रूप में परिभाषित करने की आवश्यकता  महसूस हो रही है। हमने शिक्षा में मौलिकता का पक्ष भी खो दिया जिसमें रचनात्मकता, आनंद और स्वतंत्रता तीनों की कल्पना की गई है। आज शिक्षा न ही सच्चा आनंद दे पा रही है न ही वह पूरी तरह से स्वतंत्र है और न ही रचनात्मकता अर्थात मौलिकता का सृजन कर पा रही है। आज की शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से भटक सी गई है। वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुकी है। 
          वैश्वीकरण के इस दौर में मानव संवेदनहीन हो चुका है यही तो शिक्षा की मौलिकता थी जिसको हमने खो दिया। हमें आवश्यकता है वैश्वीकरण के विकास का उदारवादी मॉडल अपनाते हुए अपनी शिक्षा की मौलिकता का ह्रास न होने दें। हमें अपनी कल्पना में जीना नहीं छोड़ना चाहिए। उन भावों को उत्पन्न और महसूस करना नहीं छोड़ना चाहिए जो हमारी विरासत रही है। जिन्होंने "सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यंतु"  की कल्पना की थी। हमने इस कल्पना को भी नकार दिया या यूँ कहे कि शिक्षा ऐसे व्यक्तियों के सृजन करने में असफल रही।
          आवश्यकता है शिक्षा, प्रत्येक व्यक्ति के विशिष्ट मौलिक गुणों को तराशने का कार्य करे। ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करे जिसमें संवेदनशीलता, खुद पर विश्वास का भाव, सामाजिक चेतना, सृजनात्मकता, सकारात्मक सोच आदि का विकास हो। इन्हीं चिंताओं के कारण हम अपने ज्ञान, अपनी मौलिकता को कमजोर मानकर दुनियाँ की तरफ देखना शुरू कर देते हैं। जो दुनियाँ कभी भारत की तरफ भारतीय ज्ञान, परंपरा, शिक्षा की मौलिकता को देखा करती थी उस दृष्टि को हमें पुनः प्राप्त करना है। आज हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे हम स्वयं का अवलोकन कर अपनी मौलिकता और अपनी गुणों की पहचान कर सकें, फिर से विश्व गुरु बन सकें।
 


✍️ डॉ. सुनील कुमार
डिस्ट्रिक्ट मेंटर, टी ओ बी औरंगाबाद
राष्ट्रीय इंटर विद्यालय दाउदनगर, औरंगाबाद

7 comments:

  1. Aap bahut achchha likhte hai sir🙏🙏

    ReplyDelete
  2. बहुत-बहुत सुन्दर!

    ReplyDelete
  3. सत्य और सुंदर आलेख

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर और तथ्यपरक

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर और तथ्यपरक

    ReplyDelete
  6. बहुत सुंदर आलेख ।आज की शिक्षा के वास्तविक रूप को खूबसूरती के साथ रखा है कि आज की शिक्षा ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने तक सीमित हो गई है और मानवीय पहलू गौण होते जा रहे हैं ।
    धन्यवाद ।

    ReplyDelete